Thursday, August 5, 2010

कश्मीर में संवाद

इसी बुधवार को हिन्दुस्तान में कश्मीर के बाबत मेरा लेख छपने के बाद एक पाठक ने मुझे ई-मेल पर अपनी प्रतिक्रिया भेजी जो इस प्रकार है : 


    Maine 4 august k paper me apka kashmir se related article padha... Main kuch share karna chahta hu apse...
Main facebook ka ek active member hu.. Yahi par meri dosti kuch kashmiri ladke ladkiyo se hui..
Unme kuch IUST SRINAGAR k student hain.. Muje unke vichaar sunke badi hairaani hui...itne educated hone k baad b wo log aise behave kar rahe the k kisi ki kathputli ho... Wo khud ko indian kehlane ki bajaye kashmiri kehlana pasand kartey hain... Wo indians ko bilkul pasand nhi kartey.. Kafi din tak unse baat krne k baad muje jo samajh me aaya... Unki maang hai k kashmir ko ek fully independent state banaya jaye..iske liye wo marne tak ko ready hain..  meri samajh me nhi aya k wo aisa kyu chahte hain... Kya aisa ho sakta hai k kashmir alag ho jaye?? Muje lagta hai isse waha k logo ko nuksaan jyada hoga... Jo wo soch rahe hain uska ulta hoga... IUST SRINAGAR k students ko iss baat ki bhi pareshani hai k unke examz 4 baar post poned ho chuke hain...
M worried abt ma frendz.. Wo bechare galat sochte hain..mushkil me par sakte hain... Kya koi awaaz p.m ya president tak nhi pohuch sakti?? Kashmir issue kya jaldi se jaldi nhi nibat sakta??

यह जागरूक पाठक इस बात को लेकर चिंतित है कि कश्मीर के नौजवानों का बड़ा हिस्सा खुद को भारत से जोड़ना नहीं चाहता। वे ऐसा क्यों सोचते हैं और इस मामले में हम क्या कर सकते हैं, यह दीगर बात है। मैं दो-एक बातों की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ। एक तो यह कि तकनीकी दृष्टि से हमें सिर्फ भारत अधिकृत कश्मीर के बारे में ही नहीं समूचे कश्मीर के बारे में सोचना चाहिए। दूसरे जिन नौजवानों की बात इस पाठक ने लिखी है, वे श्रीनगर घाटी के हैं। जम्मू और लद्दाख के नौजवान ऐसा नहीं सोचते। 

घाटी के नौजवानों का अलगाव दूर करने के लिए हमें उनसे और ज्यादा बात करनी चाहिए। इसमें घबराने और अतिशय भावुक होने की ज़रूरत नहीं है। यह समस्या इतिहास ने हमें दी है और इतिहास ही उनका समाधान करेगा।

दो-तीन दिन में स्थिति बदली है। दिल्ली से वापस लौटकर उमर अब्दुल्ला ने संवाद शुरू किया है। उधर सैयद अली शाह गीलानी ने नौजवानों से कहा है कि वे हिंसा का सहारा न लें। यह सकारात्मक संकेत है।

बातचीत शुरू होनी चाहिए। इसमें उन लोगों को भी आना चाहिए जो हम से सहमत नहीं हैं। इसके साथ हमें अपने भीतर भी बात करनी चाहिए। यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि समस्या क्या है। मैं अपने इस ब्लॉग में इसकी पृष्ठभूमि बताने का प्रयास करूँगा। जो भी फैसला होगा वह इस देश के लोग अपनी संसद के मार्फत करेंगे। पर उसके पहले खुल कर विचार ज़रूर करना चाहिए।  

बाज़ार के हवाले भूख

दो रोज़ पहले संसद में महंगाई को लेकर बहस हुई। इस बहस के दो-एक पहलुओं की ओर मैं इशारा करना चाहता हूँ। ऐसा लगता है कि महंगाई को लेकर सत्ता-पक्ष और विपक्ष उतने चिंतित नहीं हैं, जितना शोर मचाते हैं। विपक्ष ने शोर मचाया कि मंत्री सदन से गायब हैं। जबकि सच यह था कि विपक्षी सदस्य भी पूरे समय सदन में नहीं थे। 


सदन में बहस के दौरान महंगाई पर गम्भीर विश्लेषण किसी ने नहीं किया। सिर्फ इतना ही सुनाई पड़ता था कि मरे जा रहे हैं। सड़क के नारों और फिल्मी गीतों से सजाने भर से अच्छे संसदीय भाषण नहीं बनते। इस मामले में हमारे ज्यादातर नेता घटिया साबित हो रहे हैं।  


तीसरे 5 जुलाई को जब महंगाई के विरोध में राष्ट्रीय बंद हुआ था, ज्यादातर अखबारों और टीवी की बहसों में कहा जा रहा था कि आप संसद में बहस क्यो नहीं करते। सड़क पर क्यों जाते हैं?  बात समझ में आती है, पर जब बहस हुई तब कितने अखबारों में इसकी खबर लीड बनी। दिल्ली के टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे 'लोकप्रिय' अखबार में यह खबर पहले सफे पर भी नहीं थी। 


संसदीय बहसें अब मीडिया में कवर नहीं होतीं। इसकी वजह यदि यह होती कि संसद में बहसें अब नहीं होतीं तब तो ठीक था। ऐसी स्थिति में मीडिया को बहस का मंच बनाते। पर मीडिया को सनसनी चाहिए। कॉमनवैल्थ गेम्स में घोटालों की वजह से सनसनी है। पर सच यह भी है कि मीडिया कॉमनवैल्थ गेम्स की सफलता नहीं चाहता। 


मीडिया की दृष्टि में कॉमनवैल्थ गेम्स कोई बड़ा बिजनेस ईवेंट नहीं है। इसमें ज्यादा विज्ञापन नहीं मिलेंगे। इसकी जगह क्रिकेट होता तो घोटालों को उजागर करने के बजाय मीडिया दबाता। जब आईपीएल चल रहा था तब कितने घोटाले सामने आए?  वे तभी सामने आए जब मोदी ने ट्वीट किया। उनके आपसी झगड़े के कारण सामने आए। यों क्रिकेट (खेल नहीं उसका प्रतिष्ठान) अपने आप में बड़ा घोटाला है। 


बहरहाल महंगाई गरीब पर लगने वाला टैक्स है। महंगाई माने ज़रूरी चीजों की महंगाई है। आटा, चावल, दाल, तेल, चीनी, दूध, आलू, प्याज़ वगैरह की महंगाई। अमीर आदमी की आय का बहुत छोटा हिस्सा इन चीजों पर लगता है। वह जितने का आटा-चावल खरीदता है उससे कई गुना उसकी बीवी पार्लर का बिल देती है। ग़रीब आदमी का खाना ही पूरा नहीं होता, वह शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और परिवहन पर क्या खर्च करेगा। 


एक ज़माने में शहरों में पानी के प्याऊ होते थे। क्या गरीब और क्या अमीर सब उसका पानी पीते थे। अब पानी बोतलबंद है और प्याऊ बंद हैं। गरीब रिक्शेवाला खरीद कर पानी पीता है। उसका खून रिक्शे का पेट्रोल है, जो खरीदे हुए पानी से बनता है। उस रिक्शेवाले को पैसा देने में भी बीस खिच-खिच हैं। महंगाई उन जैसे लोगों के लिए काल साबित होती है। 


गरीबों की रक्षा करना सरकार की जिम्मेदारी है। यह हमारे यहाँ और शायद सिर्फ हमारे यहाँ हुआ है कि सरकार ने अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया है। कल शाम आकाशवाणी की चर्चा में प्रो कमल नयन काबरा बता रहे थे कि दक्षिण कोरिया की बाज़ार व्यवस्था में भी सरकार कीमतों को काबू में रखती है। यह काम बेहतर सार्जनिक वितरण प्रणाली से सम्भव है। 


सरकारी नीतियों के कारण हमारे घर के आसपास की चक्कियाँ बंद हो गई हैं। हम और आप ब्रांडेड आटा खा रहे हैं। बड़े कॉरपोरेशन अनाज के कारोबार में आ गए हैं। वे आएं, पर उनके पास इतनी ताकत तो न हो कि वे किसान को चुकाई कीमत से दुगने या तिगने दाम पर बेचें। वायदा बाज़ार का फायदा किसान को मिलने के बजाय बिचौलिए को मिलने का मतलब है कि यह व्यवस्था गरीबी रच रही है। 


बाज़ार हमेशा खतरनाक नहीं है। उसकी ज़रूरत है। वह आपसी प्रतियोगिता के कारण उपभोक्ता के लिए मददगार हो सकता है। पर यह बाज़ार नहीं मोनोपली पूँजीवाद है। इसमें जिसके पास पैसा है उसे बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थाओं से पैसा मिल जाता है। वह उत्पादक से अनाज या सब्जी खरीद लेता है। वायदा बाज़ार से उसे पता लग जाता है कि किस चीज़ के दाम बढ़ेंगे। वह उस चीज़ को रोक लेता है। 2008-09 में आलू के साथ ऐसा हुआ था।  


सरकार अभी तक भोजन के अधिकार का बिल पेश नहीं कर पाई है। पीडीएसको सीमित कर दिया गया है। अब वह गरीबी की रेखा के नीचे के लोगों के लिए है। यच यह है कि गरीबी रेखा के काफी ऊपर तक के लोग बेहद गरीब हैं। टार्गेटेड पीडीएस के कारण तमाम भ्रष्टाचार है। पीडीएस सब के लिए होना चाहिए। जनता को खाने-पीने की चीजों के लिए बाज़ार के पास तभी जाना चाहिए जब वह सस्ता और अच्छा माल दे। बाज़ार का नियम है प्रतियोगिता। आज बाजार के सामने प्रतियोगिता है ही नहीं। 


मिलावट भारत की देन है। पिछले तीन-चार दशक में यह बड़ा कारोबार बन गया है। सिंथेटिक दूध जैसी भयावह चीज़ खुलेआम बिक रही है। इसके खिलाफ बेहद सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। मिर्च में हल्दी में जीरे में हर चीज़ में मिलावट है। इन चीजों से निपटने की जिम्मेदारी सरकार की है। वह अपनी जिम्मेदारी तभी निभाएगी, जब जनता बोलेगी। अमर्त्य सेन कहते हैं कि जहाँ लोकतंत्र होता है वहाँ अकाल नहीं होते। यह बात महंगाई पर भी लागू होनी चाहिए। 

Wednesday, August 4, 2010

कश्मीर में अधूरे मन से

ऐसा लगता है हमारी समूची राजनीति अपने अस्तित्व को लेकर फिक्रमंद नहीं है। कश्मीर-समस्या इस राजनीति की देन है। एक ज़माने तक केन्द्र सरकार वहाँ सरकार बनाने और गिराने के खेल खेलती रही। जब पाकिस्तान के समर्थन से हिंसक शक्तियों ने मोर्चा सम्हाल लिया तो उसे दुरुस्त करने की बड़ी कीमत हमें चुकानी पड़ी। फिर वहाँ हालात सुधरे और 2009 के चुनाव में बेहतर मतदान हुआ। उसके बाद आई नई सरकार ने चादर खींच कर लम्बी तान ली। अब हम किसी राजनैतिक पैकेज का इंतज़ार कर रहे हैं। इस पैकेज का अर्थ क्या है? एक अर्थ है सन 2000 का स्वायत्तता प्रस्ताव जिसे नेशनल कांफ्रेस भी भूल चुकी है। विडंबना देखिए कि हिंसक आतंकवादियों को परास्त करने के बाद हम ढेलेबाज़ी कर रहे किशोरों से हार रहे हैं। भीलन लूटीं गोपियाँ.....

हिन्दुस्तान में प्रकाशित मेरा लेख पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें


बलराज पुरी का लेख
हिन्दू में हैपीमन जैकब का लेख
हिन्दू में सम्पादकीय
कश्मीर का घटनाक्रम 2002 तक-इंडिया टुगैदर

Tuesday, August 3, 2010

पत्रकारिता के समांतर चलता है उसका कारोबार



जब हम मीडिया के विकास, क्षेत्र विस्तार और गुणात्मक सुधार की बात करते हैं, तब सामान्यतः उसके आर्थिक आधार के बारे में विचार नहीं करते। करते भी हैं तो ज्यादा गहराई तक नहीं जाते। इस वजह से हमारे एकतरफा होने की संभावना ज्यादा होती है। कहने का मतलब यह कि जब हम मूल्यबद्ध होते हैं, तब व्यावहारिक बातों को ध्यान में नहीं रखते। इसके विपरीत जब व्यावहारिक होते हैं तब मूल्यों को भूल जाते हैं। जब पत्रकारिता की बात करते हैं, तब यह नहीं देखते कि इतने लोगों को रोजी-रोज़गार देना और साथ ही इतने बड़े जन-समूह के पास सूचना पहुँचाना मुफ्त में तो नहीं हो सकता। शिकायती लहज़े में अक्सर कुछ लोग सवाल करते हैं कि मीडिया की आलोचना के पीछे आपकी कोई व्यक्तिगत पीड़ा तो नहीं? ऐसे सवालों के जवाब नहीं दिए जा सकते। दिए भी जाएं तो ज़रूरी नहीं कि पूछने वाला संतुष्ट हो। बेहतर है कि हम चीज़ों को बड़े फलक पर देखें। व्यक्तिगत सवालों के जवाब समय देता है।

पत्रकार होने के नाते हमारे पास अपने काम का अनुभव और उसकी मर्यादाओं से जुड़ी धारणाएं हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हम कारोबारी मामलों को महत्वहीन मानें और उनकी उपेक्षा करें। मेरा अनुभव है कि मीडिया-बिजनेस में तीन-चार तरह की प्रवृत्तियाँ हैं, जो व्यक्तियों के मार्फत नज़र आती हैं। एक है कि हमें केवल पत्रकारीय कर्म और मर्यादा के बारे में सोचना चाहिए। कारोबार हमारी समझ के बाहर है। पत्रकारीय कर्म के भी अंतर्विरोध हैं। एक कहता है कि हम जिस देश-काल को रिपोर्ट करते हैं, उससे निरपेक्ष रहें। जिस राजनीति पर लिखते हैं, उसमें शामिल न हों। दूसरा कहता है कि राजनीति एक मूल्य है। मैं उस मूल्य से जुड़ा हूँ। मेरे मन में कोई संशय नहीं। मैं एक्टिविस्ट हूँ, वही रहूँगा।

तीसरा पत्रकारीय मूल्य से हटकर कारोबारी मूल्य की ओर झुकता है। वह कारोबार की ज़रूरत को भी आंशिक रूप से समझना चाहता है। चौथा कारोबारी एक्टिविस्ट है यानी वह पत्रकार होते हुए भी खुलेआम बिजनेस के साथ रहना चाहता है। वह मार्केटिंग हैड से बड़ा एक्सपर्ट खुद को साबित करना चाहता है। पाँचवाँ बिजनेसमैन है, जो कारोबार जानता है, पर पत्रकारीय मर्यादाओं को तोड़ना नहीं चाहता। वह इस कारोबार की साख बनाए रखना चाहता है। छठे को मूल्य-मर्यादा नहीं धंधा चाहिए। पैसा लगाने वाले ने पैसा लगाया है। उसे मुनाफे के साथ पैसे की वापसी चाहिए। आप इस वर्गीकरण को अपने ढंग से बढ़ा-घटा सकते हैं। इस स्पेक्ट्रम के और रंग भी हो सकते हैं। एक संतुलित धारणा बनाने के लिए हमें इस कारोबार के सभी पहलुओं का विवेचन करना चाहिए।

इन दिनों ब्लॉगिंग चर्चित विषय है। चिट्ठाजगत से हर रोज तकरीबन दस-पन्द्रह नए चिट्ठों के पंजीकरण की जानकारी दी जाती है। वास्तविक नए ब्लॉगों की संख्या इससे कहीं ज्यादा होगी। चिट्ठाजगत में पंजीकृत चिट्ठों की संख्या पन्द्रह हजार के पास पहुँच रही है। हर रोज चार सौ से पाँच सौ के बीच ब्लॉग पोस्ट आती हैं। यानी इनमें से पाँच प्रतिशत भी नियमित रूप से नहीं लिखते। एक तरह की सनसनी है। एक नई चीज़ सामने आ रही है। एक लोकप्रिय एग्रेगेटर ब्लॉगवाणी के अचानक बंद हो जाने से ब्लॉगरों में निराशा है। इस बीच दो-एक नए एग्रेगेटर तैयार हो रहे हैं। यह सब कारोबार से भी जुड़ा है। कोई सिर्फ जनसेवा के लिए एग्रेगेटर नहीं बना सकता। उसका कारोबारी मॉडल अभी कच्चा है। जिस दिन अच्छा हो जाएगा, बड़े इनवेस्टर इस मैदान में उतर आएंगे। ब्लॉग लेखक भी चाहते हैं कि उनके स्ट्राइक्स बढ़ें। इसके लिए वे अपने कंटेंट में नयापन लाने की कोशिश करते हैं। इसके लिए कुछ ने सनसनी का सहारा भी लिया है। अपने समूह बना लिए हैं। एक-दूसरे का ब्लॉग पढ़ते हैं। टिप्पणियाँ करते हैं। वे अपनी बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाना चाहते हैं। साथ ही इसे व्यावसायिक रूप से सफल भी बनाना चाहते हैं। मिले तो विज्ञापन भी लेना चाहेंगे। ध्यान से पढ़ें तो मीडिया बिजनेस की तमाम प्रवृत्तियाँ आपको यहाँ मिलेंगी।

भारत में अभी प्रिंट मीडिया का अच्छा भविष्य है। कम से कम दस साल तक बेहतरीन विस्तार देखने को मिलेगा। इसके साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का विस्तार हो रहा है। वह भी चलेगा। उसके समानांतर इंटरनेट का मीडिया आ रहा है, जो निश्चित रूप से सबसे आगे जाएगा। पर उसका कारोबारी मॉडल अभी शक्ल नहीं ले पाया है। मोबाइल तकनीक का विकास इसे आगे बढ़ाएगा। तमाम चर्चा-परिचर्चाओं के बावज़ूद इंटरनेट मीडिया-कारोबार शैशवावस्था में, बल्कि संकट में है।

दुनिया के ज्यातर बड़े अखबार इंटरनेट पर आ गए हैं। वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, गार्डियन, टेलीग्राफ, इंडिपेंडेंट, डॉन, टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दू से लेकर जागरण, भास्कर, हिन्दुस्तान और अमर उजाला तक। ज्यादातर के ई-पेपर हैं और न्यूज वैबसाइट भी। पर इनका बिजनेस अब भी प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मुकाबले हल्का है। विज्ञापन की दरें कम हैं। इनमे काम करने वालों की संख्या कम होने के बावजूद उनका वेतन कम है। धीरे-धीरे ई-न्यूज़पेपरों की फीस तय होने लगी है। रूपर्ट मर्डोक ने पेड कंटेंट की पहल की है। अभी तक ज्यादातर कंटेंट मुफ्त में मिलता है। रिसर्च जरनल, वीडियो गेम्स जैसी कुछ चीजें ही फीस लेकर बिक पातीं हैं। संगीत तक मुफ्त में डाउनलोड होता है। बल्कि हैकरों के मार्फत इंटरनेट आपकी सम्पत्ति लूटने के काम में ही लगा है। मुफ्त में कोई चीज़ नहीं दी जा सकती। मुफ्त में देने वाले का कोई स्वार्थ होगा। ऐसे में गुणवत्ता और वस्तुनिष्ठा नहीं मिलती। डिजिटल इकॉनमी को शक्ल देने की कोशिशें हो रहीं हैं।

कभी मौका मिले तो हफिंगटनपोस्ट को पढ़ें। इंटरनेट न्यूज़पेपर के रूप में यह अभी तक का सबसे सफल प्रयोग है। पिछले महीने इस साइट पर करीब ढाई करोड़ यूनीक विज़िटर आए। ज्यादातर बड़े अखबारों की साइट से ज्यादा। पर रिवेन्यू था तीन करोड़ डॉलर। साधारण अखबार से भी काफी कम। हफिंगटन पोस्ट इस वक्त इंटरनेट की ताकत का प्रतीक है। करीब छह हजार ब्लॉगर इसकी मदद करते हैं। इसके साथ जुड़े पाठक बेहद सक्रिय हैं। हर महीने इसे करीब दस लाख कमेंट मिलते हैं। चौबीस घंटे अपडेट होने वाला यह अखबार दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अखबारों की कोटि की सामग्री देता है। साथ में वीडियो ब्लॉगिंग है। सन 2005 से शुरू हुई इस न्यूज़साइट के शिकागो, न्यूयॉर्क, डेनवर, लॉस एंजलस संस्करण निकल चुके हैं। पिछले साल जब फोर्ब्स ने पहली बार मीडिया क्षेत्र में सबसे प्रभावशाली महिलाओं की सूची छापी तो इस साइट की को-फाउंडर एरियाना हफिंगटन को बारहवें नम्बर पर रखा।

इंटरनेट के मीडिया ने अपनी ताकत और साख को स्थापित कर दिया है। पर यह साख बनी रहे और गुणवत्ता में सुधार हो इसके लिए इसका कारोबारी मॉडल बनाना होगा। नेट पर पेमेंट लेने की व्यवस्था करने वाली एजेंसी पेपॉल को छोटे पेमेंट यानी माइक्रो पेमेंट्स के बारे में सोचना पड़ रहा है। जिस तरह भारत में मोबाइल फोन के दस रुपए के रिचार्ज की व्यवस्था करनी पड़ी उसी तरह इंटरनेट से दो रुपए और दस रुपए के पेमेंट का सिस्टम बनाना होगा। चूंकि नेट अब मोबाइल के मार्फत आपके पास आने वाला है, इसलिए बहुत जल्द आपको चीजें बदली हुई मिलेंगी। और उसके बाद कंटेंट के कुछ नए सवाल सामने आएंगे। पर जो भी होगा, उसमें कुछ बुनियादी मानवीय मूल्य होंगे। वे मूल्य क्या हैं, उनपर चर्चा ज़रूर करते रहिए।

चलते-चलते

Sunday, August 1, 2010

तालिबान खतरनाक क्यों हैं?



अमेरिका ने इराक में पैर न फँसाए होते तो शायद उसे कम बदनामी मिली होती। इराक के मुकाबले अफगानिस्तान की परिस्थितियाँ फर्क थीं। इराक में सद्दाम हुसेन की तानाशाही ज़रूर थी, पर वह अंधी सरकार नहीं थी। अफगानिस्तान तो सैकड़ों साल पीछे जा रहा था। तालिबानी शासन-व्यवस्था सैकड़ों साल पीछे जा रही थी। बामियान की बुद्ध प्रतिमाओं को तोड़कर तालिबान ने साफ कर दिया था कि उनके कायम रहते उस समाज में आधुनिकता पनप नहीं सकेगी। तालिबान अपने आप सत्ता पर आए भी  नहीं थे। उन्हें स्थापित किया था पाकिस्तानी सेना ने। और तैयार किया था पाकिस्तानी मदरसों नें। 

तालिबान-शासन में सबसे बुरी दशा स्त्रियों की हुई थी। उनकी पराजय के बाद अफगान स्त्रियों ने राहत की साँस ली, पर वह साँस सिर्फ साँस ही थी राहत नहीं। साथ के चित्र को देखें। यह 9 अगस्त की टाइम मैगज़ीन का कवर पेज है। इस लड़की का नाम है आयशा। इसके ससुराल में इसके साथ गुलामों जैसा बर्ताव होता था। इसपर यह ससुराल से भाग खड़ी हुई। 

स्थानीय तालिबान कमांडर ने पति का पक्ष लिया। आयशा के देवर ने उसे पकड़ा और उसके पति ने चाकू से उसके कान और नाक काट ली। यह तालिबान न्याय है। पर यह दस साल पहले की बात नहीं है। यह पिछले साल की बात है। यानी तालिबान आज भी ताकतवर हैं। 

पाकिस्तान कोशिश कर रहा है कि हामिद करज़ाई की सरकार तालिबान के साथ सुलह करके उन्हें सत्ता में शामिल कर ले। अमेरिका भी शायद इस बात से सहमत हो गया है। पर क्या तालिबान की वापसी ठीक होगी? तमाम लोग चाहते हैं कि अमेरिका को अफगानिस्तान से हट जाना चाहिए। ज़रूर हटना चाहिए, पर उसके बाद क्या होगा? कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार है?