Wednesday, June 26, 2019

कैसे बचेंगी सरकारी टेलीकॉम कंपनियाँ?

पिछले दो दशक में भारत की सफलता की कहानियों में सबसे बड़ी भूमिका टेलीकम्युनिकेशंस की है. इस दौर में जहाँ निजी क्षेत्र की कई कंपनियाँ तेजी से आगे बढ़ीं, वहीं सार्वजनिक क्षेत्र की बीएसएनएल और एमटीएनएल के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है. यह संकट पूँजी, तकनीक और प्रबंधकीय कौशल तीनों में किसी न किसी प्रकार की खामी का संकेत दे रहा है. सरकार के सामने पहली बड़ी चुनौती इन कंपनियों को बचाने और निजी क्षेत्र की कंपनियों के मुकाबले में खड़ा करने की है. पिछले कई महीनों से खबरें हैं कि हजारों कर्मचारियों की छँटनी होने जा रही है. नई सरकार के सामने बड़ी चुनौती इस बात की है कि कोई अलोकप्रिय फैसला किए बगैर इस संकट का समाधान करे.

खबर है कि बीएसएनएल ने सरकार से कहा है कि अब हम काम नहीं चला पाएंगे. जून के महीने का वेतन देने के लिए भी हमारे पास पैसे नहीं हैं. संस्था पर करीब 13,000 करोड़ रुपये की देनदारी है, जिसके कारण कार्य-संचालन असम्भव है. जून के महीने की तनख्वाह के लिए 850 करोड़ रुपये का इंतजाम करना तक मुश्किल है.

Sunday, June 23, 2019

चुनाव-प्रणाली पर विमर्श से भागते क्यों हैं?


एक देश, एक चुनाव व्यवस्था लागू होगी या नहीं, कहना मुश्किल है, पर विरोधी दलों के रुख से लगता है कि वे इस विचार पर बहस भी नहीं चाहते हैं। यह बात समझ में नहीं आती है। वे सरकार के साथ बैठकर बात भी नहीं करेंगे, भले ही विषय कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो। कांग्रेस और कुछ अन्य दलों ने इस विषय पर विचार के लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठक का बहिष्कार क्यों किया, यह समझ में नहीं आया। वे इस व्यवस्था के पक्ष में नहीं हैं, तो इस बात को बैठक में जोरदार तरीके से उठाएं। यों भी यह दो दिन में लागू होने वाली बात नहीं है। भारी बहुमत के बावजूद सरकार को कानूनी बदलावों को करते-कराते दस साल लग जाएंगे।
संसद की स्थायी समिति, विधि आयोग और चुनाव आयोग ने इसे भी चुनाव-सुधारों का एक कारक माना है, तो कोई वजह तो होगी। आपकी राय इसके विपरीत है, तो उसे उचित फोरम पर रखना चाहिए। चुनाव से जुड़े कई मसले हैं। सरकार और पार्टियों का खर्च एक मसला है, पूरे साल कहीं न कहीं चुनाव होने से सामाजिक नकारात्मकता पैदा होती है, आचार संहिता लागू होने के कारण कई तरह के काम रुके रहते हैं, सुरक्षाबलों की तैनाती आसान होती है वगैरह। इन बातों के दूसरे पहलू भी हैं, उनपर बात तभी होगी, जब आप बैठेंगे।

Tuesday, June 18, 2019

‘फायरब्रैंड छवि’ बनी ममता की दुश्मन


Image result for mamata banerjeeपश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की फायरब्रैंड छवि खुद उनकी ही दुश्मन बन गई है. हाल में हुए लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी को लगे धक्के से उबारने की कोशिश में उन्होंने कुछ ऐसी बातें कह दीं है जिनसे वे गहरे संकट में फँस गईं हैं. उनकी कर्ण-कटु वाणी ने देशभर के डॉक्टरों को उनके खिलाफ कर दिया है. हालांकि ममता को अब नरम पड़ना पड़ा है, पर वे हालात को काबू कर पाने में विफल साबित हुई हैं. इस पूरे मामले को राजनीतिक और साम्प्रदायिक रंग देने से उनकी छवि को धक्का लगा है. इन पंक्तियों प्रकाशित होने तक यह आंदोलन वापस हो भी सकता है, पर इस दौरान जो सवाल उठे हैं, उनके जवाब जरूरी हैं.   
कोलकाता से शुरु हुए इस आंदोलन ने देखते ही देखते राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन का रूप ले लिया. दिल्ली के एम्स जैसे अस्पतालों से कन्याकुमारी तक धुर दक्षिण के डॉक्टर तक विरोध का झंडा लेकर बाहर निकल आए हैं. डॉक्टरों के मन में अपनी असुरक्षा को लेकर डर बैठा हुआ है, वह एकसाथ निकला है. इस डर को दूर करने की जरूरत है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने सोमवार को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया है. सम्भव है कि इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक स्थितियाँ सुधर जाएं, पर हालात का इस कदर बिगड़ जाना बड़ी बीमारी की तरफ इशारा कर रहा है. इस बीमारी का इलाज होना चाहिए.

Sunday, June 16, 2019

नई चुनौतियाँ और उम्मीदें


मोदी-सरकार पहले से ज्यादा ताकत के साथ जीतकर आई है, जिसके कारण उसके हौसले बुलंद हैं और सरकारी घोषणाओं में आत्मविश्वास झलक रहा है। बावजूद इसके चुनौतियाँ पिछली बार से ज्यादा बड़ी हैं। अर्थव्यवस्था सुस्ती पकड़ रही है। बैंकिंग की दुर्दशा, स्वदेशी पूँजी निवेश में कमी, बढ़ती बेरोजगारी और आर्थिक संवृद्धि में अपेक्षित तेजी नहीं आ पाने के कारण ये चिंताएं हैं। सरकार को राजनीतिक दृष्टि से लोकप्रियता बढ़ाने वाले फैसले भी करने हैं और आर्थिक-सुधार के कड़वे उपाय भी। पहली कैबिनेट बैठक में, मोदी सरकार ने सभी किसानों को कवर करने के लिए पीएम-किसान योजना के विस्तार को मंजूरी दी है, जिन्हें प्रति वर्ष 6,000 रुपये की वित्तीय सहायता मिलेगी। 
पिछली सरकार ने आयुष्मान भारत और किसानों को छह हजार रुपये सालाना देने के जो फैसले किए थे, वे राजनीतिक दृष्टि से उपयोगी हैं, पर नई वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के सामने राजकोषीय घाटे की चुनौती पेश करेंगे। सरकार के एजेंडा में सबसे महत्वपूर्ण चार-पाँच बातें इस प्रकार हैं-1. गाँवों और किसानों की बदहाली पर ध्यान, 2. बेरोजगारी को दूर करने के लिए बड़े उपाय, 3. आर्थिक सुधारों को गति प्रदान करना, 4. राम मंदिर और कश्मीर जैसे सवालों क स्थायी समाधान, 5. दुनिया के सामने नए स्वरूप में उपस्थित हो रहे शीत-युद्ध के बीच अपनी विदेश-नीति का निर्धारण। दूसरी तमाम बातें भी हैं, जिनका एक-दूसरे से रिश्ता है।
प्रधानमंत्री ने किर्गिस्तान की राजधानी बिश्केक में हुए एससीओ शिखर सम्मेलन में साफ संकेत दिया कि यह नया भारत है, हमें पुराने नजरिए से नहीं देखा जाए। एक लिहाज से सरकार का पहला नीति-वक्तव्य बिश्केक से आया है। पर नई सरकार के इरादों और योजनाओं की झलक नई मंत्रिपरिषद से मिली है। अर्थव्यवस्था की सुस्ती दूर करने और रोजगार बढ़ाने के इरादे से प्रधानमंत्री ने दो नई कैबिनेट समितियों का गठन किया है। इन दोनों समितियों के अध्यक्ष वे खुद हैं। ये समितियां रोजगार सृजन और निवेश बढ़ाने के उपाय बताएंगी। पहली समिति विकास दर और निवेश पर है और दूसरी, रोजगार-कौशल विकास पर।

Saturday, June 15, 2019

बंगाल में हिंसा माने राजनीति, राजनीति माने हिंसा!


पश्चिम बंगाल के चुनावों में हिंसा पहले भी होती रही है, पर इसबार चुनाव के बाद भी हिंसा जारी है। चुनाव परिणाम आने के बाद कम से कम 15 लोगों की मौत की पुष्ट खबरें हैं। ज्यादातर राजनीतिक मौतें हैं। इस हिंसा के कारणों का विश्लेषण करना सरल काम नहीं है, पर इस राज्य की पिछले सात-दशक के घटनाक्रम पर नजर डालें, तो यह स्पष्ट है कि इस राज्य में हिंसा का नाम राजनीति और राजनीति के मायने हिंसा हैं। सन 2011 में जब अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को जबर्दस्त जीत दिलाकर जब ममता बनर्जी सत्ता के घोड़े पर सवार हुईं थीं, तब उनका ध्येय-वाक्य था पोरीबोर्तन। आज उनके विरोधी इस ध्येय-वाक्य से लैस होकर उनके घर के दरवाजे पर खड़े हैं। बंगाल की हिंसा के पीछे एक बड़ा कारण है यहाँ के निवासियों की निराशा। सत्ताधारियों की विफलता।
देश में आधुनिक राजनीतिक-प्रशासनिक और शैक्षिक संस्थाओं का सबसे पहले जन्म बंगाल में हुआ। पर साठ और सत्तर के दशक में इसी बंगाल में नक्सलबाड़ी ने देश का ध्यान खींचा था। उसके केन्द्र में हिंसा थी। बंगाल की वर्तमान हिंसा की जड़ों में उस वामपंथी हिंसा की क्रिया-प्रतिक्रियाएं ही हैं।
ममता की हिंसा
ममता बनर्जी स्वयं हिंसा के इस पुष्पक विमान पर सवार होकर आईं थीं। उन्होंने सीपीएम की हिंसा पर काबू पाने में सफलता प्राप्त की थी। उसका आगाज़ सिंगुर के आंदोलन में हुआ था। सीपीएम ने राज्य की बुनियादी समस्याओं के समाधान की दिशा में राज्य के औद्योगीकरण का जो रास्ता खोजा था, ममता बनर्जी ने उसके छिद्रों के सहारे सत्ता के गलियारों में प्रवेश कर लिया था। आज उनके विरोधी उनके ही औजारों को हाथ में लिए खड़े हैं। सिंगुर में ही उनका राजनीतिक आधार कमजोर होता नजर आ रहा है। हाल में उन्होंने पार्टी की एक आंतरिक बैठक में कहा कि लोकसभा चुनाव में सिंगुर की हार शर्मनाक है। हमने सिंगुर को खो दिया। सिंगुर, हुगली लोकसभा सीट का हिस्सा है। वहाँ इसबार बीजेपी की लॉकेट चटर्जी ने जीत दर्ज की है।

Monday, June 10, 2019

संवेदना-शून्य समाज में एक बच्ची की हत्या


यह हत्या हमारे समाज के मुँह पर तमाचा है. आश्चर्य इस बात पर है कि अलीगढ़ ज़िले के टप्पल तहसील क्षेत्र में ढाई साल की बच्ची के अपहरण और बेहद क्रूर तरीके से की गई हत्या को लेकर जिस किस्म का रोष देश भर में होना चाहिए था, वह गायब है. कहाँ गईं हमारी संवेदनाएं? पिछले साल जम्मू-कश्मीर के कठुआ क्षेत्र में हुई इसी किस्म की एक हत्या के बाद देश भर में जैसी प्रतिक्रिया हुई थी, उसका दशमांश भी इसबार देखने में नहीं आया. बेशक वह घटना भी इतनी ही निन्दनीय थी. फर्क केवल इतना था कि उस मामले को उठाने वाले लोग इसके राजनीतिक पहलू को लेकर ज्यादा संवेदनशील थे. इस मामले में वह संवेदनशीलता अनुपस्थित है. यानी कि हमारी संवेदनाएं राजनीति से निर्धारित होती हैं.
अलीगढ़ पुलिस के मुताबिक, 'पोस्टमार्टम से लगता है कि बच्ची का रेप नहीं हुआ है. बच्ची के परिवार ने आरोप लगाया था कि उसकी आँख निकाली गई थी, पर ऐसा नहीं हुआ. लेकिन उसका शरीर बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हुआ है.' इसे लेकर मीडिया में कई तरह की बातें उछली हैं. खासतौर से सोशल मीडिया में अफवाहों की बाढ़ है. पर यह भी सच है कि सोशल मीडिया के कारण ही सरकार और प्रशासन ने इस तरफ ध्यान दिया है. पुलिस ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट का हवाला देते हुए सोशल मीडिया की अफवाहों को शांत किया है, पर अपराध के पीछे के कारणों पर रोशनी नहीं डाली जा सकी है.

Sunday, June 9, 2019

क्या राजनीति अब सौम्य होगी?


संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने शुक्रवार को कांग्रेस संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी से उनके घर जाकर मुलाकात की। इसे एक सामान्य और औपचारिक मुलाकात कह सकते हैं, पर यह उतनी सामान्य नहीं है, जितनी दूर से लगती है। इस मुलाकात का व्यावहारिक अर्थ कुछ समय बाद ही स्पष्ट होगा, पर इसे एक नई शुरुआत के रूप में देख सकते हैं। देश के इतिहास में सम्भवतः सबसे कड़वाहट भरे लोकसभा चुनाव के बाद जो सरकार बनी है, उसपर काफी जिम्मेदारियाँ हैं। सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कड़वाहट के माहौल को खत्म करके रचनात्मक माहौल की स्थापना। और दूसरी जिम्मेदारी है देश को विकास की नई राह पर ले जाने की।
सरकार ने शायद कुछ सोचकर ही सोनिया गांधी की तरफ हाथ बढ़ाया है। यों ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। नवम्बर, 2015 में संसद के शीत सत्र के पहले दो दिन संविधान दिवस के संदर्भ में विशेष चर्चा को समर्पित थे। उस चर्चा के फौरन बाद नरेन्द्र मोदी के साथ सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की मुलाकात हुई थी। उस रोज संसद में नरेन्द्र मोदी ने इस बात का संकेत दिया था कि वे आमराय बनाकर काम करना पसंद करेंगे। उन्होंने देश की बहुल संस्कृति को भी बार-बार याद किया। उस चर्चा के अंत में लोकसभा अध्यक्ष ने भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता का श्रेय डॉ भीमराव आम्बेडकर के अलावा महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना आजाद तथा अन्य महत्वपूर्ण राजनेताओं को दिया।
नरेन्द्र मोदी ने अपने वक्तव्य में खासतौर से जवाहर लाल नेहरू का नाम लिया। यह सच है कि सरकार को तब जीएसटी जैसे महत्वपूर्ण विधेयक को पास कराने के लिए कांग्रेस के समर्थन की जरूरत थी। यह बात नोटबंदी के एक साल पहले की है। उस साल कांग्रेस ने पहली बार मॉनसून सत्र में आक्रामक रुख अपनाया था और पूरा सत्र धुल गया था। यह कटुता उसके बाद बढ़ती गई। कांग्रेस की नई आक्रामक रणनीति कितनी कारगर हुई या नहीं, यह अलग से विश्लेषण का विषय है, हमें उन बातों के बरक्स नए हालात पर नजर डालनी चाहिए।

Sunday, June 2, 2019

अमित शाह, सफलता के द्वार पर


असाधारण क्षमताओं वाले व्यक्ति अपने लिए खुद रास्ते बनाते हैं और अक्सर ऐतिहासिक परिस्थितियाँ उनका इंतजार करती हैं। देश की नई सरकार के गठन के बाद जो बात सबसे ज्यादा ध्यान खींचती है, वह है अमित शाह का गृहमंत्री बनना। इसमें संदेह कभी नहीं था कि वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र के सबसे विश्वस्त सहयोगी हैं। और उनकी यह जोड़ी वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी के मुकाबले ज्यादा व्यावहारिक, प्रभावशाली और सफल है। यह अलग बात है कि वाजपेयी-आडवाणी इस पार्टी की बुनियाद पर हमेशा बने रहेंगे।  
नरेन्द्र मोदी से अमित शाह की मुलाकात 1986 में हुई थी, जो आज तक चली आ रही है। उस वक्त अमित शाह छात्र नेता थे। पर पिछले चार वर्षों से ज्यादा समय में पार्टी अध्यक्ष के रूप में उन्होंने जो भूमिका निभाई, वह असाधारण है। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है पार्टी को काडर-बेस के बजाय मास-बेस बनाना। पार्टी का दावा है कि उसके 11 करोड़ सदस्य हैं और वह दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है। यह उपलब्धि अध्यक्ष के रूप में अपने कार्यकाल के दूसरे वर्ष में ही उन्होंने प्राप्त कर ली थी।

Thursday, May 30, 2019

नई सरकार के सामने चुनौतियाँ कम, उम्मीदें ज्यादा

नरेन्द्र मोदी की नई सरकार के सामने कई मायनों में पिछले कार्यकाल के मुकाबले चुनौतियाँ कम हैं, पर उससे उम्मीदें कहीं ज्यादा हैं. राजनीतिक नजरिए से सरकार ने जो जीत हासिल की है, उसके कारण उसके विरोधी फिलहाल न केवल कमजोर पड़ेंगे, बल्कि उनमें बिखराव की प्रक्रिया शुरू होगी. कई राज्यों में विरोधी राजनीति, खासतौर से कांग्रेस पार्टी के भीतर असंतोष के स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं. दूसरी तरफ उसे जनता ने जो भारी समर्थन दिया है, उसके कारण उसपर जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ गया है.

अगले कुछ महीनों में महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और दिल्ली विधानसभाओं के चुनाव होने वाले हैं. इन सभी राज्यों में बीजेपी और गठबंधन एनडीए की स्थिति बेहतर है. जम्मू-कश्मीर में भी विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इन चुनावों का शेष देश की राजनीति के लिहाज से महत्व है. वहाँ घाटी और जम्मू क्षेत्र की राजनीति के अलग रंग हैं, जो राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करते हैं.

नई सरकार के राजनीतिक-आर्थिक कदमों का पता अगले हफ्ते के बाद लगेगा, जब मंत्रालयों की स्थिति स्पष्ट हो चुकी होगी, पर विदेश-नीति के मोर्चे को संकेत शपथ-ग्रहण के पहले से ही मिलने लगे हैं. मोदी सरकार की वापसी में सबसे बड़ी भूमिका राष्ट्रवाद की है. पुलवामा कांड ने नागरिकों के काफी बड़े वर्ग को नाराज कर दिया है. नई सरकार के शपथ-ग्रहण के साथ ही यह बात स्पष्ट हो रही है कि मोदी सरकार, पाकिस्तान के साथ रिश्तों को लेकर बेहद संजीदा है.

शपथ-ग्रहण समारोह में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को निमंत्रण न देकर भारत ने एक बात स्पष्ट कर दी है कि वह इसबार उसका रुख कठोर है. लगता है कि भारत का रुख अब आक्रामक रहेगा. सब सामान्य रहा, तो 13-14 जून को दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की मुलाकात किर्गिस्तान की राजधानी बिश्केक में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में होगी. उसके आगे की राह शायद वहाँ से तय होगी.

भारत की दिलचस्पी चीन के साथ बातचीत को आगे बढ़ाने की जरूर है. सरकार बनने के पहले ही खबरें हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ वाराणसी में वैसा हा एक अनौपचारिक शिखर सम्मेलन आयोजित करने का फैसला किया है, जैसा पिछले साल चीन के वुहान में हुआ था. अमेरिका और चीन के रिश्तों में तेजी से आते बदलाव के संदर्भ में इस मुलाकात का बड़ा महत्व है.

Wednesday, May 29, 2019

'रणछोड़दास' न बनें राहुल

कांग्रेस अपने नेतृत्व-संकट से बाहर निकल भी आए, तब भी संकट बना रहेगा। संकट नेतृत्व का नहीं पार्टी की साख का है। राहुल गांधी के इस्तीफे की चर्चा के कारण पार्टी कार्यकर्ता का ध्यान असली सवालों से हट जाएगा। राहुल ने फिलहाल पद पर बने रहना मंजूर कर लिया है, पर वे चाहते हैं कि उनके विकल्प की तलाश जारी रहे। उनका विकल्प क्या होगा? विकल्प तब खोजा जा सकता है, जब पार्टी में विकल्प खोजने की कोई संरचनात्मक व्यवस्था हो। अब उनका अध्यक्ष बने रहना ही सबसे बड़ा विकल्प है।
पार्टी को अब अपनी राजनीति को उसकी तार्किक परिणति तक पहुँचाना चाहिए। राहुल गांधी चाहते हैं कि पार्टी का नेतृत्व लोकतांत्रिक तरीके से तय हो, तो उन्हें लम्बा समय देकर पार्टी की आंतरिक संरचना को बदलना होगा। उसे वे ही बदल सकते हैं। व्यावहारिक सत्य यह है कि पार्टी की कार्यसमिति भी मनोनीत होती है। वे अच्छी तरह जानते हैं कि लोकतांत्रिक संरचना इतनी आसान नहीं है। पर यदि वे इसे बदलने में सफल हुए तो भारतीय राजनीति में उनका अपूर्व योगदान होगा। सच यह भी है कि उनके अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी का आत्मविश्वास बढ़ा है। चुनावी सफलताएं भी मिली हैं। इसलिए यह कहना गलत है कि वे पूरी तरह विफल हुए हैं।
संसद में किन सवालों को उठाया गया और बहस में किसने क्या कहाये बातें आज की राजनीति में अप्रासंगिक होती जा रहीं हैं। पर राहुल गांधी के बयानों से लगता है कि वे संजीदा राजनीति में दिलचस्पी रखते हैंइसलिए देखना होगा कि उनकी संजीदा राजनीति’ क्या शक्ल लेगी। सन 2017 के गुजरात विधानसभा के चुनाव के दौरान उन्होंने इस बात को कई बार कहा कि हम अनर्गल बातों के खिलाफ हैं। संयोग से उन्हीं दिनों मणिशंकर अय्यर वाला प्रसंग हुआ और राहुल ने उन्हें मुअत्तल कर दिया। यानी वे साफ-सुथरी राजनीति के पक्षधर है। इस बात को उन्हें अब स्थापित करना चाहिए।

Sunday, May 26, 2019

क्या यह इस्लामोफोबिया है?

लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत को लेकर वैश्विक मीडिया में कहा जा रहा है कि यह ‘हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी’ की जीत है। खासतौर से मुस्लिम देशों के मीडिया में चिंताएं भी व्यक्त की गई हैं। इतना ही नहीं मोदी की इस जीत को पश्चिमी देशों में प्रचलित ‘इस्लामोफोबिया’ यानी मुसलमानों से नफरत की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जा रहा है। भारत के विश्लेषक नहीं समझ पा रहे हैं कि इसे साम्प्रदायिकता कहा जाए, राष्ट्रवाद, देश-भक्ति या वहाबी इस्लाम के विरोध में हिंदू-प्रतिक्रिया या कुछ और? यह पुलवामा और बालाकोट के कारण है या कश्मीर में चल रहे घटनाक्रम पर देश के नागरिकों की लोकतांत्रिक टिप्पणी है?

क्या हम इन सवालों से मुँह मोड़ सकते हैं? वोटरों ने इन्हें महत्वपूर्ण माना है। उसे साम्प्रदायिकता का नाम देने से बात खत्म नहीं होगी। मान लिया कि बीजेपी की कोशिश वोटरों को भरमा कर वोट लेने तक सीमित है, पर भरमाया किसी उस बात पर ही जा सकता है, जिसके पीछे कोई आधार हो। वोटर को जरूर कुछ बातें परेशान करती हैं, तभी वह इतना खुलकर सामने आया है। सच है कि दुनियाभर में चरम राष्ट्रवाद की हवाएं बहने लगी है। पर क्यों? यह क्रिया की प्रतिक्रिया भी है। दुनिया को समझदार बनाने की कोशिशें करनी होंगी। आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, पर दुनिया में धर्म के नाम पर जितनी खूँरेजी हुई है, वह सामान्य नहीं है।

समझदारी के उदाहरण भी हमारे सामने हैं। गत 15 मार्च को न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर की दो मस्जिदों में हुए हत्याकांड ने दो तरह के संदेश एकसाथ दुनिया को दिए। इस घटना ने गोरे आतंकवाद के नए खतरे की ओर दुनिया का ध्यान खींचा था, वहीं न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न ने जिस तरह से अपने देश की मुस्लिम आबादी को भरोसा दिलाया, उसकी दुनियाभर में तारीफ हुई। यकीनन मुम्बई हमले के बाद पाकिस्तान सरकार ने लश्करे तैयबा के खिलाफ कार्रवाई की होती, तो भारत के लोगों के मन में इतनी कुंठा नहीं होती।

बीजेपी के फुटप्रिंट का विस्तार हुआ


सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणामों को देश के नक्शे में देखें तो पाएंगे कि अब देश के हरेक इलाके में बीजेपी की उपस्थिति है। दक्षिण के आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल ऐसे राज्य हैं ,जहाँ से बीजेपी का कोई प्रत्याशी नहीं जीता, पर कर्नाटक की 28 में से 25 सीटें जीतकर पार्टी ने उसकी भरपाई कर दी है। बीजेपी का फुटप्रिंट पूरे देश के नक्शे पर हैं। केवल उपस्थिति की बात ही नहीं है, वोट प्रतिशत भी पार्टी के विस्तार की कहानी कह रहा है। भारतीय जनता पार्टी का वोट प्रतिशत 31 से बढ़कर 37.5 हो गया है। वहीं एनडीए का वोट प्रतिशत 38.70 से बढ़कर 45.51 प्रतिशत हो गया है। इसके मुकाबले यूपीए का वोट प्रतिशत 27.09 प्रतिशत है। यदि एनडीए और यूपीए दो बड़े राष्ट्रीय मोर्चों के रूप में उभरें, तो सम्भव है कि क्षेत्रीय क्षत्रपों की भूमिका कम हो।
चुनाव परिणाम आने के पहले कहा जा रहा था कि इसबार सरकार के गठन में क्षेत्रीय क्षत्रप महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। फिलहाल ऐसा नहीं होने वाला। चूंकि क्षेत्रीय दलों की ताकत घटी है, इसलिए एक अनुमान लगाया जा सकता है कि भविष्य में देश में द्विदलीय राजनीति का उभार हो सकता है। सीट की संख्याओं को देखते हुए यह बात सही नहीं लगती। फिलहाल जो परिस्थिति है वह एकदलीय कांग्रेसी व्यवस्था की याद दिला रही है, जो 1967 के पूर्व देश में थी। क्षेत्रीय मुद्दे इसबार ज्यादा प्रभावी नहीं थे। तमिलनाडु में डीएमके का उभार दो कारणों से हुआ। एक तो जयललिता के निधन के बाद से अद्रमुक अनाथ पार्टी है, दूसरे तमिलनाडु में बैटिंग रोटेट करने का चलन भी है। इसबार बारी डीएमके की थी। 
बारह राज्यों में बीजेपी को 50 फीसदी या उससे ज्यादा वोट मिले हैं। इनमें महाराष्ट्र और बिहार को तेरहवें और चौदहवें राज्य के रूप में जोड़ा जा सकता है जहाँ एनडीए के गठबंधन को 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले हैं। गुजरात (62.2), हिमाचल प्रदेश (69.1) और उत्तराखंड (61) में 60 फीसदी से भी ज्यादा। हरियाणा (58), मध्य प्रदेश (58) और राजस्थान (58.5) और दिल्ली (56.6) में 60 से कुछ कम। ये परिणाम सन 2015 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत की याद दिला रहे हैं। 
बीजेपी की सीटें तो बढ़ी ही हैं, सामाजिक आधार भी बढ़ा है। इसमें बड़ी भूमिका बंगाल और ओडिशा के वोटर की भी है। बंगाल में बीजेपी ने पिछली बार के 17 फीसदी के वोटों को बढ़ाकर करीब 40.3 फीसदी कर लिया है। यह तृणमूल के 43.3 फीसदी के एकदम करीब है। वहीं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वोटों में 20 फीसदी की गिरावट आई है। तृणमूल कांग्रेस के वोट बढ़े हैं, पर सीटें घटी हैं। इसकी वजह है वाममोर्चे और कांग्रेस का पराभव। बंगाल में मुकाबले सीधे हो गए हैं। यह बात वहाँ की भावी राजनीति में महत्वपूर्ण होगी। राष्ट्रीय स्तर पर वाममोर्चा को सीटों और वोट प्रतिशत के लिहाज से सबसे बड़ा धक्का लगा है। वाम मोर्चे के वोट पिछले चुनाव में 4.55 फीसदी थे, जिनमें इसबार सीधे-सीधे दो फीसदी की गिरावट आई है। इसबार उसे केवल 2.55 फीसदी वोट ही मिले हैं। यूपीए का वोट प्रतिशत जो पिछले चुनाव में 26.3 फीसदी था, इसबार बढ़कर 27.09 हो गया है। डीएमके और टीआरएस जैसे दलों की बात छोड़ दें, तो क्षेत्रीय दलों के वोट में कमी आई है।

Saturday, May 25, 2019

राजनीतिक भँवर में फँसी कांग्रेस


चुनाव परिणाम आने के बाद इतिहास लेखक राम गुहा ने ट्वीट किया कि हैरत की बात है कि राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा नहीं दिया है। पार्टी को अब नया नेता चुनना चाहिए। परिणाम आने के पहले योगेन्द्र यादव ने कहीं कहा कि कांग्रेस को मर जाना चाहिए। इस चुनाव में यदि कांग्रेस आइडिया ऑफ इंडिया को बचाने के लिए बीजेपी को रोकने में असफल रहती है, तो मान लेना चाहिए कि इस पार्टी का इतिहास में कोई सकारात्मक रोल नहीं रहा है। आज कांग्रेस वैकल्पिक राजनीति को बनाने में एक मात्र सबसे बड़ी बाधा है।
इस किस्म के ट्वीटों और बयानों का क्रम शुरू हो गया है। पर ये बातें व्यावहारिक राजनीति से बाहर बैठे लोगों की हैं। वे कांग्रेस के यथार्थ से परिचित नहीं हैं। बहरहाल यह विचार करने की बात जरूर है कि पाँच साल की मेहनत और बहु-प्रतीक्षित नेतृत्व परिवर्तन के बाद भी पार्टी देशभर में केवल 52 सीटें हासिल कर पाई। इस विफलता या इसके विपरीत बीजेपी की सफलता पर गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है।
मेहनत बेकार
कांग्रेस को इसबार सन 2014 के लोकसभा परिणामों की तुलना में केवल आठ सीटें ज्यादा मिली हैं। ये आठ सीटें केरल और तमिलनाडु में हासिल 15 अतिरिक्त सीटों के बावजूद हैं। कहा जा सकता है कि दक्षिण के इन दो राज्यों में उसने अपनी पैठ बनाई है, पर एक सच यह भी है कि कर्नाटक में उसने आठ सीटें गँवा दी हैं, इसलिए दक्षिण में उसकी प्राप्ति कुल जमा सात सीटों की है। अंडमान निकोबार, लक्षद्वीप और पुदुच्चेरी में एक-एक सीट और हासिल की है, यानी कि पार्टी को उत्तर भारत में पहले के मुकाबले नुकसान ही हुआ है। देश के 19 राज्यों और केन्द्र शासित क्षेत्रों से उसका प्रतिनिधित्व ही नहीं है।

उम्मीदों और अंदेशों से ज्यादा बड़ा फैसला

पिछले पांच साल में मोदी की छवि ऐसे नेता की बनी है, जो बदलाव लाना चाहता है, फैसले करता है, उन्हें लागू करता है और बहुत सक्रिय है.

निश्चित रूप से यह अविश्वसनीय परिणाम है. इस परिणाम का असर हमारे सामाजिक जीवन पर भी पड़ेगा. पर 
इसके पीछे भारतीय राजनीति में लगातार आ रहे बदलाव की दशा-दिशा भी नज़र आ रही है. अब परीक्षा 
बीजेपी की समझदारी की है, साथ ही देश की प्रशासनिक-न्यायिक संस्थाओं की भी. साल 2014 के चुनाव 
और इस बार के चुनाव की वरीयताएं और मुद्दे एकदम अलग रहे हैं, भले ही परिणाम एक जैसे हैं. बीजेपी की 
सीटें बढ़ी हैं और उसका प्रभाव क्षेत्र बढ़ा है. बंगाल और ओडिशा में उसका प्रवेश जोरदार तरीके से हो गया है. पर 
दक्षिण भारत में दो तरह की तस्वीरें देखने में आयी हैं. तमिलनाडु, केरल और आंध्र ने उसे स्वीकार नहीं किया, और
कर्नाटक में उसने अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन किया है. केरल में सबरीमाला प्रकरण के बावजूद उसे खास 
सफलता नहीं मिली.
दस से ज़्यादा राज्यों में बीजेपी को 50 फीसदी या उससे ज़्यादा वोट मिले हैं. इसमें महाराष्ट्र को जोड़ा जा सकता है, 
जहां बीजेपी और शिवसेना के गठबंधन को 50 फीसदी से ज़्यादा वोट मिले हैं. गुजरात, हिमाचल प्रदेश और 
उत्तराखंड में 60 फीसदी से भी ज़्यादा. हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान में 60 से कुछ कम. ये परिणाम 
साल 2015 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत की याद दिला रहे हैं.

Friday, May 24, 2019

बीजेपी के ज़मीनी आधार का विस्तार


इन चुनाव-परिणामों में दो बातें साफ नजर आती हैं. भारतीय जनता पार्टी अपने नजरिए को जनता के सामने न केवल रखने में, बल्कि उसका अनुमोदन पाने में सफल हुई है. दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी इसका काउंटर-नैरेटिव तैयार करने में बुरी तरह विफल हुई है. कांग्रेस जिसे हिन्दू-राष्ट्रवाद और भावनाओं की खेती बता रही थी, उसे जनता ने महत्वपूर्ण माना. वह कांग्रेस की बातें सुनने के लिए वह तैयार ही नहीं है. यह कांग्रेसी साख की पराजय है. कांग्रेस ने गरीबों और किसानों की बातें कीं, पर गरीबों और किसानों ने भी उसकी नहीं सुनी. यह बात सीटों से ही नहीं वोट प्रतिशत से भी जाहिर है.
हालांकि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अंतिम वोट प्रतिशत की जानकारी नहीं हो पाई थी, क्योंकि पूरे देश के परिणाम नहीं आए हैं, पर इतना तय है कि बीजेपी को पिछली बार के 31 फीसदी से ज्यादा वोट मिले हैं. यह प्रतिशत 40 फीसदी के आसपास तक पहुँच सकता है. बीजेपी की सीटें तो बढ़ी ही हैं, सामाजिक आधार भी बढ़ा है. इसमें बड़ी भूमिका बंगाल और ओडिशा के वोटर की भी है. बंगाल में बीजेपी ने पिछली बार के 17 फीसदी के वोटों को बढ़ाकर करीब 35 फीसदी कर लिया है. वहीं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वोटों में 20 फीसदी की गिरावट आई है. तृणमूल कांग्रेस के भी वोट बढ़े हैं, पर सीटें घटी हैं. इसकी वजह है वाममोर्चे और कांग्रेस का पराभव. उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने सपा-बसपा की सोशल इंजीनियरी को धो दिया है. विरोधी दलों की उम्मीदें उत्तर प्रदेश पर टिकी थीं, पर इस प्रदेश में करीब 50 फीसदी के आसपास वोट बीजेपी को मिले हैं. क्या यह हैरत की बात नहीं है?

Tuesday, May 21, 2019

एक्ज़िट पोल में छिपी कुछ पहेलियाँ

ममता बनर्जी और चंद्रबाबू जैसे नेताओं ने एक्ज़िट पोल को सरासर गप्प बताया है, वहीं कांग्रेस पार्टी ने कहा है कि 23 का इंतजार करें। वे जल्दी हार मानने को तैयार नहीं हैं। उन्हें लगता है कि 23 को उलट-फेर होंगे। हालांकि एक्ज़िट पोल काफी हद तक चुनाव परिणामों की तरफ इशारा करते हैं, फिर भी उनकी विश्वसनीयता पर सवालिया निशान हैं। सन 2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में उनकी काफी फज़ीहत हुई थी और अभी हाल में ऑस्ट्रेलिया के चुनावों में वे हँसी के पात्र बने। सन 205 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के एक्ज़िट पोल इस लिहाज से तो सही थे कि उन्होंने आम आदमी पार्टी की जीत का एलान किया था, पर ऐसी जीत से वे भी बेखबर थे।

दूसरी तरफ यह भी सही है कि अब पोल-संचालक ज्यादा सतर्क हैं। उनके पास अब बेहतर तकनीक और अनुभव है। वे आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस का सहारा ले रहे हैं। विश्लेषण करते वक्त वे राजनीति-शास्त्रियों, मानव-विज्ञानियों और दूसरे विशेषज्ञों की राय को भी शामिल करते हैं। उनसे चूक कहाँ हो सकती है, इसकी समझ भी उन्होंने विकसित की है। विश्लेषकों को लगता है कि इसबार के पोल सच के ज्यादा करीब होंगे। बावजूद इसके इन पोल पर गहरी निगाह डालें, तो कुछ पहेलियाँ अनसुलझी नजर आती हैं।

यों सभी पोल इसपर एकमत हैं कि एनडीए सबसे बड़े समूह के रूप में उभर रहा है। फिर भी सीटों की संख्या के उनके अनुमान 240 और 340 के बीच हैं। इतना बड़ा फासला नई पहेली को जन्म देता है। बिग पिक्चर एक जैसी है, पर विस्मय फैलाने वाला डेविल डिटेल में है। टोटल में एक जैसे हैं, फिर भी अलग-अलग राज्यों के अनुमानों में भारी फर्क है। बीजेपी की सफलता या विफलता के लिए जिम्मेदार तीन राज्यों को महत्वपूर्ण माना जा रहा है, उनकी संख्याओं पर गौर करें, तो संदेह पैदा होते हैं। पार्टी के भीतर के लोग भी मान रहे हैं कि यूपी में महागठबंधन का अंकगणित बीजेपी पर भारी पड़ सकता है। पर वे मानते हैं कि इसकी भरपाई बंगाल, ओडिशा और पूर्वोत्तर के राज्य करेंगे।

Monday, May 20, 2019

परिणाम आने से पहले की पहेलियाँ

चुनाव का आखिरी दौर पूरा होने और चुनाव परिणाम आने के बीच कुछ समय है. इस दौरान एक्ज़िट पोल की शक्ल में पहले अनुमान सामने आए हैं, पर कांग्रेस, ममता बनर्जी और चंद्रबाबू नायडू जैसे नेताओं ने इसे गप्पबाजी बताया है. बहरहाल हमें 23 का इंतजार करना होगा. इस दौरान तीन मुख्य सवाल विश्लेषकों से लेकर सामान्य व्यक्ति के मन में अभी हैं. पहला सवाल है कि परिणाम क्या होंगे? सरकार किसकी बनेगी? यह सवाल पहले सवाल का ही पुछल्ला है. इसके बाद का सवाल है कि आने वाली सरकार की चुनौतियाँ और वरीयताएं क्या होंगी? खबर है कि लम्बे अरसे से खाद्य सामग्री की कीमतों में जो ठहराव था, वह खत्म होने वाला है. खुदरा मुद्रास्फीति बढ़ने वाली है. मॉनसून फीका होने का अंदेशा है. राजकोषीय घाटा अनुमान से ऊपर जा चुका है. पर ये बातें बाद की हैं. असल सवाल है कि वोटर किसके हाथ सत्ता सौंपने वाला है?

चुनाव परिणामों को लेकर जो मगज़मारी इस वक्त चल रही है उसमें कई तरह की दृश्यावलियों की चर्चा है. मोटे तौर पर तीन मुख्य परिदृश्य बन रहे हैं. पहला यह कि बीजेपी और उसके गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिल जाएगा. साफ बहुमत मिलने का मतलब है कि कम से कम अगले पाँच साल के लिए कई तरह के सिरदर्द खत्म होंगे. अलबत्ता कुछ नए सिरदर्द फौरन ही शुरू भी हो जाएंगे. काफी लोगों को यकीन है कि ऐसे या वैसे सरकार मोदी की बन जाएगी.

Sunday, May 19, 2019

बंगाल की हिंसा और ममता का मिज़ाज

कोलकाता में बीजेपी रैली के दौरान हुए उत्पात और ईश्वर चंद्र विद्यासागर कॉलेज में हुई हिंसा के लिए कौन जिम्मेदार है और प्रतिमा किसने तोड़ी, ऐसे सवालों पर बहस किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचने वाली है। इस प्रकरण से दो बातें स्पष्ट हुई हैं कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस का काफी कुछ दाँव पर लगा है। दूसरे यह कि पिछले कुछ वर्षों से राज्य में चल रही तृणमूल की बाहुबली राजनीति का जवाब बीजेपी ही दे सकती है। यों मोदी विरोधी मानते हैं कि बीजेपी को रोकने की सामर्थ्य ममता बनर्जी में ही है। किसमें कितनी सामर्थ्य है, इसका पता 23 मई को लगेगा। पर ममता को भी अपने व्यक्तित्व को लेकर आत्ममंथन करना चाहिए।

ममता बनर्जी पिछले दो वर्षों से राष्ट्रीय क्षितिज पर आगे आने का प्रयत्न कर रही हैं। सन 2016 में उन्होंने ही सबसे पहले नोटबंदी के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया था। कांग्रेस ने उनका अनुगमन ही किया। राष्ट्रीय परिघटनाओं पर सबसे पहले उनकी प्रतिक्रिया आती है। दिल्ली की रैलियों में वे शामिल होती हैं, पर सावधानी के साथ। व्यक्तिगत रूप से वे उन आंदोलनों में शामिल होती है, जिनका नेतृत्व उनके पास होता है। कांग्रेसी नेतृत्व वाले आंदोलनों में खुद जाने के बजाय अपने किसी सहयोगी को भेजती हैं।

Saturday, May 18, 2019

झपट्टा मारने को बेचैन कांग्रेस


एक साल पहले इन्हीं दिनों कर्नाटक में सरकार बनाने की गहमागहमी चल रही थी। इस वक्त लगभग वैसी ही गहमागहमी है। खासतौर से निगाहें कांग्रेस पार्टी पर हैं। पिछले साल कर्नाटक विधानसभा के परिणाम आने पर जैसे ही स्पष्ट हुआ कि किसी को पूर्ण बहुमत मिलने वाला नहीं है, कांग्रेस ने जनता दल (एस) को बगैर शर्त समर्थन देने की घोषणा कर दी। यकीनन इसबार भी बीजेपी और खासतौर से नरेन्द्र मोदी को सत्ता से हटाने के लिए कांग्रेस हर तरह के त्याग कर देगी, बशर्ते वह इस स्थिति में हो। कर्नाटक में मतदान के बाद रात में एक्ज़िट पोल के निष्कर्षों से समझ में आ गया था कि किसी को स्पष्ट बहुमत मिलने वाला नहीं है। इसबार भी 19 की रात इस बात के संकेत मिलेंगे कि क्या होने वाला है।

कांग्रेस पार्टी अपने अस्तित्व के सबसे महत्वपूर्ण मोड़ पर है। फिलहाल उसे तीन बातों को स्पष्ट करना है:-

1.उसकी फौरी रणनीति क्या है? मसलन दिल्ली में एनडीए सरकार के स्थान पर महागठबंधन की सरकार बन भी जाए, तब क्या होगा? कांग्रेस इस एकता के केन्द्र में होगी या परिधि में? वह इन्हें चलाएगी या वे इसे चलाएंगे? लोकसभा और राज्यसभा में समीकरण किस प्रकार के होंगे? क्या ऐसी सरकार लम्बे समय तक चलेगी? नहीं चली तो पार्टी को उसका नफा-नुकसान किस प्रकार का होगा?

2.उसकी दीर्घकालीन रणनीति क्या है? क्या वह उत्तर भारत के राज्यों में फिर से महत्वपूर्ण ताकत बनकर वापस आना चाहती है? पिछले तीन दशक में वह लगातार कमजोर हुई है। यह बात उसके वोट प्रतिशत से जाहिर है। सवाल केवल वोट प्रतिशत का नहीं, लोकसभा और विधानसभाओं में सीटों का है।

3.कांग्रेस की दीर्घकालीन राजनीतिक दृष्टि क्या है? क्या वह 1991 के आर्थिक उदारीकरण के रास्ते से हट चुकी है? यदि ऐसा है तो उसका नया रास्ता क्या है? उसके संगठन की दशा कैसी है? पार्टी जल्दबाजी में फैसले करेगी या अच्छी तरह सोच-विचार की संरचना का विकास करेगी?

Wednesday, May 15, 2019

लोकतंत्र को फ़ेकन्यूज़ की ललकार!

क्या झूठे का बोलबाला होगा?

पुलवामा कांड के करीब दो हफ्ते बाद एक फेसबुक यूज़र ने एक फोन कॉल की रिकॉर्डिंग पोस्ट की, जिसमें देश के गृहमंत्री, बीजेपी के अध्यक्ष और एक महिला की आवाजों का इस्तेमाल किया गया था। उद्देश्य यह साबित करना था कि पुलवामा पर हुआ हमला जान-बूझकर रची गई साजिश थी। इसका उद्देश्य लोकसभा चुनाव में वोट हासिल करने के लिए जनता को गुमराह करना था। इसमें एक जगह बीजेपी अध्यक्ष के स्वर में कहा गया, ‘देश की जनता को गुमराह किया जा सकता है। और हम मानते भी हैं चुनाव के लिए युद्ध कराने की जरूरत है।’ भारत में फेसबुक के फैक्ट-चेकर सहयोगी ‘बूम’ ने 24 घंटे के भीतर पड़ताल से पता लगा लिया कि यह ऑडियो पूरी तरह फर्जी है। पुराने साक्षात्कारों से ली गई आवाजों को जोड़कर और उनमें से कुछ को हटाकर या दबाकर इसे तैयार किया गया था।

यह एक बड़ा अपराध है। लोगों को धोखा देने की कोशिश। पता नहीं इस सिलसिले में जाँच किस जगह पहुँची है, पर सहज रूप से सवाल मन में आता है कि किसने यह ऑडियो तैयार किया और क्यों? इसे बनाने वालों के तकनीकी ज्ञान का पता नहीं, पर मीडिया तकनीक में आ रहे बदलाव को देखते हुए सम्भव है कि कुछ दिनों में ऐसे वीडियो-ऑडियो बने, जिनकी गलतियों को ढूँढना बेहद मुश्किल हो। या जबतक गलती का पता लगे, तबतक कुछ से कुछ हो चुका हो। इस ऑडियो को भी जबतक डिलीट किया गया, 25 लाख लोग इसे सुन चुके थे और इसके डेढ़ लाख शेयर हो चुके थे। ट्विटर, यूट्यूब और न जाने कहा-कहाँ इसे कॉपी करके लगाया जा चुका है और न जाने कितने लोगों के निजी संग्रह में यह अब भी मौजूद हो और गलतफहमी फैलाने का काम कर रहा हो।

Sunday, May 12, 2019

यह क्या बोल गए पित्रोदा जी!


धनुष से निकला तीर और मुँह से निकले शब्द वापस नहीं लौटते, और आज के मीडिया-परिदृश्य में वे लगातार गूँजते रहते हैं। इसलिए राजनेताओं को अपनी बातें कहने के पहले ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए कि वे क्या कह रहे हैं। सैम पित्रोदा ने अपने हुआ तो हुआ बयान के लिए फौरन माफी माँग ली, राहुल गांधी ने भी इसे अनुचित बताया। पर इससे आग बुझेगी नहीं। देखते ही देखते नाराज सिखों की टोलियाँ सड़कों पर उतर आईं। पित्रोदा ने अपने हिन्दी भाषा ज्ञान को भी दिया है। ऐसा ही दोष दिसम्बर 2017 में मणिशंकर अय्यर ने नरेन्द्र मोदी को नरेन्द्र मोदी को नीच बताने वाले बयान के सिलसिले में बताया था। यह सफाई बाद में सोची गई है। 
वास्तव में राजनेता अपने बयानों के अर्थ तभी समझते हैं, जब उन्हें नुकसान होता है। उनमें समझदारी होती, तो माहौल इतना कड़वा नहीं होता, जितना हो गया है। वस्तुतः यह शीशे का महल है, इसमें एक चीज के सैकड़ों, हजारों और लाखों प्रतिविम्ब बनते हैं और बनते चले जाते हैं। पित्रोदा के इस बयान के साथ ही इस बात पर चर्चा चल रही है कि 1984 में हिंसा के निर्देश पीएम हाउस से जारी हुए थे। पित्रोदा ने वरिष्ठ वकील एचएस फुल्का के इस आशय के बयान को गलत बताया था। सिख समुदाय के बीच फुल्का की बहुत इज्जत है। इस चर्चा के साथ पित्रोदा का हुआ तो हुआ और मोदी का आईएनएस विराट को लेकर दिया गया बयान भी आ गया। इन सब बातों ने आग में घी का काम किया है।
मार्च के महीने में पित्रोदा ने बालाकोट स्ट्राइक को लेकर कुछ सवाल उठाए थे। इस वजह से उनके खिलाफ पहले से माहौल खराब था। बहरहाल उनके इस बयान से जो नुकसान होना था, वह हो चुका है। इसकी संवेदनशीलता से पार्टी भलीभाँति परिचित है, इसलिए उसने और पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने खुद को इससे फौरन अलग किया।1984 की हिंसा अब भी बड़ी संख्या में लोगों की दुखती रग है, जो चुनाव के वक्त कांग्रेस का दुःस्वप्न बनकर खड़ी हो जाती है। पार्टी अब सफाई देती रहेगी, और लोगों के मन का दबा गुस्सा फिर से भड़केगा।
यह बयान एक तरह से आ बैल, मुझे मारकी तरह है। वे कहना चाहते थे कि मोदी के पाँच साल के कार्यकाल पर बातें होनी चाहिए, पर उनकी पार्टी की चुनाव-रणनीति खुद भ्रमों की शिकार है। पिछले पाँच साल से कहा जा रहा है कि पार्टी को अपना नैरेटिव तैयार करना चाहिए। केवल मोदी को निशाना बनाने से काम नहीं होगा। यह नकारात्मक राजनीति है। राजनीतिक सकारात्मकता के लिए दीर्घकालीन रणनीति की जरूरत है।

Friday, May 10, 2019

इंसाफ के मंदिर की पवित्रता का सवाल


उच्चतम स्तर पर देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं को लेकर पिछले कुछ वर्षों में जो सवाल खड़े हो रहे हैं, उनके जवाब देने की घड़ी आ गई है. ये सवाल परेशान करने वाले जरूर हैं, पर शायद इनके बीच से ही हल निकलेंगे. इन सवालों पर राष्ट्रीय विमर्श और आमराय की जरूरत भी है. हाल के वर्षों में न्यायपालिका से जुड़ी जो घटनाएं हुईं हैं, वे विचलित करने वाली हैं. लम्बे अरसे से देश की न्याय-व्यवस्था को लेकर सवाल हैं. आरोप है कि कुछ परिवारों का इस सिस्टम पर एकाधिकार है. जजों और वकीलों की आपसी रिश्तेदारी है. सारी व्यवस्था उनके बीच और उनके कहने पर ही डोलती है.
पिछले साल जनवरी में सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने एक संवाददाता सम्मेलन में न्यायपालिका के भीतर के सवालों को उठाया था. यह एक अभूतपूर्व घटना थी. देश की न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग भी पिछले साल लाया गया. जज लोया की हत्या को लेकर गम्भीर सवाल खड़े हुए और अब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगे हैं. सवाल दो हैं. क्या यह सब अनायास हो रहा है या किसी के इशारे से यह सब हो रहा है? खासतौर से यौन उत्पीड़न का मामला उठने के बाद ऐसे सवाल ज्यादा मौजूं हो गए हैं. अब चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने खुद इस सवाल को उठाया है. इस मामले ने व्यवस्था की पारदर्शिता को लेकर जो सवाल उठाए हैं उनके जवाब मिलने चाहिए.

Thursday, May 9, 2019

कैसे रुकेगा,‘तू चोर, तू चोर!’


राजनीतिक बयानबाज़ी मर्यादा रेखाओं को पार कर रही है। राफेल विमान के सौदे से जुड़े एक आदेश के संदर्भ में राहुल गांधी को अपने बयान ‘चौकीदार चोर है’ पर सुप्रीम कोर्ट से बिना किसी शर्त के माफी माँगनी पड़ी है। इस आशय का हलफनामा दाखिल करते हुए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से प्रार्थना की है कि अब अवमानना के इस मामले को बंद कर देना चाहिए। अदालत राफेल मामले पर अपने 14 दिसम्बर, 2019 के आदेश पर पुनर्विचार की अर्जी पर भी विचार कर रही है। अब 10 मई को पता लगेगा कि अदालत का रुख क्या है। अपने माफीनामे में राहुल ने कहा है कि अदालत का अपमान करने की उनकी कोई मंशा नहीं थी। भूल से यह गलती हो गई।

इस चुनाव में कांग्रेस ने ‘चौकीदार चोर है’ को अपना प्रमुख राजनीतिक नारा बनाया है। यह नारा राफेल सौदे से जोड़कर कांग्रेस ने दिया है। अब बीजेपी ने इसपर पलटवार करते हुए ‘खानदान चोर है’ का नारा दिया है। चुनाव के अब केवल दो दौर शेष हैं। इधर झारखंड की एक रैली में मोदी ने राहुल गांधी को संबोधित करते हुए कहा, 'आपके पिताजी को आपके राज-दरबारियों ने मिस्टर क्लीन बना दिया था, लेकिन देखते ही देखते भ्रष्टाचारी नंबर वन के रूप में उनका जीवन-काल समाप्त हो गया।' कांग्रेस के नारे 'चौकीदार चोर है' के जवाब में यह सीधी चोट है।

सुप्रीम कोर्ट में राहुल गांधी की माफी का मतलब यह नहीं है कि कांग्रेस पार्टी 'चौकीदार चोर है' के नारे से हट गई है। राहुल के वकील अभिषेक सिंघवी का कहना है कि यह पार्टी का राजनीतिक नारा है। और पार्टी उसपर कायम है। यह बात उन्होंने हलफनामे में भी कही है। पर अब बीजेपी ने जब राजीव गांधी को भी घेरे में ले लिया है, तब सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या दिवंगत व्यक्ति को लेकर इस प्रकार की राजनीति उचित है? बीजेपी का कहना है कि हम केवल वास्तविक स्थिति को बयान कर रहे हैं, इसमें गलत क्या है?

Monday, May 6, 2019

मिट्टी के लड्डू और पत्थर के रसगुल्ले यानी मोदी और उनके विरोधियों के रिश्ते


पिछले पाँच साल में ही नहीं, सन 2002 के बाद की उनकी सक्रिय राजनीति के 17 वर्षों में नरेन्द्र मोदी और उनके प्रतिस्पर्धियों के रिश्ते हमेशा कटुतापूर्ण रहे हैं। राजनीति में रिश्तों के दो धरातल होते हैं। एक प्रकट राजनीति में और दूसरा आपसी कार्य-व्यवहार में। प्रकट राजनीति में तो उनके रिश्तों की कड़वाहट जग-जाहिर है। यह बात ज्यादातर राजनेताओं पर, खासतौर से ताकतवर नेताओं पर लागू होती है। नेहरू, इंदिरा, राजीव, नरसिंह राव, अटल बिहारी और मनमोहन सिंह सबसे नाराज लोग भी थे। फिर भी उस दौर का कार्य-व्यवहार इतना कड़वा नहीं था। मोदी और उनके प्रतिस्पर्धियों के असामान्य रूप से कड़वे हैं। मोदी भी अपने प्रतिस्पर्धियों को किसी भी हद तक जाकर परास्त करने में यकीन करते हैं। यह भी सच है कि सन 2007 के बाद उनपर जिस स्तर के राजनीतिक हमले हुए हैं, वैसे शायद ही किसी दूसरे राजनेता पर हुए होंगे। शायद इन हमलों ने उन्हें इतना कड़वा बना दिया है।  
विवेचन का विषय हो सकता है कि मोदी का व्यक्तित्व ऐसा क्यों है?   और उनके विरोधी उनसे इस हद तक नाराज क्यों हैं? उनकी वैचारिक कट्टरता का क्या इसमें हाथ है या अस्तित्व-रक्षा की मजबूरी? यह बात उनके अपने दल के भीतर बैठे प्रतिस्पर्धियों पर भी लागू होती है। राजनेताओं के अपने ही दल में प्रतिस्पर्धी होते हैं, पर जिस स्तर पर मोदी ने अपने दुश्मन बनाए हैं, वह भी बेमिसाल है।

Sunday, May 5, 2019

इस हिंसक 'माओवाद' का जवाब है लोकतंत्र

गढ़चिरौली में महाराष्ट्र पुलिस के सी-60 कमांडो दस्ते की क्विक रेस्पांस टीम (क्यूआरटी) के 16 सदस्यों की 1 मई को हुई मौत के बाद दो तरह के सवाल मन में आते हैं। पहला रणनीतिक चूक के बाबत है। हम बार-बार एक तरह की गलती क्यों कर रहे हैं? दूसरा सवाल हिंसक माओवादी राजनीति को लेकर है। आतंकियों ने पहले सड़क निर्माण में लगे ठेकेदार के तीन दर्जन वाहनों में आग लगाई। इसकी सूचना मिलने पर क्यूआरटी दस्ता एक प्राइवेट बस से घटनास्थल की ओर रवाना हुआ, तो रास्ते में आईईडी लगाकर बस को उड़ा दिया। इस तरह से उन्होंने कमांडो दस्ते को अपने जाल में फँसाया।

मीडिया रिपोर्टों के अनुसार पिछले एक महीने में गढ़चिरौली में हो रही गतिविधियों के बारे में 13 अलर्ट जारी हुए थे। पिछले साल 22 अप्रैल को इसी इलाके में पुलिस के कमांडो दस्ते में 40 आतंकियों को ठिकाने लगाया था। आतंकी इस साल बदले की कार्रवाई कर रहे थे और इस बात की जानकारी राज्य पुलिस को थी। सामान्यतः कमांडो दस्ते को एक ही वाहन में नहीं भेजा जाता। वे ज्यादातर पैदल मार्च करते हुए जाते हैं, ताकि उनपर घात लगाकर हमला न हो सके। इस बार वे प्राइवेट बस में जा रहे थे, जिसकी जानकारी केवल पुलिस को थी। सम्भव है कि स्थानीय लोगों ने इसे देखा हो और आतंकियों को जानकारी दी हो। जो भी है, यह स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर की अनदेखी है, जिसका भारी खामियाजा देना पड़ा।

Saturday, May 4, 2019

चुनाव के सफल संचालन से माओवाद हारेगा

लोकसभा चुनाव के दौरान माओवादी हिंसा के राजनीतिक निहितार्थ हैं. बिहार, उड़ीसा, बंगाल, आंध्र, छत्तीसगढ़, आंध्र, तेलंगाना और महाराष्ट्र के कई इलाके उस लाल गलियारे में पड़ते हैं, जहाँ माओवादी प्रभाव है. माओवादी इस लोकतांत्रिक गतिविधि को विफल करना चाहते हैं. बावजूद छिटपुट हिंसा के उत्साहजनक खबरें भी मिल रहीं हैं. जनता आगे बढ़कर माओवादियों को चुनौती दे रही है. इस बीच माओवादियों ने कई जगह हमले किए हैं. सबसे बड़ा हमला गढ़चिरौली में हुआ है, जहाँ 15 कमांडो और एक ड्राइवर के शहीद होने की खबर है.

चुनाव शुरू होने के पहले ही माओवादियों ने बहिष्कार की घोषणा कर दी थी और कहा था कि जो भी मतदान के लिए जाएगा, उसे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे. इस धमकी के बावजूद झारखंड, उड़ीसा, महाराष्ट्र, आंध्र और तेलंगाना में मतदाताओं ने बहिष्कार के फरमान को नकारा. छत्तीसगढ़ में निर्वाचन आयोग ने सुरक्षा की दृष्टि से अचानक 132 मतदान केंद्रों के स्थान बदल दिए. फिर भी सैकड़ों मतदाताओं ने जुलूस के रूप में 30 किलोमीटर पैदल चलकर मतदान किया. इससे जाहिर होता है कि मतदाताओं के मन में कितना उत्साह है. यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की जीत है. माओवादियों ने गांवों में ही मतदाताओं को रोकने की कोशिशें कीं, जो बेअसर हो गईं.

गढ़चिरौली में माओवादियों की हिंसक कार्रवाई के बाद नक्सलवाद शब्द एकबार फिर से खबरों में है. नक्सलवाद और माओवाद को प्रायः हम एक मान लेते हैं. ऐसा नहीं है. माओवाद अपेक्षाकृत नया आंदोलन है. नक्सलवाद चीन की कम्युनिस्ट क्रांति से प्रेरित-प्रभावित आंदोलन था. उसकी रणनीति के केन्द्र में भी ग्रामीण इलाकों की बगावत थी. शहरों को गाँवों से घेरने की रणनीति. वह रणनीति विफल हुई.

Thursday, May 2, 2019

ताकत यानी पावर का नाम है राजनीति!

समय के साथ राजनीति में आ रहे बदलावों पर क्या आपने ध्यान दिया है? कुछ साल पहले सायास और अनायास मुझे कुछ ऐसे लोगों से मिलने का मौका लगा, जो ऊँचे खानदानों से वास्ता रखते हैं और राजनीति में आना चाहते हैं। उन्होंने जो रास्ता चुना, वह जनता के बीच जाने का नहीं है। उनका रास्ता पार्टी-प्रवक्ता के रूप में उभरने का है। उन्हें मेरी मदद की दो तरह से दरकार थी। एक, राजनीतिक-सामाजिक मसलों की पृष्ठभूमि को समझना और दूसरे मुहावरेदार हिन्दी बोलने-बरतने में मदद करना। सिनेमा के बाद शायद टीवी दूसरा ऐसा मुकाम है, जहाँ हिन्दी की बदौलत सफलता का दरवाजा खुलता है।

पिछले एक दशक में राजनीतिक दलों के प्रवक्ता बनने का काम बड़े कारोबार के रूप में विकसित हुआ है। पार्टियों के भीतर इस काम के लिए कतारें हैं। मेरे विस्मय की बात सिर्फ इतनी थी कि मेरा जिनसे भी सम्पर्क हुआ, उन्हें अपने रसूख पर पूरा यकीन था कि वे प्रवक्ता बन जाएंगे, बस उन्हें होमवर्क करना था। वे बने भी। इससे आप राजनीतिक दलों की संरचना का अनुमान लगा सकते हैं। सम्बित महापात्रा का उदाहरण आपके सामने है। कुछ साल पहले तक आपने इनका नाम भी नहीं सुना था।

Sunday, April 28, 2019

वाराणसी से भाजपा का गठबंधन-संदेश


गुरुवार को वाराणसी में भारी-भरकम रोड शो के बाद शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपना नामांकन पत्र दाखिल कर दिया। रोड शो और उसके बाद गंगा आरती की भव्यता ने मीडिया का ध्यान आकर्षित किया, जो स्वाभाविक था। इसका आयोजन सोज-समझकर किया गया था। सन 2014 के चुनाव के पहले भी करीब-करीब इसी तरह का आयोजन किया गया था। पर इस कार्यक्रम की भव्यता और भारी भीड़ के बरक्स ध्यान देने वाली बात है इस कार्यक्रम की राजनीतिक प्रतीकात्मकता। यह प्रतीकात्मकता दो तरीके से देखी जा सकती है। एक, प्रस्तावकों के चयन में बरती गई सावधानी से और दूसरे एनडीए से जुड़े महत्वपूर्ण नेताओं की उपस्थिति।
मोदी के नामांकन के ठीक पहले खबर यह भी आई कि प्रियंका गांधी वाराणसी से चुनाव लड़ने नहीं जा रही हैं। हालांकि कांग्रेस पार्टी ने कभी यह नहीं कहा था कि प्रियंका वाराणसी से लड़ेंगी, पर इस सम्भावना को शुरू में ही खारिज नहीं किया गया था। देर से की गई इस घोषणा से पार्टी को नुकसान ही हुआ। शुरू में ही साफ कर देना बेहतर होता। इसे अटकल के रूप में चलने देने की गलती कांग्रेस ने की। इतना ही नहीं ममता बनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव, अरविन्द केजरीवाल, के चंद्रशेखर राव और नवीन पटनायक के अंतर्विरोधी बयानों की वजह से भी  महागठबंधन की राजनीति को झटके लगे हैं। बीजेपी के विरोध में खड़ी की गई एकता में दरारें नजर आने लगी हैं। विरोधी दल कम के कम मोदी के खिलाफ अपना संयुक्त प्रत्याशी खड़ा करने में नाकाम रहे। चुनाव परिणाम जो भी हों, पर बीजेपी अपने गठबंधन की एकता को सुनिश्चित रखने का दावा कर सकती है।