पश्चिम बंगाल की
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ‘फायरब्रैंड छवि’ खुद उनकी ही दुश्मन बन
गई है. हाल में हुए लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी को लगे धक्के से उबारने की कोशिश
में उन्होंने कुछ ऐसी बातें कह दीं है जिनसे वे गहरे संकट में फँस गईं हैं. उनकी
कर्ण-कटु वाणी ने देशभर के डॉक्टरों को उनके खिलाफ कर दिया है. हालांकि ममता को अब
नरम पड़ना पड़ा है, पर वे हालात को काबू कर पाने में विफल साबित हुई हैं. इस पूरे
मामले को राजनीतिक और साम्प्रदायिक रंग देने से उनकी छवि को धक्का लगा है. इन
पंक्तियों प्रकाशित होने तक यह आंदोलन वापस हो भी सकता है, पर इस दौरान जो सवाल
उठे हैं, उनके जवाब जरूरी हैं.
कोलकाता से शुरु हुए इस आंदोलन
ने देखते ही देखते राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन का रूप ले लिया. दिल्ली के एम्स
जैसे अस्पतालों से कन्याकुमारी तक धुर दक्षिण के डॉक्टर तक विरोध का झंडा लेकर
बाहर निकल आए हैं. डॉक्टरों के मन में अपनी असुरक्षा को लेकर डर बैठा हुआ है, वह
एकसाथ निकला है. इस डर को दूर करने की जरूरत है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने सोमवार
को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया है. सम्भव है कि इन पंक्तियों के प्रकाशित
होने तक स्थितियाँ सुधर जाएं, पर हालात का इस कदर बिगड़ जाना बड़ी बीमारी की तरफ
इशारा कर रहा है. इस बीमारी का इलाज होना चाहिए.
पिछले सोमवार को कोलकाता
के नील रतन सरकार (एनआरएस) मेडिकल कॉलेज में एक मरीज की मौत हो जाने के बाद उसके
रिश्तेदारों ने जूनियर डॉक्टरों पर हमला बोल दिया. इसमें कुछ डॉक्टर घायल हो गए.
विरोध में डॉक्टरों ने हड़ताल कर दी. ऐसी हड़तालें अक्सर अस्पतालों में हो जाती
हैं, पर सामयिक प्रशासनिक हस्तक्षेप से स्थितियों को बिगड़ने से बचा लिया जाता है,
पर कोलकाता में स्थितियाँ बजाय सुधरने के बिगड़ गईं. सरकारी अस्पतालों में इतनी
भारी भीड़ होने लगी है कि किसी एक पक्ष को दोषी ठहराना मुश्किल होता है. साधनों की
कमी है. ऐसे में मरीजों की शिकायतें वाजिब हैं, पर इसके लिए डॉक्टरों पर हमले का
मतलब क्या है? वे आपकी प्राण-रक्षा कर
रहे हैं और दूसरी तरफ आप उनपर हमले कर रहे हैं.
सवाल है कि
कोलकाता-प्रकरण ने राजनीतिक शक्ल क्यों हासिल की? डॉक्टरों के आंदोलन का बीजेपी ने समर्थन कर दिया.
लोकसभा चुनाव के बाद से तृणमूल और बीजेपी के बीच घमासान मचा हुआ है. चुनाव के बाद
हुई हिंसा में कम से कम 15 मौतों की खबरें मिली हैं. बीजेपी के समर्थन की खबर
सुनते ही ममता बनर्जी ने डॉक्टरों के आंदोलन को राजनीतिक और साम्प्रदायिक घोषित कर
दिया. मुख्यमंत्री होने के नाते उनका फर्ज बनता था कि वे डॉक्टरों को उनकी सुरक्षा
का भरोसा दिलातीं और हमलावरों पर कार्रवाई करतीं. उल्टे उन्होंने डॉक्टरों को
चेतावनी दे दी. उनकी बातों ने आग में घी का काम किया.
बीजेपी का कहना है कि डॉक्टरों पर हमला करने में एक खास समुदाय के लोगों की भूमिका
है. खबरें हैं कि लोगों की भीड़ ने मेडिकल कॉलेज के छात्रावास पर भी हमला बोला.
हालांकि बाद में पुलिस ने पाँच व्यक्तियों को गिरफ्तार किया, पर इसबात को स्वीकार
किया जाना चाहिए कि इसमें देरी की गई और मामले को बेवजह राजनीतिक रंग देने की
कोशिश की गई. बीजेपी ने इस प्रकरण का लाभ उठाया है, पर उसे ऐसा करने का मौका सरकारी
गफलत के कारण मिला.
मुख्यमंत्री को समय रहते डॉक्टरों
के पास जाकर उनकी बातों को भी सुनना चाहिए था. राज्य का स्वास्थ्य मंत्रालय भी
उनके अधीन है. उन्होंने ऐसा नहीं किया, बल्कि धमकी अलग से दी. यह एक जिम्मेदार
राजनेता के लक्षण नहीं हैं. इतना ही नहीं उन्होंने डॉक्टरों को ‘बाहरी’ लोग घोषित कर दिया. बांग्ला राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद किया.
उन्होंने कहा, बाहरी लोग मेडिकल कॉलेजों में गतिरोध पैदा करने के लिए यहां घुस आए
हैं और यह आंदोलन माकपा और भाजपा की साजिश है.
दूसरी तरफ बीजेपी की ओर
से इसे साम्प्रदायिक समस्या के रूप में उठाना गैर-जिम्मेदाराना बात है. यदि वह
राज्य में वैकल्पिक राजनीतिक दल के रूप में उभरना चाहती है, तो उसे सभी समुदायों
की पार्टी के रूप में उभरना चाहिए. डॉक्टरों को भी इस मामले की संवेदनशीलता को
समझना चाहिए. इस बीच बंगाल के सैकड़ों डॉक्टरों ने विरोध में इस्तीफे दे दिए हैं. विरोध
प्रदर्शन अपनी जगह है, पर उनका बुनियादी काम इलाज करने का है. मरीजों को परेशान
करने का नहीं. हड़तालों से इन बातों का समाधान नहीं होता.
उधर सुप्रीम कोर्ट में शुक्रवार
को दायर एक याचिका में देशभर के सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की सुरक्षा
सुनिश्चित करने का अनुरोध किया गया है. इस याचिका में केन्द्रीय गृह मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय तथा पश्चिम बंगाल सरकार को
सभी सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए
सुरक्षाकर्मियों की तैनाती का निर्देश दिया गया. उधर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन
(आईएमए) ने अस्पतालों में डॉक्टरों के खिलाफ होने वाली हिंसा की जांच के लिए कानून
बनाए जाने की मांग की है. संगठन का कहना है कि इसका उल्लंघन करने वालों को कम से
कम सात साल जेल की सजा का प्रावधान होना चाहिए.
कोलकाता हाईकोर्ट ने
फिलहाल इस मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार किया है और राज्य सरकार से कहा है कि
वह डॉक्टरों को अपनी हड़ताल वापस लेने के लिए प्रेरित करे. अंततः डॉक्टरों को
मनाने-समझाने की जिम्मेदारी सरकार की है. पर यह तभी सम्भव है, जब सरकार संरक्षक
जैसा व्यवहार करे, शत्रुवत नहीं. डॉक्टरों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकारों को
लेनी चाहिए. अस्पतालों में भी मरीज के आसपास भीड़ कैसे लग जाती है? वजह है सरकारी अस्पतालों में व्याप्त अराजकता.
इसका समाधान होना चाहिए. यह झगड़ा, आंदोलन और राजनीतिक रस्साकशी हमारी सार्वजनिक
स्वास्थ्य प्रणाली की खामियों की तरफ इशारा कर रही है.
inext में प्रकाशित
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