एक देश, एक चुनाव व्यवस्था लागू होगी
या नहीं, कहना मुश्किल है, पर विरोधी दलों के रुख से लगता है कि वे इस विचार पर
बहस भी नहीं चाहते हैं। यह बात समझ में नहीं आती है। वे सरकार के साथ बैठकर बात भी
नहीं करेंगे, भले ही विषय कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो। कांग्रेस और कुछ अन्य
दलों ने इस विषय पर विचार के लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठक का बहिष्कार क्यों किया,
यह समझ में नहीं आया। वे इस व्यवस्था के पक्ष में नहीं हैं, तो इस बात को बैठक में
जोरदार तरीके से उठाएं। यों भी यह दो दिन में लागू होने वाली बात नहीं है। भारी
बहुमत के बावजूद सरकार को कानूनी बदलावों को करते-कराते दस साल लग जाएंगे।
संसद की स्थायी समिति, विधि आयोग और
चुनाव आयोग ने इसे भी चुनाव-सुधारों का एक कारक माना है, तो कोई वजह तो होगी। आपकी
राय इसके विपरीत है, तो उसे उचित फोरम पर रखना चाहिए। चुनाव से जुड़े कई मसले हैं।
सरकार और पार्टियों का खर्च एक मसला है, पूरे साल कहीं न कहीं चुनाव होने से
सामाजिक नकारात्मकता पैदा होती है, आचार संहिता लागू होने के कारण कई तरह के काम
रुके रहते हैं, सुरक्षाबलों की तैनाती आसान होती है वगैरह। इन बातों के दूसरे पहलू
भी हैं, उनपर बात तभी होगी, जब आप बैठेंगे।
सर्वदलीय बैठक में आमंत्रित 40 में से
केवल 21 दल ही शामिल हुए। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, सपा और बसपा ने
बहिष्कार किया। इसके तीन अर्थ हैं। पहला, इन्होंने चुनाव में मिली हार को स्वीकार
नहीं किया है। दूसरे, भविष्य के लिए कोई सकारात्मक रणनीति भी नहीं बनाई है। तीसरे
इन पार्टियों से संवाद के लिए सरकार को और ज्यादा कोशिश करनी होगी। इनकी अनदेखी और
उपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। बैठक के बाद रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने बताया कि इस
मुद्दे पर विचार करने लिए प्रधानमंत्री एक समिति गठित करेंगे जो निश्चित समय-सीमा
में अपनी रिपोर्ट देगी। समिति में सभी पक्षों की नुमाइंदगी नहीं होगी, तो उसकी
संस्तुतियाँ एकतरफा होंगी।
पिछले तीन साल में कई बार यह बात
जोरदार ढंग से कही गई है कि देश को एक बार फिर से ‘आम चुनाव’ की अवधारणा पर लौटना
चाहिए। संसद की एक संयुक्त स्थायी समिति ने इसका रास्ता बताया है। पिछली सरकार के एक
मंत्रिसमूह ने भी इस पर चर्चा की। विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में इसका
सुझाव दिया था। चुनाव सुधार के सिलसिले में चुनाव आयोग की भी यही राय है। जबसे इस
विषय पर विमर्श शुरू हुआ है, तबसे ही विरोधी पार्टियों और कुछ विशेषज्ञों ने कहा
है कि यह भारतीय लोकतंत्र की विविधता के विपरीत बात होगी। यानी कि छोटे क्षेत्रीय
दल दबाव में आ जाएंगे। ‘एक पार्टी, एक विचारधारा और एक नेता’ का
बोलबाला हो जाएगा।
यह अंदेशा आज की परिस्थितियों को देखते
हुए हैं। विरोधी दल इसे केवल राजनीति के नजरिए से देख रहे हैं, व्यापक परिस्थितियों
के नजरिए से नहीं। यह व्यवस्था लागू करना आसान नहीं है, जिसके लिए कई तरह के
सांविधानिक संशोधन करने होंगे। इसके जो दोष गिनाए जा रहे हैं, उन्हें दूर करने के
लिए भी सुझाव हैं, मसलन केन्द्र और राज्यों के चुनाव अलग-अलग समय पर हों वगैरह।
73 और 74वें संविधान संशोधनों के बाद लोकतंत्र की एक तीसरी सतह भी तैयार हो
गई है। ग्राम पंचायतों, ब्लॉक पंचायतों और जिला पंचायतों की
अनुमानित संख्या 2.51 लाख है। नगर निकायों की संख्या इनके अलावा है।
देश में 4120 विधायकों और 543 लोकसभा सीटों के लिए चुनाव होता है।
पहले हमें इन चुनावों को एकसाथ कराने
के व्यावहारिक तरीकों पर विचार करना होगा। विचार तभी होगा, जब सब साथ बैठेंगे।
हमें यह भी देखना होगा कि दूसरे देशों
का अनुभव क्या है। दूसरे मसले भी उठेंगे। मसलन राजनीतिक चंदे का सवाल। एक सुझाव है
कि जर्मन संसद की तरह हमें भी ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए, जिसमें वैकल्पिक सरकार
लाए बगैर सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता। हमारी चुनाव
व्यवस्था ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ है, जिसमें सबसे
ज्यादा वोट पाने वाला जीतता है, भले ही उसके मुकाबले खड़े प्रत्याशियों के सकल वोट
उसे मिले वोटों से ज्यादा हों। इसके विकल्प में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था
कुछ देशों में है। हमारे देश के आकार और जटिलताओं को देखते हुए इन बातों पर भी
विचार करना होगा।
चुनाव महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक कर्म है।
इसकी वजह से राष्ट्रीय महत्व के तमाम प्रश्नों पर बहस होती है। तमाम जानकारियाँ
सामने आती हैं, पर बेतहाशा चुनावबाजी के नकारात्मक पहलू भी हैं। हमारे मन पर
लगातार चुनाव के नारे हावी रहते हैं। इससे सामाजिक जीवन में जहर घुलता है। चुनाव
के दौर के भाषण एक खास उद्देश्य से जुड़े होते हैं। सामान्य काम-काज के दौर को
चुनावी मनोदशा से जोड़ना ठीक नहीं। चुनाव के दौरान काला धन के इस्तेमाल की समस्या
भी उठती है। कुछ साल पहले तक बूथ कैप्चरिंग, गुंडागर्दी
और हत्याओं का भी चुनावों के साथ घनिष्ठ मेल हो गया था। इसके लिए चुनाव व्यवस्था
ही दोषी नहीं है। इसमें सामाजिक विसंगतियों की भी भूमिका है, पर चुनाव की
पृष्ठभूमि में उन्हें भड़कने का मौका मिलता है। इनमें से काफी चीजें हमारे समाज की
देन हैं।
देश की स्थिरता का सूचकांक चुनाव भी
है। अपेक्षाकृत स्थिर देशों में शायद ही ऐसे हालात मिलें। ज्यादातर देश चार या
पाँच साल में चुनाव कराते हैं और शेष समय में अपनी प्रशासनिक-व्यवस्था को सुदृढ़
करते हैं। हमारी व्यवस्था में भी स्थिरता आ रही है। सन 1999 के बाद से बनी सभी
लोकसभाओं ने अपना कार्यकाल पूरा किया है। तमाम देशों में चुनाव की तिथियाँ तक तय
हैं। हमारे देश में भी 1952 से 1967 तक पूरे देश में एकसाथ ही चुनाव हुए थे। सन
1967 के बाद राजनीतिक परिस्थितियाँ बदलीं और देखते-देखते तमाम राज्यों में अलग-अलग
समय पर चुनाव होने लगे। यह अस्थिरता भी अब कम हो रही है। इसबार लोकसभा चुनाव के
साथ ओडिशा और आंध्र प्रदेश की विधानसभाओं के वोट भी पड़े। उनमें यह भी साफ हुआ कि
वोटर को केन्द्रीय और स्थानीय मसलों की समझ है। किसी भी बात को अंतिम सत्य नहीं
मान लेना चाहिए, पर विमर्श से भागना भी नहीं चाहिए।
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