गुरुवार को वाराणसी में भारी-भरकम रोड शो के
बाद शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपना नामांकन पत्र दाखिल कर दिया।
रोड शो और उसके बाद गंगा आरती की भव्यता ने मीडिया का ध्यान आकर्षित किया, जो
स्वाभाविक था। इसका आयोजन सोज-समझकर किया गया था। सन 2014 के चुनाव के पहले भी
करीब-करीब इसी तरह का आयोजन किया गया था। पर इस कार्यक्रम की भव्यता और भारी भीड़
के बरक्स ध्यान देने वाली बात है इस कार्यक्रम की राजनीतिक प्रतीकात्मकता। यह
प्रतीकात्मकता दो तरीके से देखी जा सकती है। एक, प्रस्तावकों के चयन में बरती गई
सावधानी से और दूसरे एनडीए से जुड़े महत्वपूर्ण नेताओं की उपस्थिति।
मोदी के नामांकन के ठीक पहले खबर यह भी आई कि
प्रियंका गांधी वाराणसी से चुनाव लड़ने नहीं जा रही हैं। हालांकि कांग्रेस पार्टी
ने कभी यह नहीं कहा था कि प्रियंका वाराणसी से लड़ेंगी, पर इस सम्भावना को शुरू
में ही खारिज नहीं किया गया था। देर से की गई इस घोषणा से पार्टी को नुकसान ही
हुआ। शुरू में ही साफ कर देना बेहतर होता। इसे अटकल के रूप में चलने देने की गलती
कांग्रेस ने की। इतना ही नहीं ममता बनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव, अरविन्द
केजरीवाल, के चंद्रशेखर राव और नवीन पटनायक के अंतर्विरोधी बयानों की वजह से भी महागठबंधन की राजनीति को झटके लगे हैं। बीजेपी
के विरोध में खड़ी की गई एकता में दरारें नजर आने लगी हैं। विरोधी दल कम के कम
मोदी के खिलाफ अपना संयुक्त प्रत्याशी खड़ा करने में नाकाम रहे। चुनाव परिणाम जो
भी हों, पर बीजेपी अपने गठबंधन की एकता को सुनिश्चित रखने का दावा कर सकती है।
इसे बीजेपी की कहें या, नरेन्द्र मोदी की समझ,
यह प्रतीकात्मकता पार्टी और गठबंधन की दूरगामी राजनीति को परिलक्षित करती है।
हालांकि मोदी के जुलूस में भारी भीड़ थी, पर नामांकन पत्र दाखिल करते समय उनके साथ
जो लोग गए उनमें एनडीए के नेताओं के अलावा काशी के ‘डोम
राजा’ के वंशज भी थे। मणिकर्णिका
घाट पर अंतिम संस्कार सम्पन्न कराने वाले परिवार को महत्व देने के पीछे जो
सांस्कृतिक संदेश है, उसपर ध्यान देना चाहिए। मोदी ने राजा हरिश्चन्द्र के प्रतीक
का भी इस्तेमाल किया, जो देश के जनमानस पर सत्य और कर्तव्य-निष्ठा की छवि के रूप
में अंकित हैं।
उनके नामांकन के प्रस्तावक जो चार व्यक्ति हैं,
उनपर भी गौर कीजिए। इनमें एक हैं डोम राजा के वंशज जगदीश प्रसाद। वे काशी के हाशिए
के जन-समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। काशी हिन्दू विवि के संस्थापक पंडित
मदनमोहन मालवीय की मानस-पुत्री अन्नपूर्णा शुक्ला दूसरी प्रस्तावक थीं, जो काशी की
महान शिक्षा-परम्परा का प्रतिनिधित्व कर रहीं थीं। दो अन्य प्रस्तावक थे, बीजेपी
के पुराने कार्यकर्ता सुभाष गुप्त और नरेन्द्र मोदी के बहुत पुराने मित्र कृषि
विज्ञानी राम शंकर पटेल। काशी की परम्परा के अनुरूप उन्होंने शहर कोतवाल के रूप
में प्रसिद्ध काल भैरव के मंदिर में जाकर भी सिर झुकाया।
नामांकन दाखिल करने से पहले मोदी ने अकाली दल के
नेता प्रकाश सिंह बादल के पैर छुए। नरेन्द्र मोदी अपने गठबंधन के प्रत्येक सदस्य
को महत्व देते हैं। यह बात 2014 की भारी विजय के बाद भी पार्टी ने रेखांकित की थी।
यों भी अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बने एनडीए ने सबसे पहले समन्वय समिति
बनाकर गठबंधन को संस्थागत रूप दिया था, जिसकी कमी कांग्रेस के नेतृत्व में बने
यूपीए में देखने को मिली। एनडीए के नेताओं में प्रकाश सिंह बादल के अलावा बिहार के
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, राम विलास पासवान, उद्धव
ठाकरे,
अनुप्रिया पटेल और
अन्ना द्रमुक के ओ पन्नीरसेल्वम और एम थम्बीदुरई
शामिल थे।
उनकी अपनी पार्टी के नेताओं में अमित शाह, सुषमा
स्वराज, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी और योगी
आदित्यनाथ शामिल थे। एनडीए की इस एकता के बरक्स महागठबंधन के बिखराव की राजनीति
चुनाव के पहले कुछ कहती है। एकता का यह प्रदर्शन केवल इत्तफाक नहीं था, बल्कि इस
बात को दृढ़ता से रेखांकित किया गया कि हम एक साथ हैं और एक साथ रहेंगे। इन दिनों
कई प्रकार की अवधारणाएं हवा में हैं कि बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, तो
नेतृत्व के सवाल को किस प्रकार सुलझाया जाएगा।
एनडीए के ज्यादातर वरिष्ठ नेताओं की उपस्थिति
इस लिहाज से महत्वपूर्ण थी। चुनाव के तीन चरण पूरे होने के बाद भाजपा संदेश दे रही
है कि वह न केवल खुद समर्थ है, बल्कि एनडीए के प्रमुख के तौर पर सभी घटक दलों को
भी साथ लेकर आ रही है। यानी कि यह चुनाव एनडीए की ओर से लड़ा जा रहा है। शिवसेना
को छोड़, एनडीए के ज्यादातर घटक दलों की तरफ से कटु प्रतिक्रियाएं अतीत में नहीं
आई हैं। शिवसेना की तल्खी के बावजूद बीजेपी की तरफ से कोई कड़वी बात नहीं कही गई।
पर अब उद्धव ठाकरे का वाराणसी आना बहुत कुछ कहता है। तमिलनाडु में भाजपा ने अद्रमुक
के साथ गठबंधन किया और उसके नेताओं की वाराणसी में उपस्थिति भी गठबंधन की ताकत को व्यक्त कर रही है। सबसे
महत्वपूर्ण है बीजेपी का इस चुनाव में बिहार में जेडीयू और लोजपा के पक्ष में
सीटें छोड़ना। उत्तर प्रदेश में अपना दल के साथ टकराव को ख़त्म करके अनुप्रिया
पटेल को राज़ी कर लिया गया। यानी कि पार्टी अपने सहयोगी दलों की भावना की कद्र कर
रही है।
इसमें दो राय नहीं कि हाल में उत्तर भारत के
तीन राज्यों में विजय के बाद कांग्रेस के लिए हालात बेहतर हुए हैं, पर उसकी गठबंधन
राजनीति बहुत सफल कभी नहीं रही। सन 2014 की हार के बाद पार्टी ने औपचारिक रूप से
कोई चिंतन-शिविर नहीं लगाया, पर किसी न किसी स्तर पर अंतर्मंथन हुआ होगा,
तभी उसने विरोधी दलों के महागठबंधन की अवधारणा को बढ़ावा दिया। कांग्रेस गठबंधन की
आदी नहीं है। यूपीए में उसकी सबसे करीबी पार्टी एनसीपी है, जो
उससे ही टूट कर बनी है। तृणमूल कांग्रेस दूसरी ऐसी पार्टी है, जो
कांग्रेस से टूटकर बनी है। आंध्र में वाईएसआर कांग्रेस भी उससे ही टूटकर अलग हुई, जिसके
बाद से आंध्र और तेलंगाना में कांग्रेस का आधार लगभग खत्म हो गया। यूपीए- और
यूपीए-2 की सरकारों के सामने सहयोगी दलों के साथ सम्पर्क बनाए रखने की जरूरत हमेशा
पेश आती रही। तीन मौकों पर उसने गठबंधन सरकारें बनाईं। दो मौकों पर उसने बाहर से
गठबंधन सरकारों को समर्थन दिया। हर बार सहयोगी दलों को कांग्रेस से शिकायतें रहीं।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (29-04-2019) को "झूठा है तेरा वादा! वादा तेरा वादा" (चर्चा अंक-3320) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
इन सब बातों से यह तो जाहिर होता ही है कि भा ज पा गठबंधन में लचीला पन ज्यादा है, भा ज पा ने पिछले चुनाव में अपनी जीती हुई सीटें सहयोगी दलों को दे कर अपना हाथ ऊपर रख लिया चाहे आलोचक कितनी भी मजाक बना लें लेकिन यह बात तो सिद्ध होती ही है कि बड़े भाई को कुछ त्याग कर ही परिवार की एकता को बचाना पड़ता है और कांग्रेस पहले की तरह इसे फिर भूल गयी
ReplyDeleteअंजाम यह हैं कि सब कुछ बिखर गया और हास्यास्पद स्तिथिति बन गयी