अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की पहचान सिरफिरे व्यक्ति के रूप में जरूर थी, पर यह भी लगता था कि उनके पास भी मर्यादा की कोई न कोई रेखा होगी। उनकी विदाई कटुता भरी होगी, इसका भी आभास था, पर वह ऐसी हिंसक होगी, इसका अनुमान नहीं था। हालांकि ऐसा कहा जा रहा था कि वे हटने से इनकार कर सकते हैं। उन्हें हटाने के लिए सेना लगानी होगी वगैरह। पर लोगों को इस बात पर विश्वास नहीं होता था।
बहरहाल वैसा भी नहीं हुआ, पर उनके कार्यकाल के दस दिन और बाकी हैं। इन दस दिनों में क्या कुछ और अजब-गजब होगा? क्या ट्रंप को महाभियोगके रास्ते निकाला जाएगा? क्या संविधान के 25वें संशोधन के तहत कार्रवाई की जा सकेगी? क्या उनपर मुकदमा चलाया जा सकता है? क्या उनकी गिरफ्तारी संभव है? ऐसे कई सवाल सामने हैं, जिनका जवाब समय ही देगा। अलबत्ता इतना स्पष्ट है कि ट्रंप पर महाभियोग चलाया भी जाए, तो उन्हें 20 जनवरी से पहले हटाया नहीं जा सकेगा, क्योंकि सीनेट की कार्यवाही 19 जनवरी तक स्थगित है। संशोधन 25 के तहत कार्रवाई करने के लिए उपराष्ट्रपति माइक पेंस और मंत्रिपरिषद को आगे आना होगा, जिसकी संभावना लगती नहीं। दूसरी तरफ यह भी नजर आ रहा है कि ट्रंप की रीति-नीति को लेकर रिपब्लिकन पार्टी के भीतर दरार पैदा हो गई है। फिर भी कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अमेरिकी लोकतांत्रिक संस्थाएं दुखद स्थिति पर नियंत्रण पाने में सफल हुईं।
महाभियोग की संभावना
एक अनुमान है कि
ट्रंप ने लोगों को इसलिए उकसाया, क्योंकि वे राष्ट्रपति पद का 2024 का चुनाव भी
लड़ना चाहते हैं। महाभियोग लगाकर हटाया गया, तो अगला चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य
घोषित हो जाएंगे। पर महाभियोग के लिए सीनेट में रिपब्लिकन पार्टी का समर्थन चाहिए,
जो फिलहाल संभव नहीं लगता। कुछ सदस्यों का समर्थन मिलने पर भी काम नहीं होगा,
क्योंकि दो-तिहाई बहुमत की जरूरत होगी। सबसे बड़ी बात सीनेट अब 19 जनवरी तक स्थगित
है। अमेरिकी राष्ट्रपति को ‘सेल्फ पार्डन’ का अधिकार भी है।
क्या ट्रंप उसका इस्तेमाल करेंगे?
गत 6 जनवरी को
अमेरिकी संसद पर ट्रंप समर्थकों ने इस माँग के साथ धावा बोला था कि ट्रंप की पराजय
को खारिज करो। पर संसद ने जो बाइडेन के चुनाव पर अपनी मोहर लगा दी। इस सत्र की
अध्यक्षता ट्रंप के उपराष्ट्रपति माइक पेंस कर रहे थे। उन्होंने ही संसद के भीतर
ट्रंप समर्थकों की आपत्तियों को नामंजूर किया। ध्यान देने वाली बात है कि इस
प्रसंग में ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के तमाम सीनेटरों ने ट्रंप का विरोध किया।
आखिर में ट्रंप ने हार मानी। पर उन्होंने यह भी कहा है कि राष्ट्रपति के पद-ग्रहण
कार्यक्रम में मैं शामिल नहीं होऊंगा।
लोकतंत्र की जीत
बेशक अमेरिकी
लोकतंत्र आदर्श-प्रणाली नहीं है। उसमें तमाम खामियाँ हैं, पर जनता के जिस भरोसे का
नाम लोकतंत्र है, उसकी जीत हुई। अराजकता पर व्यवस्था ने विजय पाई। रिपब्लिकन पार्टी
के सीनेटरों और उपराष्ट्रपति माइक पेंस की भूमिका पर ध्यान दीजिए। उन्होंने
व्यक्तिगत और पार्टी के हितों कोस त्यागकर देश के हितों को महत्वपूर्ण माना। इसके
अलावा हमें अमेरिकी न्याय-व्यवस्था पर भी ध्यान देना चाहिए। ट्रंप ने नीचे से लेकर
सुप्रीम कोर्ट तक 60 आपत्तियाँ दर्ज कराईं, पर अदालतों ने केवल एक को छोड़ किसी
आपत्ति को नहीं माना।
वस्तुतः इन बातों
का आभास पिछले साल ही था। एमहर्स्ट कॉलेज के प्रोफेसर लॉरेंस डगलस की किताब है, ‘विल ही गो?’ उन्होंने ऐसे सिनारियो का जिक्र किया, जिसमें ट्रंप हार गए हैं और पद से हटने को
तैयार नहीं है। इस किताब में भी उस सांविधानिक अराजकता की कल्पना की गई थी, जो ट्रंप के चुनाव से जुड़ी है। लॉरेंस डगलस को
लगता था कि अमेरिका की सांविधानिक व्यवस्था ऐसे क्षणों के लिए तैयार नहीं है।
उन्हें लगता था कि जैसे रूस के चेर्नोबिल एटमी हादसे के पीछे संयंत्र का
संरचनात्मक दोष था, उसी तरह अमेरिका
की सांविधानिक व्यवस्था में ऐसी स्थितियों से निपटने का माद्दा नहीं है।
अंदेशा था
इन सवालों को
कानून और राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर रिचर्ड हैसेन ने भी अपनी किताब ‘इलेक्शन
मैल्टडाउन: डर्टी ट्रिक्स, डिस्ट्रस्ट एंड द
थ्रैट टु अमेरिकन डेमोक्रेसी’ में उठाया था। उन्होंने चेतावनी दी थी कि चुनाव में
दंद-फंदों की भरमार होगी। वोटरों को भ्रमित करने, डराने, चुनाव मशीनरी को
प्रभावित करने का अंदेशा है और विदेशी हस्तक्षेप का खतरा। 2016 और 2018 के चुनावों
में ऐसा हुआ है और इसबार अंदेशा पहले से ज्यादा है।
अमेरिका में
सत्ता का हस्तांतरण अभी तक सदाशयता से होता रहा है। हारने वाला प्रत्याशी परिणाम
घोषित होने के पहले ही जीतने वाले को बधाई दे देता है। जब पिछले साल ट्रंप केस
सामने यह बात रखी गई, तो उन्होंने कहा, हार गया, तो चुपचाप हट जाऊँगा। पर उन्होंने इसबार की हार में तकनीकी
खामियाँ निकाली हैं। संशयी-संसार को पता था कि दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र में
दुर्घटना होने वाली है। ‘सफल लोकतंत्र’ सिर के बल खड़ा होने वाला है। ऐसा
सांविधानिक संकट जिसका हल संभव न हो।
अमेरिकी चुनाव
प्रणाली पेचीदा है, जिसमें तमाम छिद्र हैं। राज्यों के पास कई प्रकार के अधिकार
हैं। चुनाव के लिए ताकतवर और स्वतंत्र चुनाव आयोग भी नहीं है। देश में रंग-भेद और
जाति-भेद की भावनाएं खत्म नहीं हुईं हैं। कैपिटल हिल पर धावा बोलने वाले बहुत से
लोगों के हाथों में कॉन्फेडरेट ध्वज थे, जो खासतौर से दक्षिण के राज्यों में
प्रचलित ‘ह्वाइट सुप्रीमेसी’ की भावना को व्यक्त करते
हैं। अमेरिका में सामाजिक आधार पर जो ध्रुवीकरण हो रहा है, वह ज्यादा बड़ी चिंता
का विषय है। यह सामाजिक विभाजन खत्म नहीं हो जाएगा, बल्कि अंदेशा है कि बढ़ेगा। नए
राष्ट्रपति जो बाइडेन के सामने ज्यादा बड़ी चुनौती उस सामाजिक टकराव को रोकने की
है, जो अब शुरू होगा।
एंटी-सोशल मीडिया
टकराव के इस दौर
को भड़काने में जिस बात ने बड़ी भूमिका निभाई है, उसकी तरफ भी देखना चाहिए। वह है
सोशल मीडिया, जिसे अब एंटी-सोशल मीडिया कहा जा रहा है। ट्विटर ने घोषणा की है कि
उसने डोनाल्ड ट्रंप के खाते को ‘हिंसा और भड़कने के जोखिम’ के कारण स्थायी रूप से
निलंबित कर दिया है। इसके बाद ट्रंप की टीम ने उनके आधिकारिक ट्विटर हैंडल पोटस पर
ट्वीट किए जिसके बाद ट्विटर ने उस पर भी रोक लगा दी। जिसके बाद ट्विटर ने टीम
ट्रंप के ट्विटर हैंडल को भी बंद कर दिया है।
ट्रंप का हैंडल
बंद हो गया, पर सवाल खत्म नहीं हुए हैं। सन 2016 में जब डोनाल्ड ट्रंप चुनाव जीते
थे, तब कहा गया था कि वोटरों को भड़काने में फेसबुक की भूमिका थी। इसपर मार्क
ज़ुकरबर्ग ने लम्बी सफाई दी थी। इसबार कैपिटल हिल पर हमले के पीछे सोशल मीडिया का
हाथ साफ नजर आता है। भले ही फेसबुक, ट्विटर, स्नैपचैट और ट्विच जैसे प्लेटफॉर्मों
ने ट्रंप के खाते बंद कर दिए हैं, पर दुनियाभर में लाखों-करोड़ों खातों पर रोक
कैसे लगेगी? सवाल केवल ट्रंप की हार
या जीत का नहीं है।
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