Sunday, January 17, 2021

वैक्सीन यानी भरोसे की वापसी

भारत में कोविड-19 से लड़ाई के लिए जो टीकाकरण अभियान कल से शुरू हुआ है, उसका प्रतीकात्मक महत्व है। यह दुनिया का, बल्कि इतिहास का सबसे बड़ा अभियान है। भारत को श्रेय जाता है कि उसने न केवल त्वरित गति से वैक्सीन तैयार किए, बल्कि उन्हें देश के कोने-कोने तक पहुँचाया। अभियान के पहले चरण में करीब तीन करोड़ लोगों को टीका लगाया जाएगा। यह टीकाकरण उस भरोसे की वापसीहै, जिसका पिछले दस महीनों से हमें इंतजार है। भारत केवल अपने लिए ही नहीं, दुनियाभर के लिए टीके बना रहा है।  

उम्मीद है कि इस साल के अंत तक देश की उस आबादी को टीका लग जाएगा, जिसे इसकी सबसे पहले जरूरत है। इसमें सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के 3,600 केंद्र वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए आपस में जुड़ेंगे। पहले चरण में हैल्थकेयर और फ्रंटलाइन वर्कर्स, 50 से अधिक उम्र के लोग और कोमॉर्बिडिटी वाले लोगों को टीका लगाया जा रहा है। भारत के इस अभियान के कुछ दिन पहले दुनिया में टीकाकरण का अभियान शुरू हुआ है। वैक्सीनेशन की वैश्विक गणना करने वाली वैबसाइट के अनुसार 15 जनवरी तक तीन करोड़ 85 लाख से ज्यादा लोगों को कोविड-19 के टीके लगाए जा चुके थे। भारत का अभियान शुरू होने के बाद यह संख्या तेजी से बढ़ेगी।

भ्रामक प्रचार

इस सफलता के बावजूद और टीकाकरण शुरू होने के पहले ही कुछ स्वार्थी तत्वों ने भ्रामक बातें फैलानी शुरू कर दी हैं। उन बातों की कलई टीकाकरण शुरू होने के बाद खुलेगी, क्योंकि अगले कुछ दिनों के भीतर लाखों व्यक्ति टीके लगवा चुके होंगे। चूंकि दुष्प्रचार यह है कि राजनेता टीके लगवाने से बच रहे हैं, इसलिए उसका जवाब देना भी जरूरी है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्रियों से वीडियो कांफ्रेंस में कहा, जब भी आपका नंबर आए वैक्सीन जरूर लें, लेकिन नियम न तोड़ें। उनका आशय है कि वीआईपी होने का लाभ नहीं उठाएं। पर जब टीके को लेकर भ्रांत-प्रचार है, तब प्रतीक रूप में ही सही कुछ नेता टीकाकरण में शामिल होते तो अच्छा था। इनमें राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री और कुछ मुख्यमंत्री भी हो सकते हैं। इससे उन आशंकाओं को दूर करने में मदद मिलती, जो फैलाई जा रही हैं। संदेह दो प्रकार के हैं। एक वैज्ञानिक और दूसरे राजनीतिक। बेशक वैज्ञानिक संदेहों को ही महत्व दिया जाना चाहिए। वैक्सीन के साइड इफैक्ट क्या हैं और उनके जोखिम क्या हैं, उनपर भी बात करनी चाहिए।

एक सप्ताह पहले शनिवार 9 जनवरी को ब्रिटेन की 94 वर्षीय महारानी एलिज़ाबेथ और उनके 99 वर्षीय पति प्रिंस फिलिप को कोविड-19 का टीका लगाया गया। ब्रिटेन में वैक्सीन की वरीयता सूची में उनका भी नाम था। अमेरिका के नव-निर्वाचित जो बाइडेन और वर्तमान उपराष्ट्रपति माइक पेंस ने भी टीका लगवाया है। इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू टीका लगवा चुके हैं। रिचर्ड एटनबरो जैसे तमाम सेलिब्रिटी टीके लगवा रहे हैं। यह सब इसलिए ताकि लोगों का विश्वास बढ़े।

तेज अभियान

दुनिया में इतनी तेजी से किसी बीमारी के टीके की ईजाद न तो पहले कभी हुई, और न इतने बड़े स्तर पर टीकाकरण का अभियान चलाया गया। पिछले साल के शुरू में अमेरिका सरकार ने ऑपरेशन वार्पस्पीड शुरू किया था, जिसका उद्देश्य तेजी से वैक्सीन का विकास करना। वहाँ परमाणु बम विकसित करने के लिए चली मैनहटन परियोजना के बाद से इतना बड़ा कोई ऑपरेशन नहीं चला। यह भी तय था वैक्सीन की उपयोगिता साबित होते ही उसे आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति (ईयूए) मिल जाएगी।

कोरोना-वैक्सीन नई व्यवस्था के तहत तैयार की गई हैं। अमेरिका की ईयूए व्यवस्था संशोधित फेडरल फूड ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट (एफडीसीए) के अंतर्गत आती है, जिसका उद्देश्य जैविक, रासायनिक और नाभिकीय खतरों और महामारियों से निपटने के लिए औषधियों के विकास में तेजी लाना है।  इस तेजी के कारण उम्मीदें बढ़ी हैं, वहीं विघ्नसंतोषियों को संदेह पैदा करने का मौका भी मिला।

विवाद कई तरह के हैं। किसे पहले वैक्सीन मिलेगी, किसे बाद में मिलेगी? इनकी कीमत का निर्धारण कैसे होगा? कौन देगा इनकी कीमत? एक विवाद इन्हें मंजूरी देने की प्रक्रिया से जुड़ा है। भारत में ही नहीं दुनियाभर में सभी वैक्सीन आपातकालीन उपयोग के नाम पर परीक्षणों के लिए निर्धारित समय से पहले इस्तेमाल में लाई जा रही हैं। इनके परीक्षणों को लेकर भी शिकायतें हैं।

भारतीय सफलता

भारत दुनिया में वैक्सीन का सबसे बड़ा निर्माता है। हमारी वैक्सीनों की दुनियाभर में माँग है। ये वैक्सीन अपेक्षाकृत सस्ती और प्रभावशाली हैं। उनकी साख भी है। हाल में खबर थी कि ब्राजील ने चीन की सिनोवैक वैक्सीन को नामंजूर कर दिया, क्योंकि वह प्रभावशाली नहीं है। वहाँ भारत से वैक्सीन भेजी जा रही है। खाड़ी के देशों में सिनोवैक टीका लग रहा है। सितंबर 2020 में यूएई ने चीनी कंपनी सीनोफार्म को आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति दी थी, जबकि उसके परीक्षण का तीसरा चरण पूरा नहीं हुआ था। भारत के टीकों की कीमत 200 रुपये के आसपास है, वहीं चीनी टीके की कीमत पाँच हजार रुपये से ऊपर है। कुछ समय बाद ही हम भारतीय टीकों के महत्व को दुनियाभर में स्थापित होता देखेंगे।

एक आपत्ति वैक्सीन के उन परंपरागत विरोधियों की है, जो हर हाल में वैक्सीन का विरोध करते हैं। कुछ धर्म के आधार पर विरोध करते हैं और कुछ वैज्ञानिक सिद्धांतों का हवाला देते हैं। कई तरह की भ्रांतियाँ फैलाई जाती हैं। बहरहाल वैश्विक संस्थाएं मानती हैं कि वैक्सीन उपयोगी हैं और उनके कारण दुनिया में कई तरह की संक्रामक बीमारियों को रोकने में मदद मिली है।

एहतियात जारी रहेंगे

कोविड-19 का असर कब तक रहेगा, कहना मुश्किल है। विशेषज्ञ मानते हैं कि अगले कई वर्षों तक हमें मास्क पहनने, हाथ धोने और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते रहना होगा। टीके के बाद भी रोग नहीं लगने की गारंटी नहीं होगी। यह बात दूसरे रोगों की वैक्सीनों पर भी लागू होती है। कोविड-19 के लिए तो ये पहली पीढ़ी के टीके हैं, इनमें सुधार भी होगा।

बेशक खतरे कई तरह के हैं। इलाज अपने आप में जोखिम-भरा काम है। औषधियों का बाजार दुनिया का सबसे बड़ा फ्रॉड बाजार है, जिसमें सालाना करीब 200 अरब डॉलर का कारोबार होता है। अंदेशा इस बात का है कि फर्जी वैक्सीनें कहीं बाजार में न आ जाएं। इसलिए सबसे बड़ी चुनौती है सप्लाई चेन को दुरुस्त रखना। वैक्सीन सबसे कीमती वस्तु मानी जा रही है। इंटरपोल के शब्दों में लिक्विड गोल्डकई तरह की आपराधिक गतिविधियाँ संभव हैं। चोरी, नकल, साइबर अटैक और न जाने क्या-क्या। इंटरपोल ने दिसंबर में आगाह किया है कि संगठित अपराधी वैक्सीन के धंधे में उतर सकते हैं। इन खतरों के बावजूद वैक्सीन पर ही भरोसा है।

हरिभूमि में प्रकाशित

1 comment:

  1. सटीक... सभी पहलुओं पर बात की है आपने.... वैक्सीन नकली न बने इसका ध्यान रखने की आवश्यकता है... अगर ऐसा होता है तो काफी मुश्किलें हो सकती हैं... वहीं राजनीतिक पार्टियों को भी थोड़ा समझदारी दिखानी चाहिये और केवल विरोध के लिए विरोध नहीं करना चाहिए....

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