Monday, January 18, 2021

टीका लगाने की वैश्विक ‘अफरा-तफरी’


शनिवार 9 जनवरी को ब्रिटेन की 94 वर्षीय महारानी एलिज़ाबेथ और उनके 99 वर्षीय पति प्रिंस फिलिप को कोविड-19 का टीका लगाया गया। ब्रिटेन में वैक्सीन की वरीयता सूची में उनका भी नाम था। वैक्सीनेशन की वैश्विक गणना करने वाली एक वैबसाइट के अनुसार 11 जनवरी तक दो करोड़ 38 लाख लोगों को कोविड-19 के टीके लगाए जा चुके थे। इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक भारत में भी वैक्सीनेशन का काम शुरू हो जाएगा, जो दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान होगा। हालांकि आबादी के लिहाज से चीन ज्यादा बड़ा देश है, पर वैक्सीन की जरूरत भारत में ज्यादा बड़ी आबादी को है। 

इसे अफरा-तफरी कहें, हड़बड़ी या आपातकालीन गतिविधि दुनिया में इतनी तेजी से किसी बीमारी के टीके की ईजाद न तो पहले कभी हुई, और न इतने बड़े स्तर पर टीकाकरण का अभियान चलाया गया। पिछले साल के शुरू में अमेरिका सरकार ने ऑपरेशन वार्पस्पीड शुरू किया था, जिसका उद्देश्य तेजी से वैक्सीन का विकास करना। वहाँ परमाणु बम विकसित करने के लिए चली मैनहटन परियोजना के बाद से इतना बड़ा कोई ऑपरेशन नहीं चला। यह भी तय था वैक्सीन की उपयोगिता साबित होते ही उसे आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति (ईयूए) मिल जाएगी।

तेजी से पैदा हुए सवाल

इस तेजी से उम्मीदें बढ़ी हैं, वहीं कुछ संदेह भी पैदा हुए हैं। इस तेज शुरुआत के कारण जो विवाद खड़े हुए हैं, वे एक तो इसके वितरण को लेकर हैं। किसे पहले वैक्सीन मिलेगी, किसे बाद में मिलेगी? इनकी कीमत का निर्धारण कैसे होगा? कौन देगा इनकी कीमत? दूसरा विवाद इन्हें मंजूरी देने की प्रक्रिया से जुड़ा है। सभी वैक्सीन आपातकालीन उपयोग के नाम पर परीक्षणों के लिए निर्धारित समय से पहले इस्तेमाल में लाई जा रही हैं। इनके परीक्षणों को लेकर भी शिकायतें हैं।

तीसरी आपत्ति वैक्सीन के उन परंपरागत विरोधियों की है, जो हर हाल में वैक्सीन का विरोध करते हैं। कुछ धर्म के आधार पर विरोध करते हैं और कुछ वैज्ञानिक सिद्धांतों का हवाला देते हैं। कई तरह की भ्रांतियाँ फैलाई जाती हैं। बहरहाल वैश्विक संस्थाएं मानती हैं कि वैक्सीन उपयोगी हैं और उनके कारण दुनिया में कई तरह की संक्रामक बीमारियों को रोकने में मदद मिली है। एक नए किस्म की दिक्कत यह पेश आ रही है कि विरोध के मुकाबले इसबार वैक्सीन का माँग ज्यादा है, जिसे पूरा करना भी मुश्किल काम है।

कोविड-19 का असर कब तक रहेगा, कहना मुश्किल है। विशेषज्ञ मानते हैं कि अगले कई वर्षों तक हमें मास्क पहनने, हाथ धोने और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते रहना होगा। टीके के बाद भी रोग नहीं लगने की गारंटी नहीं होगी। यह बात पहले से प्रचलित दूसरे रोगों की वैक्सीनों पर भी लागू होती है। कोविड-19 के लिए तो ये पहली पीढ़ी के टीके हैं, जिन्हें ज्यादा से ज्यादा तीसरे चरण के परीक्षणों से प्राप्त आंशिक डेटा के आधार पर स्वीकृत किया गया है।

आपातकालीन उपयोग

अभी तक दुनिया में छह वैक्सीन ही सामने आई हैं। रूसी और चीनी वैक्सीनों को छोड़ दें, तो शेष को आपातकालीन उपयोग के लिए स्वीकृति मिली है। इनकी प्रभावोत्पादकता और संभावित खतरों के परीक्षणों के पूरे परिणाम सामने नहीं हैं। आमतौर पर भारत में अमेरिकी संस्था एफडीए (फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन) या यूरोपियन यूनियन की नियामक संस्थाओं के मानकों को स्वीकार किया जाता है, पर इसबार भारत बायोटेक की कोवैक्सीन को विशेष परिस्थिति में आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी गई है, जिसे लेकर भारत और भारत के बाहर भी विशेषज्ञों ने अपनी असहमति को दर्ज कराया है।

इसके पहले रूसी नियामक संस्था ने स्पूतनिक-5 को भी इसी तरह की अनुमति दी थी। भारतीय नियामकों ने इस अनुमति को देते हुए शर्त लगाई है कि इसका इस्तेमाल ट्रायल मोड में ही होगा। यानी कि टीका लगने के बाद व्यक्ति की निगरानी की जाएगी। यह वैक्सीन बाजार में उपलब्ध नहीं होगी।

असाधारण सफलता

तमाम देशों के स्वास्थ्य से जुड़े संगठनों के अलावा विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ), कोलीशन फॉर एपिडेमिक प्रिपेयर्डनेस इनोवेशन (सेपी) और गावी (ग्लोबल वैक्सीन एलायंस) ने भी वैक्सीनों के विकास का समन्वय किया है। वैक्सीन विकसित करने के लिए तकनीकी महारत के साथ-साथ पैसे की व्यवस्था भी करनी होती है। पिछले साल 30 सितंबर को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जानकारी दी थी कि दुनिया में 192 वैक्सीनों का विकास अलग-अलग चरणों में है। इनमें से 151 प्रि-क्लिनिकल परीक्षण की स्थिति में और 41 क्लिनिकल परीक्षण के विभिन्न चरणों में हैं। परीक्षण के चरणों में जो 41 टीके थे, उनमें तीन भारतीय हैं।

यह सफलता असाधारण है, क्योंकि सामान्यतः एक वैक्सीन के विकास की परंपरागत अवधि आठ-दस साल तक होती है। यह नई व्यवस्था भी है। महामारी की शक्ल नई है और उससे लड़ने के जोखिम भी नए हैं। सिद्धांततः टीकों को लेकर ही बहस है, फिर भी दुनिया में 25 से ज्यादा ऐसी लाइसेंसी वैक्सीन हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि वे रोगों को रोक सकती हैं। वे परंपरागत लाइसेंस प्रणाली के तहत बनी हैं। पर कोरोना की वैक्सीन नई व्यवस्था के तहत तैयार की गई हैं। अमेरिका की ईयूए व्यवस्था संशोधित फेडरल फूड ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट (एफडीसीए) के अंतर्गत आती है, जिसका उद्देश्य जैविक, रासायनिक और नाभिकीय खतरों और महामारियों से निपटने के लिए औषधियों के विकास में तेजी लाना है। 

पिछले साल सबसे पहले वैक्सीन बनने की खबरें चीन से आईं, फिर रूसी नियामक संस्था ने जब स्पूतनिक-5 को अनुमति दी, तब पश्चिमी देशों का माथा ठनका। इसके बाद दिसंबर के महीने में सबसे पहले अमेरिका से फायज़र-बायोएनटेक और मॉडर्ना की वैक्सीनों की खबरें आईं। दस दिन के फासले से अमेरिका और ब्रिटेन ने फायज़र की वैक्सीन को आपातकालीन उपयोग की अनुमति दे दी।

उसके पहले सितंबर 2020 में यूएई ने चीनी कंपनी सीनोफार्म की वैक्सीन को आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति दे दी, जबकि उसके परीक्षण का तीसरा चरण पूरा नहीं हुआ था। यह जल्दी इसलिए भी थी, क्योंकि लग रहा है कि माँग इतनी जबर्दस्त होने वाली है कि वैक्सीन की कमी पड़ जाएगी, इसलिए आपात स्थिति के लिए इंतजाम कर लिया जाए। समस्या गरीब देशों के सामने आने वाली है, जिनके पास महंगी वैक्सीन खरीदने के लिए पैसा नहीं है और जो डब्लूएचओ के निर्देशों से बँधे हैं। डब्लूएचओ, सेपी और गावी के सहयोग से कोवैक्स नाम की जो वैक्सीन विकसित की जा रही है, वह निशुल्क होगी, पर वह 2023 या 2024 तक मिल पाएगी।

…और खतरे

इलाज जोखिमों से भरा काम है। औषधियों का बाजार दुनिया का सबसे बड़ा फ्रॉड बाजार है, जिसमें सालाना करीब 200 अरब डॉलर का कारोबार होता है। कोरोना की वैक्सीन का अफरा-तफरी के कारण अंदेशा इस बात का है कि फर्जी वैक्सीनें कहीं बाजार में न आ जाएं। इसलिए इस समय सबसे बड़ी चुनौती है वैक्सीन की सप्लाई चेन को दुरुस्त रखना। इस वक्त दुनिया में वैक्सीन सबसे कीमती वस्तु मानी जा रही है। इंटरपोल के शब्दों में लिक्विड गोल्ड। उसके साथ कई तरह की आपराधिक गतिविधियाँ संभव हैं। चोरी, नकल, साइबर अटैक और न जाने क्या-क्या। इंटरपोल ने दिसंबर में आगाह किया है कि संगठित अपराधी वैक्सीन के धंधे में उतर सकते हैं। फिर वैक्सीन कंपनियों की प्रतिद्वंद्विता और प्रतियोगिता भी है।

गत 3 जनवरी को भारत के ड्रग रेग्युलेटर ने ऑक्सफोर्ड विवि और एस्ट्राजेनेका की कोवीशील्ड और भारत बायोटेक की कोवैक्सीन को आपातकालीन उपयोग की अनुमति दे दी। भारत बायोटेक की वैक्सीन के तीसरे चरण के नतीजे नहीं होने के बावजूद उसे अनुमति मिलने पर विशेषज्ञों को हैरत हुई है। हालांकि इस वैक्सीन के इस्तेमाल के साथ यह शर्त है कि उसे ट्रायल मोड में ही लगाया जाएगा, पर क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लूर में माइक्रोबायोलॉजी की प्रोफेसर गगनदीप कांग ने इस अनुमति पर अपनी आपत्ति व्यक्त की है।

उन्हें ही नहीं देश के काफी वैज्ञानिकों को इस बात पर आपत्ति है। लगता यह है कि रेग्युलेटर भी स्पष्ट नहीं कर पाए हैं कि उन्होंने किस बात की अनुमति दी है। खबरें यही हैं कि सीरम इंडिया की कोवीशील्ड के साथ भारत बायोटेक की कोवैक्सीन को भी लगाया जाएगा। देश में सबसे पहले तीन करोड़ स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं तथा अन्य ज़रूरतमंदों को टीके लगेंगे। यह काम अगस्त के महीने तक पूरा होगा। इस दौरान इन टीकों से जुड़े परिणाम भी सामने आएंगे।

वैक्सीन के कारोबार में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है। भारत दुनिया में वैक्सीन का सबसे बड़ा सप्लायर है। उम्मीद है की भारत सरकार वैक्सीन के निर्यात की इजाजत भी दे सकती है। वाणिज्य व उद्योग मंत्रालय सूत्रों के मुताबिक, ब्राजील व मैक्सिको जैसे देशों से भारत में निर्मित कोरोना वैक्सीन को लेकर पूछताछ की गई है। कई अन्य देश भारत में औपचारिक तौर पर वैक्सीन लगने की शुरुआत का इंतजार कर रहे हैं। बांग्लादेश पहले से ही भारतीय वैक्सीन का इंतजार कर रहा है। नेपाल और श्रीलंका को भी भारतीय वैक्सीन का इंतजार है।

भारतीय टीके की साख को बनाए रखने की जरूरत भी है। पाकिस्तानी फार्मा उद्यमी चाहते हैं कि दुबई तक वैक्सीन पहुंचा दी जाए, फिर वे खुद ही दुबई से पाकिस्तान ले जाने का इंतजाम कर लेंगे। इस रास्ते से कई दवाओं की सप्लाई पहले से पाकिस्तान में हो रही है। सवाल है कि क्या हम स्कूल-कॉलेजों का अगला सत्र शुरू होने के पहले कारगर वैक्सीन जनता को मुहैया करा पाएंगे? शुरुआती दौर में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को टीका लगाया जाएगा। इसकी उपयोगिता वहीं से स्थापित भी होगी।

नवजीवन में प्रकाशित

 

3 comments:

  1. भारतीय टीका अपना सिक्का जमायेगा विश्व में, ऐसा पूर्ण विश्वास है हम भारतीयों को
    बहुत अच्छी विस्तृत सामयिक जानकारी

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  2. Sir आपने बहुत अच्छे से Bahut Acche se information Explain कि हैं। Very Nice post

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