आज़ादी की 75 वीं वर्षगाँठ के कुछ दिन पहले
सूर्योदय के देश जापान में भारतीय हॉकी के पुनरोदय की प्रतीकात्मक कहानी लिखी गई
है। खेल केवल व्यक्तिगत कौशल, स्वास्थ्य और जोशो-जुनून का नाम नहीं है। वे समाज के
स्वास्थ्य और उसके हौसलों को बताते हैं। टोक्यो ओलम्पिक में भारतीय उपलब्धियों को
बहुत ज्यादा भले ही न आँकें, पर हमारी हॉकी टीमों ने पिछड़ने के बाद पलटकर खेल में
वापस आने के जिस जज़्बे का प्रदर्शन किया है, उसे समझना समझिए। सिर्फ हॉकी नहीं,
एथलेटिक्स में नीरज चोपड़ा के स्वर्ण-पदक का भी प्रतीकात्मक-महत्व है। यह
आत्म-विश्वास हमारी राष्ट्रीय-भावना को व्यक्त कर रहा है। हम सफल होना चाहते हैं।
पुनर्निर्माण की चुनौती
जिस समय भारत स्वतंत्र हुआ वह बड़ा देश जरूर
था, पर उसे उभरती महाशक्ति नहीं कह सकते थे। अंग्रेजी-राज ने हमें उद्योग-विहीन कर
दिया था और जाते-जाते दो टुकड़ों में बाँट भी दिया। कैम्ब्रिज के इतिहासकार एंगस
मैडिसन लिखा है कि सन 1700 में वैश्विक-जीडीपी में भारत की हिस्सेदारी 22.6 फीसदी
थी, जो पूरे यूरोप की हिस्सेदारी (23.3) के
करीब-करीब बराबर थी। यह हिस्सेदारी 1952 में केवल 3.2 फीसदी रह गई थी। आजादी के
वक्त देश की आबादी 34 करोड़ और जीडीपी 2.7 लाख करोड़ रुपये थी, वैश्विक जीडीपी की
3.2 फीसदी। आज हमारी जीडीपी करीब 148 लाख करोड़ है, जो वैश्विक जीडीपी की 7.74
प्रतिशत है। अनुमान है कि 2024 में हमारी भागीदारी 10 प्रतिशत होगी। सन 1951 में भारत की साक्षरता दर 16.7
प्रतिशत, बाल-मृत्यु दर 1000 बच्चों में 146 और नागरिकों की औसत आयु 32 वर्ष थी। आज साक्षरता की दर 77.7 और बाल-मृत्यु दर प्रति 1000 पर 28 के आसपास
है। तब हमारा अन्न उत्पादन
करीब पाँच करोड़ टन था, जो आज करीब 31 करोड़ टन है। आज हम उदीयमान
महाशक्ति हैं।
नेहरू की विरासत
जवाहर लाल नेहरू को ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ और उसकी
बुनियादी अवसंरचना बनाने का श्रेय जाता है। उनकी विरासत में कम से कम चार बातें आज
भी प्रासंगिक हैं। 1.मिश्रित अर्थ-व्यवस्था, 2.योजना यानी
‘दृष्टि’, 3.विदेश नीति और 4.कौशल या ज्ञान। बहु-जातीय, बहुधर्मी धर्म-निरपेक्ष भारत की परिकल्पना में भी उनका
योगदान है। बावजूद इसके इन चारों परिकल्पनाओं में पिछले 74 वर्षों में बदलाव आए
हैं। मिश्रित अर्थव्यवस्था का प्रारम्भिक रुझान सार्वजनिक उद्यमों की तरफ था, तो
अब निजी-क्षेत्र को उसका वाजिब स्थान दिया जा रहा है, योजना की जगह ‘नीति’ ने ले ली है,
विदेश-नीति में से ‘पनीले-आदर्शों’ को
बाहर कर दिया गया है। अलबत्ता कौशल या ज्ञान-आधारित विकास ‘नए भारत’ का बुनियादी मंत्र
बनकर उभरा है।
इंदिरा गांधी ने
भारतीय राष्ट्र-राज्य को लोहे के दस्ताने पहनाए। एक दौर में वे शोला बनकर आसमान
में चमकी थीं। 1962 की पराजय से आहत देश को 1971 में उन्होंने विजय का तोहफा दिया।
दूसरी तरफ कांग्रेस को ‘खानदानी-विरासत’ बनाने का
श्रेय भी उन्हें जाता है। राजीव गांधी ने ‘इक्कीसवीं सदी
का सपना’ दिया। उनका आगमन दुर्घटनावश हुआ और निधन भी। उस छोटे से दौर में भी वे नए भारत का सपना सौंपकर गए। पीवी नरसिंह राव ने
ऐसे दौर में सत्ता संभाली जब देश के सामने आजादी के बाद का सबसे बड़ा संशय खड़ा
था। एक तरफ मंदिर-मस्जिद का झगड़ा और दूसरी तरफ देश के सोने को गिरवी रखने का
सवाल। ऐसे वक्त में एक अल्पसंख्यक सरकार की बागडोर संभालते हुए वे अर्थ-व्यवस्था
में बुनियादी बदलाव लाने में सफल हुए।
अटल बिहारी
अटल बिहारी वाजपेयी ने
साबित किया कि केवल कांग्रेस को ही देश चलाने का सर्वाधिकार प्राप्त नहीं है।
उन्होंने राजनीति में ‘अछूत’ बन चुकी
बीजेपी को न केवल वैधानिकता दिलाई, बल्कि सत्ता दिलाने में भूमिका निभाई। नाभिकीय
परीक्षण का फैसला करके उन्होंने साबित किया कि दुनिया में इज्जत हासिल करनी है, तो
निर्भीक होकर कड़े फैसले करने होंगे। विदेश-नीति को नए रास्ते पर ले जाने का श्रेय
उन्हें है, जिसका पालन यूपीए ने भी किया। सपनों को साकार करने के लिए कई बार एक
नेता का इंतजार होता है। सन 2014 में नरेंद्र मोदी को देश ने कुछ इसी अंदाज में बागडोर
सौंपी। उनकी परीक्षा ऐसे दौर में हो रही है, जब देश का आर्थिक मंदी और महामारी से
सामना है। पिछले 74 वर्ष उम्मीदों और निराशाओं के ताने-बाने से बुने गए हैं। विकास हुआ, सम्पदा बढ़ी, वहीं
1974 और 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ दो बड़े आंदोलन हुए। नौकरशाही, राजनीति, पूँजी और अपराध का गठजोड़ पहले से हवा में था, पर आजादी के बाद पहला
बड़ा घोटाला 1958 में ‘मूँधड़ा-कांड’ के रूप में सामने आया। यों पहली अस्थायी संसद
के सदस्य एचजी मुदगल को बर्खास्त किया जा चुका था। आज देश में सबसे प्रचलित शब्द
है ‘घोटाला।’ साम्प्रदायिक, क्षेत्रीय, जातीय, भाषायी दंगों
और आंदोलनों की लम्बी फेहरिस्त भी इसके साथ नत्थी है।