Friday, March 26, 2021

चीन को काबू करने की जरूरत

चीन की सिल्करोड परियोजना

हाल में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी कि चीन के पास
दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य-शक्ति है। रक्षा से जुड़ी वैबसाइट मिलिट्री डायरेक्ट के एक अध्ययन के चीन के पास दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य-शक्ति है। इस अध्ययन में चीनी सैन्य-बल को 82 अंक दिए गए हैं। उसके बाद दूसरे स्थान पर अमेरिका को रखा गया है, जिसे इस स्टडी में 74 अंक दिए गए हैं। 69 अंक के साथ रूस तीसरे और 61 अंक के साथ भारत चौथे स्थान पर है।

इस अध्ययन की पद्धति जो भी रही हो और इससे आप सहमत हों या नहीं हों, पर इतना तो मानेंगे कि आकार और नई तकनीक के मामले में चीनी सेना का काफी विस्तार हुआ है। पनडुब्बियों और विमानवाहक पोतों के कारण उसकी नौसेना ब्लू वॉटर नेवी है। उसके पास पाँचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान हैं और एंटी-सैटेलाइट मिसाइलें हैं। साइबर-वॉर के मामले में भी वह बड़ी ताकत है। जितनी ताकत है, उसके अनुपात में चीन शालीन और शांत-प्रवृत्ति का देश नहीं है। चीनी भाषा में चीन को मिडिल किंगडम कहा जाता है। यानी दुनिया का केंद्र।

Thursday, March 25, 2021

चीन को घेरने की वैश्विक रणनीति


पिछला साल कोविड-19 के कारण पूरी दुनिया को परेशान करता रहा। इस दौरान एक बड़े बदलाव की सम्भावना व्यक्त की जा रही थी, जो किस रूप में होगा यह देखने की घड़ी आ रही है। देखना होगा कि क्या यह साल चीनी पराभव की कहानी लिखेगा? खासतौर से ऐसे माहौल में जब चीनी आक्रामकता चरम पर है।

अमेरिका में जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद ज्यादातर लोगों के मन में सवाल था कि चीन के बरक्स अमेरिका की नीति अब क्या होगी? आम धारणा थी कि डोनाल्ड ट्रंप का रुख चीन के प्रति काफी कड़ा था। शायद बाइडेन का रुख उतना कड़ा नहीं होगा। यह धारणा गलत थी। बाइडेन प्रशासन का चीन के प्रति रुख काफी कड़ा है और लगता नहीं कि उसमें नरमी आएगी। कम से कम चार घटनाएं इस बात की ओर इशारा कर रही हैं।

अलास्का-वार्ता से शुरुआत

अलास्का में अमेरिकी और चीनी प्रतिनिधिमंडलों के बीच 18 और 19 मार्च को दो दिन की वार्ता बेहद टकराव के माहौल में हुई। पर्यवेक्षकों का कहना है कि यह बैठक कुछ वैसी रही, जैसी शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ की शुरुआती बैठकें होती थीं। कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ‘पीपुल्स डेली’ ने अपनी खबर में इस वार्ता को लेकर शीर्षक दिया—‘दूसरों को नीचा दिखाने वाली हैसियत से अमेरिका को चीन से बात करने का अधिकार नहीं है।’ चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लीजियन ने कहा, ‘अमेरिकी पक्ष ने चीन की घरेलू तथा विदेश नीतियों पर हमला करके उकसाया। इसे मेजबान की अच्छी तहजीब नहीं माना जाएगा।’

इस वार्ता में चीन का प्रतिनिधित्व विदेशमंत्री वांग यी और कम्युनिस्ट पार्टी के विदेशी मामलों के सेंट्रल कमीशन के निदेशक यांग जिएशी ने किया। अमेरिका की ओर से विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलीवन थे। इस बैठक से ठीक पहले अमेरिका ने हांगकांग और चीन के 24 अधिकारियों के खिलाफ मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए प्रतिबंधों की घोषणा की थी।

क्या ‘क्वाड’ बड़े क्षेत्रीय-सहयोग संगठन के रूप में विकसित होगा?


अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत के शीर्ष-नेताओं की 12 मार्च को हुई वर्चुअल बैठक को बदलते वैश्विक परिदृश्य में महत्वपूर्ण परिघटना के रूप में देखा गया है। क्वाड नाम से चर्चित इस समूह को चीन-विरोधी धुरी के रूप में देखा जा रहा है। खासतौर से भारत की विदेश-नीति को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। क्या अब हमारी विदेश-नीति स्वतंत्र नहीं रह गई है? क्या हम अमेरिकी खेमे में शामिल हो गए हैं? क्या हम अपने दीर्घकालीन मित्र रूस का साथ छोड़ने को तैयार हैं? क्या पश्चिमी देशों की राजनीति नेटो से हटकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर केंद्रित होने वाली है? ऐसा क्यों हो रहा है? इस सिलसिले में सबसे बड़ा सवाल चीन को लेकर है। क्या वह अमेरिका और पश्चिम को परास्त करके दुनिया की सबसे बड़ी ताकत के रूप में स्थापित होने जा रहा है?

चीन ने इस बैठक को लेकर अपनी आशंकाएं व्यक्त की हैं। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने बैठक से ठीक पहले कहा कि देशों के बीच विचार-विमर्श और सहयोग की प्रक्रिया चलती है, लेकिन इसका मकसद आपसी विश्वास और समझदारी बढ़ाने का होना चाहिए, तीसरे पक्ष को निशाना बनाने या उसके हितों को नुकसान पहुंचाने का नहीं। क्वाड की शिखर बैठक में इस बात का पूरा ध्यान रखा गया था कि उसे किसी खास देश के खिलाफ न माना जाए।

इतना ही नहीं, इसे अब सुरक्षा-व्यवस्था की जगह आपसी सहयोग का मंच बनाने की कोशिशें भी हो रही हैं। अब वह केवल सुरक्षा-समूह जैसा नहीं है, बल्कि उसके दायरे में आर्थिक और सामाजिक सहयोग से जुड़े कार्यक्रम भी शामिल हो गए हैं। क्वाड देशों के नेताओं ने शिखर-वार्ता में जिन विषयों पर विचार किया, उनमें वैक्सीन की पहल और अन्य संयुक्त कार्य समूहों के साथ महत्त्वपूर्ण प्रौद्योगिकी और जलवायु परिवर्तन पर सहयोग करना शामिल था।

Wednesday, March 24, 2021

क्या किसान आंदोलन को दलितों का समर्थन मिलेगा?

इस सवाल को भारतीय राजनीति ने गम्भीरता से नहीं लिया कि पंजाब और हरियाणा का किसान आंदोलन बड़ी जोत वाले किसानों (कुलक) के हितों की रक्षा के लिए खड़ा हुआ है या गाँव से जुड़े पूरे खेतिहर समुदाय से, जिनमें खेत-मजदूर भी शामिल हैं? किसान आंदोलन के सहारे वामपंथी विचारधारा उत्तर भारत में अपनी जड़ें जमाने का प्रयास करती नजर आ रही है। लम्बे अरसे तक साम्यवादियों ने किसानों को क्रांतिकारी नहीं माना। चीन के माओ जे दुंग ने उनके सहारे राज-व्यवस्था पर कब्जा किया, जबकि यूरोप में साम्यवादी क्रांति नहीं हुई, जहाँ औद्योगिक-क्रांति हुई थी। बहरहाल साम्यवादी विचारों में बदलाव आया है और भारत की राजनीति में वे अब आमूल बदलाव के बजाय सामाजिक-न्याय और जल, जंगल और जमीन जैसे सवालों पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।

हरियाणा के कैथल से खबर है कि जवाहर पार्क में रविवार को एससी बीसी संयुक्त मोर्चा कैथल द्वारा बहुजन महापंचायत एवं सामाजिक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी ने शिरकत की और लोगों को सम्बोधित किया। गुरनाम चढूनी ने कहा कि ये आंदोलन केवल किसानों का आंदोलन नहीं है। ये आंदोलन किसानों ने शुरू किया है, अब यह जनमानस का आंदोलन है, क्योंकि इन तीन कृषि कानूनों का केवल किसानों को ही नुकसान नहीं है बल्कि देश के हर वर्ग को इन कृषि कानूनों का नुकसान है, क्योंकि पूरे देश का भोजन चंद लोगों के खजाने में जाकर कैद हो जाएगा. उन्होंने कहा कि आज की पंचायत को हमने दलित सम्मेलन के नाम से बुलाया है। अब हम सभी एक साथ मिलकर इस आंदोलन को लड़ेंगे क्योंकि यह देश चंद लोगों के हाथों में बिक रहा है।

Tuesday, March 23, 2021

पाकिस्तान के साथ शांति स्थापना की ठोस वजह


भारत और पाकिस्तान के सम्बन्धों में सुधार की सम्भावनाओं पर कुछ लेख मेरे सामने आए हैं, जिन्हें पढ़ने का सुझाव मैं दूँगा। इनमें पहला लेख है शेखर गुप्ता का, जिन्होंने लिखा है:

पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल कमर अहमद बाजवा ने बीते गुरुवार को इस्लामाबाद सिक्योरिटी डायलॉग में 13 मिनट का जो भाषण दिया, उस पर भारत के जानकार लोगों की पहली प्रतिक्रिया तो उबासी की ही रही होगी। वह बस यही कह रहे हैं कि भारत और पाकिस्तान को अपने अतीत को दफनाकर नई शुरुआत करनी चाहिए, शांति दोनों देशों के लिए जरूरी है ताकि वे अपनी अर्थव्यवस्था पर ध्यान दे सकें वगैरह...वगैरह। हर पाकिस्तानी नेता ने चाहे वह निर्वाचित हो या नहीं, कभी न कभी ऐसा ही कहा है। इसके बाद वे पीछे से वार करते हैं तो इसमें नया क्या है?

म्यूचुअल फंड के विज्ञापनों में आने वाले स्पष्टीकरण से एक पंक्ति को लेकर उसे थोड़ा बदलकर कहें तो यदि अतीत भविष्य के बारे में कोई संकेत देता है तो पाकिस्तान के बारे में बात करना निरर्थक है। बेहतर है कि ज्यादा तादाद में स्नाइपर राइफल खरीदिए और नियंत्रण रेखा पर जमे रहिए। तो यह गतिरोध टूटेगा कैसे?

बमबारी करके उन्हें पाषाण युग में पहुंचाना समस्या का हल नहीं है। करगिल, ऑपरेशन पराक्रम और पुलवामा/बालाकोट के बाद हम यह जान चुके हैं। कड़ा रुख रखने वाले अमेरिकी सुरक्षा राजनयिक रिचर्ड आर्मिटेज जिन्होंने 9/11 के बाद इस धमकी के जरिए पाकिस्तान पर काबू किया था, वह जानते थे कि यह बड़बोलापन है। तब से 20 वर्षों तक अमेरिका ने अफगानिस्तान के बड़े हिस्से को बमबारी कर पाषाण युग में पहुंचा दिया। लेकिन अमेरिका हार कर लौट रहा है। सैन्य, कूटनयिक, राजनीतिक या आर्थिक रूप से कुछ भी ताकत से हासिल नहीं होगा। जैसा कि पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक ने पिछले दिनों मुझसे बातचीत में कहा भी कि आज पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर या अक्साई चिन को सैन्य बल से हासिल करना संभव नहीं है। जहां तक क्षमता का प्रश्न है ऐसा कोई भी प्रयास वैश्विक चिंता पैदा करेगा और बहुत जल्दी युद्ध विराम करना होगा। बहरहाल, ये मेरे शब्द हैं न कि उनके।

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पाकिस्तानी जनरल बाजवा का बयान

दुनियाभर में आतंकवाद पर घिरे और आर्थिक तंगी से जूझ रहे पाकिस्तान के सुर बदलने लगे हैं। इमरान सरकार के बाद अब इस देश की शक्तिशाली सेना ने भी शांति का राग अलापा है। सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा ने कहा कि अतीत को भूलकर भारत और पाकिस्तान आगे बढ़ना चाहिए। उनका कहना है कि दोनों देशों के बीच शांति से क्षेत्र में संपन्नता और खुशहाली आएगी। इतना ही नहीं भारत के लिए मध्य एशिया तक पहुंच आसान हो जाएगा।