जनवरी
2017 में पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था
दी थी कि धर्म, जाति
और भाषा के नाम पर वोट माँगना गैर-कानूनी है। कौन नहीं जानता कि इन आधारों पर
चुनाव लड़ने पर पहले से रोक है। सुप्रीम कोर्ट के 7 सदस्यीय संविधान पीठ ने जन-प्रतिनिधित्व
कानून की धारा 123(3) की व्याख्या भर की थी। इसमें अदालत ने स्पष्ट किया कि
उम्मीदवार के साथ-साथ दूसरे राजनेता, चुनाव एजेंट और धर्मगुरु भी इसके दायरे में आते
हैं। क्या आप भरोसे से कह सकते हैं कि इन संकीर्ण आधारों पर वोट नहीं माँगे जाते
हैं या माँगे जा रहे हैं? चुनावी शोर के इस दौर में आपको क्या कहीं से
चुनाव-सुधारों की आवाज सुनाई पड़ती है? नहीं तो,
क्यों?
जिन दिनों देश सत्रहवीं लोकसभा के
चुनावों से गुजर रहा है सुप्रीम कोर्ट में चुनावी बॉण्डों की वैधता और उपादेयता पर
सुनवाई चल रही है। चुनाव आयोग का कहना है कि ये बॉण्ड काले धन को सफेद करने का एक
और जरिया है। हालांकि कांग्रेस के घोषणापत्र में कहा गया है कि हम जीतकर आए, तो इन
बॉण्डों को खत्म कर देंगे। पर चुनावी ट्रस्ट की व्यवस्था तो कांग्रेस
की ही देन है। चुनावी बॉण्डों के रूप में कम्पनियाँ बजाय नकदी के बैंक से खरीदे गए
बॉण्ड के रूप में चंदा देती हैं। सच यह है कि पिछले 72 साल में सत्ताधारी दलों ने
हमेशा व्यवस्था में छिद्र बनाकर रखे हैं ताकि उन्हें चुनावी चंदा मिलता रहे।