राइजिंग कश्मीर के सम्पादक शुजात बुखारी की
हत्या,जिस रोज हुई, उसी रोज सेना के एक जवान औरंगजेब
खान की हत्या की खबर भी आई थी। इसके दो-तीन दिन पहले से कश्मीर में अचानक हिंसा का
सिलसिला तेज हो गया था। नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी गोलीबारी से बीएसएफ के चार
जवानों की हत्या की खबरें भी इसी दौरान आईं थीं। हिंसा की ये घटनाएं कथित
युद्ध-विराम के दौरान तीन हफ्ते की अपेक्षाकृत शांति के बाद हुई हैं। कौन है इस
हिंसा के पीछे?भारतीय विशेषज्ञों का अनुमान है कि इसमें लश्कर या
हिज्बुल मुजाहिदीन का हाथ है।
Sunday, June 17, 2018
प्रशासन में नए जोश का संचार कैसे?
अस्सी
के दशक में जब राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे, उन्हें एक रोज एक अपरिचित
व्यक्ति का पत्र मिला. वह व्यक्ति अमेरिका की किसी संस्था में वैज्ञानिक था और
उसके पास भारत के आधुनिकीकरण की एक योजना थी. राजीव गांधी ने उसे अपने पास बात के
लिए बुलाया और अपना महत्वपूर्ण सलाहकार बना लिया. सत्यनारायण गंगा राम पांचाल उर्फ
सैम पित्रोदा किस प्रकार एक सामान्य परिवार से वास्ता रखते थे और फिर किस तरह वे
देश की तकनीकी क्रांति के सूत्रधार बने, यह अलग कहानी है, पर उसका एक सबक यह है कि
उत्साही और नवोन्मेषी व्यक्तियों के लिए रास्ते बनाए जाने चाहिए.
हाल
में भारत सरकार ने अखबारों में इश्तहार दिया है कि उसे दस ऐसे उत्कृष्ट व्यक्तियों
की तलाश है, जिन्हें राजस्व, वित्तीय सेवाओं, आर्थिक विषयों, कृषि, सहकारिता एवं कृषक कल्याण, सड़क परिवहन और राजमार्ग, नौवहन, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन, नवीन एवं अक्षय ऊर्जा, नागरिक विमानन और वाणिज्य के क्षेत्रों
में महारत हो, भले
वे निजी क्षेत्र से क्यों न हों. इन्हें सरकार के संयुक्त सचिव के समतुल्य पद पर
नियुक्त किया जाएगा. यह एक प्रयोग है, जिसे लेकर दो तरह की प्रतिक्रियाएं सामने
आईं हैं.
Saturday, June 16, 2018
दिल्ली में ‘धरना बनाम धरना’
दिल्ली सचिवालय की इमारत में एक बड़ा सा बैनर लहरा रहा है, ‘यहाँ कोई हड़ताल नहीं है, दिल्ली के लोग ड्यूटी पर हैं,
दिल्ली का सीएम छुट्टी पर है।’
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कहना है कि बीजेपी ने सचिवालय पर कब्जा कर लिया
है। उप-राज्यपाल के दफ्तर में दिल्ली की कैबिनेट यानी पूरी सरकार धरने पर बैठी है।
उधर मुख्यमंत्री के दफ्तर पर बीजेपी का धरना चल रहा है। आम आदमी पार्टी ने
प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से मिलने का समय माँगा है। उत्तर प्रदेश के पूर्व
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, तमिलनाडु के फिल्म कलाकार कमलहासन, आरजेडी के तेजस्वी
यादव, सीपीएम के सीताराम येचुरी और इतिहास लेखक रामचंद्र गुहा ‘आप’ के
समर्थन में आगे आए हैं। दोनों तरफ से युद्ध के नगाड़े बज रहे हैं।
Thursday, June 14, 2018
लम्बी चुप्पी के बाद ‘आप’ के तेवर तीखे क्यों?
एक अरसे की चुप्पी के बाद आम आदमी पार्टी ने अपनी
राजनीति का रुख फिर से आंदोलन की दिशा में मोड़ा है. इस बार निशाने पर दिल्ली के
उप-राज्यपाल अनिल बैजल हैं. वास्तव में यह केंद्र सरकार से मोर्चाबंदी है.
पार्टी की पुरानी राजनीति नई पैकिंग में नमूदार है. पार्टी
को चुनाव की खुशबू आने लगा है और उसे लगता है कि पिछले एक साल की चुप्पी से उसकी
प्रासंगिकता कम होने लगी है.
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल समेत पार्टी के कुछ बड़े
नेताओं के धरने के साथ ही सत्येंद्र जैन का आमरण अनशन शुरू हो चुका है. हो सकता है
कि यह आंदोलन अगले कुछ दिनों में नई शक्ल है.
चुप्पी हानिकारक है
सन 2015 में जबरदस्त बहुमत से जीतकर आई आम आदमी सरकार
और उसके नेता अरविंद केजरीवाल ने पहले दो साल नरेंद्र मोदी के खिलाफ जमकर मोर्चा
खोला. फिर उन्होंने चुप्पी साध ली. शायद इस चुप्पी को पार्टी के लिए ‘हानिकारक’ समझा जा रहा है.
आम आदमी पार्टी की रणनीति, राजनीति और विचारधारा के केंद्र में
आंदोलन होता है. आंदोलन उसकी पहचान है. मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल जनवरी
2014 में भी धरने पर बैठ चुके हैं. पिछले कुछ समय की खामोशी और ‘माफी
प्रकरण’ से लग रहा था कि
उनकी रणनीति बदली है.
केंद्र की दमन नीति
इसमें दो राय नहीं कि केंद्र सरकार ने ‘आप’ को प्रताड़ित करने का कोई मौका नहीं खोया. पार्टी के
विधायकों की बात-बे-बात गिरफ्तारियों का सिलसिला चला. लाभ के पद को लेकर बीस
विधायकों की सदस्यता खत्म होने में प्रकारांतर से केंद्र की भूमिका भी थी.
‘आप’ का आरोप है कि
केंद्र सरकार सरकारी अफसरों में बगावत की भावना भड़का रही है. संभव है कि अफसरों
के रोष का लाभ केंद्र सरकार उठाना चाहती हो, पर गत 19 फरवरी
को मुख्य सचिव अंशु प्रकाश के साथ जो हुआ, उसे देखते हुए
अफसरों की नाराजगी को गैर-वाजिब कैसे कहेंगे?
Sunday, June 10, 2018
नागपुर में किसे, क्या मिला?
लालकृष्ण आडवाणी इसे अपने नज़रिए से देखते हैं, पर उनकी इस बात से सहमति व्यक्त की जा सकती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मंच से पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का भाषण ऐतिहासिक था। एक अरसे से देश में राष्ट्रवाद, देशभक्ति और विविधता में एकता की बातें हो रहीं हैं, पर किसी एक मंच से दो अंतर्विरोधी-दृष्टिकोणों का इतने सहज-भाव से आमना-सामना नहीं हुआ होगा। इन भाषणों में नई बातें नहीं थीं, और न ऐसी कोई जटिल बात थी, जो लोगों को समझ में नहीं आती हो। प्रणब मुखर्जी और सरसंघचालक मोहन भागवत के वक्तव्यों को गहराई से पढ़ने पर उनका भेद भी समझा जा सकता है, पर इस भेद की कटुता नजर नहीं आती। सवाल यह है कि इस चर्चा से हम क्या निष्कर्ष निकालें? क्या संघ की तरफ से अपने विचार को प्रसारित करने की यह कोशिश है? या प्रणब मुखर्जी के मन में कोई राजनीतिक भूमिका निभाने की इच्छा है?
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