हालांकि हम प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के खतरों के बारे में एक
अरसे से बहस करते रहे हैं, पर उत्तराखंड के हादसे ने पहली बार इतनी गम्भीरता से इस
सवाल को उठाया है। और उतनी ही गम्भीरता से इस बात को रेखांकित किया है कि व्यवस्था
ऐसे हादसों का सामना करने को तैयार नहीं है।
इस साल मॉनसून समय से काफी पहले आ गया
है। मॉनसून आने के ठीक पहले महाराष्ट्र सहित देश के कुछ हिस्से सूखे का सामना कर रहे
थे। अचानक पता लगा है कि भारतीय उप महाद्वीप में औसत तापमान चार डिग्री बढ़ गया है।
ये बातें इशारा कर रहीं हैं कि अपने आर्थिक विकास और प्राकृतिक संतुलन पर गम्भीरता
सेविचार करें।
उत्तराखंड का हादसा क्या केवल अतिवृष्टि के कारण हुआ? अतिवृष्टि तो पहले भी होती रही है। और भविष्य में भी होगी। अतिवृष्टि
ने मौसम के बदलाव की ओर संकेत किया है तो भारी संख्या में मौतों ने आपदा प्रबंधन की
पोल खोली है। हादसे में मरने वालों की संख्या अभी तक बताई जा रही आधिकारिक संख्या से
कहीं ज्यादा और कई गुना ज्यादा है। इसका दुष्प्रभाव सारे अनुमानों से ज्यादा भयावह
है।
मदद करने वाली एजेंसियों और सरकार ने इसकी शिद्द्त को समझने में देर की। फिर भी
जल्दबाज़ी में निष्कर्ष निकालने के बजाय हमें उन बातों पर ध्यान देने की कोशिश करनी
चाहिए जो इसके पीछे हो सकती हैं। साथ ही उन कदमों पर विचार करना चाहिए जो उठाए जाने
चाहिए।