अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद अचानक विवादों की झड़ी लग गई है। एक के बाद एक मामले सामने आ रहे हैं। व्यक्ति को पहले बदनाम करने और फिर उसे किनारे लगाने की रणनीति काम करती है। यह स्वाभाविक है। व्यवस्था के साथ तमाम लोगों के हित जुड़े हैं। वे आसानी से हार नहीं मानते। फिर हम जिन्हें अच्छा मानकर चल रहे हैं, उनके बारे में भी पूरी जानकारी मिले तो गलत क्या है। पर हम एक बदलाव को नहीं पकड़ पा रहे हैं। कम्युनिकेशन के नए रास्तों ने एक नया माहौल बनाया है। परम्परागत राजनीति भी इसे ठीक से पढ़ नहीं पाई है। सिविल सोसायटी होती है या नहीं? होती है तो कितनी प्रभावशाली होती है? ऐसे सवालों के जवाबों से हमें नई वास्तविकताओं का पता लगेगा।
Saturday, April 23, 2011
Monday, April 18, 2011
एक अन्ना क्या करेगा
देश के सारे रोगों का वन शॉट इलाज सम्भव नहीं फिर भी
जन-भागीदारी है अमृतधारा
आयुर्वेदिक औषधि अमृतधारा एक साथ कई तकलीफों का इलाज करती है। सिर दर्द, पेट-दर्द, कमर दर्द, सर्दी-जुकाम, खारिश-खुजली जैसी तमाम परेशानियों का हल यह एक औषधि है। वास्तव में आपतकाल में यह काम आती है। दवाओं के लिए हमारे पास एक परम्परागत रूपक है रामबाण का। रामबाण यानी दवा लगी और तकलीफ सिरे से गायब। हमारा समाज चमत्कारों में यकीन करता है। हमें लगता है कि आस्था हो तो संतों के हाथ फेरने मात्र से रोग गायब हो जाते हैं। शरीर के रोगों के साथ यह बात सच हो पर जीवन, समाज, राजनीति और राज-काज में भी हमें किसी अमृतधारा की खोज रहती है, जो सारे रोगों का वन शॉट सॉल्यूशन हो। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के अध्यक्ष प्रताप भानु मेहता ने हाल में लिखा है कि देश की सारे रोगों का ‘वन शॉट इलाज’ खोजना अपने आप में एक रोग है। हमें पहले समस्या के हर पहलू को समझना चाहिए। फिर यह देखना चाहिए कि हम चाहते क्या हैं। मर्ज क्या है, कहाँ है, लक्षण क्या हैं, रोग कहाँ है वगैरह।
Saturday, April 16, 2011
राजनीति और सुराज के द्वंद
अन्ना हजारे के समानांतर देश में दो और गतिविधियाँ चल रहीं हैं, जिनका हमारे लोकतंत्र से वास्ता है। एक है पाँच राज्यों में विधानसभा के चुनाव और दूसरे टू-जी, सीडब्ल्यूजी और आदर्श सोसायटी जैसे मामलों कर कानूनी कारवाई। देश में लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था को लेकर कई कोणों से सवाल उठे हैं। अन्ना हजारे ने राजनैतिक प्रतिष्ठान पर हमला करके बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। अन्ना ने कहा कि लोग सौ के नोट, साड़ी और दारू की एक बोतल पर वोट देते हैं। मैं नहीं लड़ पाऊँगा चुनाव। इसपर दिग्विजय सिंह ने सवाल पूछा है कि क्या सारे वोटर बेईमान हैं? संयोग है कि विकीलीक्स के सौजन्य से इन्हीं दिनों संसदीय कैश फॉर वोट का मसला भी उठा है। तमिलनाडु के चुनाव में पार्टियों ने जनता को टीवी, मिक्सर-ग्राइंडर, वॉशिंग मशीन से लेकर मंगलसूत्र तक देने का वादा किया है। एक ओर सिविल सोसायटी बनाम राजनीति का शोर है, दूसरी ओर ‘सब भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे’ पुराण का अखंड पाठ चल रहा है, हम सब चोर हैं के सम्पुट के साथ। देश का मस्त-मीडिया विश्व कप क्रिकेट, मोमबत्तियाँ सुलगाती सिविल सोसायटी और आईपीएल को एक साथ निपटा रहा है।
Friday, April 15, 2011
कांग्रेस और भगत सिंह
कांग्रेस संदेश के मुखपत्र कांग्रेस संदेश के मार्च अंक में भगत सिंह और राजगुरु की जातीय पृष्ठभूमि का उल्लेख किए जाने पर अनेक लोगों ने विरोध व्यक्त किया है। श्री गिरिजेश कुमार ने जो विचार व्यक्त किए हैं, यहाँ पेश हैं।
ये शहीदों का अपमान है
जिन्होंने अपना जीवन, अंग्रेजी साम्राज्य से मुक्ति के लिए देश को समर्पित कर दिया उन्हें जाति जैसी संकीर्ण सोच की मानसिकता में बांधना कहाँ तक उचित है? वह भी उस राजनीतिक पार्टी के द्वारा जो राष्ट्रीय पटल पर देश का नेतृत्व कर रही है, या यों कहें कि जिसकी सरकार केन्द्र में है| भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे देश के महानायकों की जाति का उल्लेख कर कांग्रेस ने अपना असली चेहरा उजागर कर दिया है| हालाँकि देश में एक के बाद एक भ्रष्टाचार के तमाम मामले उजागर होने के बाद लोगों का विश्वास केन्द्र सरकार और कांग्रेस से पहले ही उठ चुका था लेकिन इस घृणित कदम के बाद रही सही कसर भी समाप्त हो गयी| सवाल है जब देश का नेतृत्व करने वाली राजनीतिक पार्टी देश के लिए शहीद हुए शहीदों का अपमान करती है तो फिर आम आदमी से क्या अपेक्षा की जाए?
दरअसल कांग्रेस यह भूल गयी कि जिस आजाद भारत की दुहाई देकर वह आज शासन सत्ता का सुख भोग रही है उसकी बुनियाद, भगत सिंह जैसे कई शहीदों के खून से लिखी गई है| ये लोग किसी जाति, धर्म या संप्रदाय से सम्बन्ध नहीं रखते थे, इनकी जाति मानवता थी और इंसानियत धर्म| इन्होने कागज के चन्द टुकड़ों के लिए अपने ईमान को नहीं बेचा| लालच के समंदर में फँसकर निजीहित के लिए देशहित की बलि चढ़ाने वाली कांग्रेस पार्टी और उसके करता धर्ता को भगत सिंह जैसे महानायकों पर जाति का ठप्पा लगाने का अधिकार किसने दिया?
Monday, April 11, 2011
हमें भी मध्य-वर्गीय क्रांति चाहिए
शहरी नखलिस्तान नहीं, खुशहाल हिन्दुस्तान
अन्ना हजारे के आंदोलन को इतनी सफलता मिलेगी, इसकी कल्पना बहुत से लोगों ने नहीं की थी। इतिहास की विडंबना है कि कई बार पूर्वानुमान गलत साबित होते हैं। जयप्रकाश नारायण के 1974 के आंदोलन के डेढ़-दो साल पहले लखनऊ के अमीनाबाद में गंगा प्रसाद मेमोरियल हॉल में जेपी की एक सभा थी, जिसमें पचासेक लोग भी नहीं थे। और आंदोलन जब चरम पर था, तब लखनऊ विश्वविद्यालय के कला संकाय के बराबर वाले बड़े मैदान में हुई सभा में अपार भीड़ थी। जंतर-मंतर के पास हुई रैली के कुछ महीने पहले इसी तरह की रैली, इसी माँग को लेकर हुई थी। उसका नेतृत्व अन्ना हजारे नहीं कर रहे थे। उस रैली का सीधा प्रसारण मीडिया ने नहीं किया। केवल एक धार्मिक चैनल पर उसका प्रसारण हुआ। अन्ना हजारे और युवा वर्ग की जबर्दस्त भागीदारी से बात बदल गई। हालांकि मसला करीब-करीब वही था।
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