Tuesday, March 1, 2011

बजट के अखबार

बज़ट का दिन मीडिया को खेलने का मौका देता है और अपनी समझदारी साबित करने का अवसर भी। आज के   अखबारों को देखें तो दोनों प्रवृत्तियाँ देखने को मिलेंगी। बेहतर संचार के लिए ज़रूरी है कि जटिल बातों को समझाने के लिए आसान रूपकों और रूपांकन की मदद ली जाए। कुछ साल पहले इकोनॉमिक टाइम्स ने डिजाइन और रूपकों का सहारा लेना शुरू किया था. उनकी देखा-देखी तमाम अखबार इस दौड़ में कूद पड़े। हालांकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास तमाम साधन हैं, पर वहाँ भी खेल पर जोर ज्यादा है बात को समझाने पर कम। अंग्रेजी के चैनल सेलेब्रिटी टाइप के लोगों और राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों को मंच देते हुए ज्यादा नज़र आते हैं, दर्शक  को यह कम बताते हैं कि बजट का मतलब क्या है। टाइम्स ऑफ इंडिया की परम्परा बजट को बेहतर ढंग से कवर करने की है। 


एक ज़माने में हिन्दी अखबार का लोकप्रिय शीर्षक होता था 'अमीरों को पालकी, गरीबों को झुनझुना'। सामान्य व्यक्ति यही सुनना चाहता है। अंग्रेजी अखबार पढ़ने वालों की समझदारी का स्तर बेहतर है। साथ ही वे व्यवस्था से ज्यादा जुड़े हैं। उनके लिए लिखने वाले बेहतर होम वर्क के साथ काम करते हैं। दोनों मीडिया में विसंगतियाँ हैं। 

Thursday, February 24, 2011

भारत के टाइम्स की खबर छापी मर्डोक के संडे टाइम्स ने

भारत की पेड न्यूज़ धोखाधड़ी (India's dodgy 'paid news' phenomenon) शीर्षक से लंदन के प्रतिष्ठित अखबार गार्डियन के लेखक रॉय ग्रीनस्लेड ने अपने व्लॉग में टाइम्स ऑफ इंडिया के पेड न्यूज़ प्रकरण को उठाया है। उन्होंने संडे टाइम्स में प्रकाशित एक रपट के आधार पर यह लिखा है, यह याद दिलाते हुए कि भारत सरकार ने पेड न्यूज़ की भर्त्सना की है। पिछले साल प्रेस काउंसिल ने इस मामले की जाँच भी की थी, जिसकी रपट काफी काट-छाँट कर जारी की गई थी। 


बावजूद इसके टाइम्स ऑफ इंडिया में रकम लेकर मन पसंद सम्पादकीय सामग्री का प्रकाशन सम्भव है। पेड न्यूज़ की परिभाषा बड़ी व्यापक है। इसमें गिफ्ट लेने से लेकर मीडिया हाउस और कम्पनियों के बीच प्रचार समझौते भी शामिल हैं। यह समझौते शेयर ट्रांसफर के रूप में होते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में प्रत्याशियों की मन पसंद पब्लिसिटी के बदले अखबारों ने पैसा लिया, ऐसी शिकायतें थीं।

Wednesday, February 23, 2011

बीबीसी हिन्दी रेडियो को बचाने की अपील


बीबीसी की हिन्दी सेवा को बचाने के प्रयास कई तरफ से हो रहे हैं। एक ताज़ा प्रयास है लंदन के अखबार गार्डियन में छपा पत्र जिसपर भारत के कुछ प्रतिष्ठित नागरिकों के हस्ताक्षर हैं। बीबीसी की हिन्दी सेवा को देश के गाँवों तक में सुना जाता है। तमाम महत्वपूर्ण अवसरों पर यह सेवा हमारी जनता की खबरों का स्रोत बनी। इसकी हमें हमेशा ज़रूरत रहेगी।

लड़कियों की मदद करें



गिरिजेश कुमार ने इस बार लड़कियों के विकास और उनके सामने खड़ी समस्याओं को उठाया है। मेरे विचार से भारतीय समाज में सबसा बड़ा बदलाव स्रियों से जुड़ा है। यह अभी जारी । दो दशक पहले के और आज के दौर की तुलना करें तो आप काफी बड़ा बदलाव पाएंगे। लड़कियाँ जीवन के तकरीबन हर क्षेत्र में आगे आ रहीं हैं। शिक्षा और रोजगार में जैसे-जैसे इनकी भागीदारी बढ़ेगी वैसे-वैसे हमें बेहतर परिणाम मिलेंगे। बावजूद इसके पिछले नवम्बर में जारी यूएनडीपी की मानव विकास रपट के अनुसार महिलाओं के विकास के मामले में भारत की स्थित बांग्लादेश और पाकिस्तान से पीछे की है। हम अफ्रीका के देशों से भी पीछे हैं। इसका मतलब यह कि हम ग्रामीण भारत तक बदलाव नहीं पहुँचा पाए हैं। बदलाव के लिए हमें अपने सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक सोच में बदलाव भी करना होगा। 

आधुनिकता की इस दौड में कहाँ हैं लड़कियां?
गिरिजेश कुमार
आज के इस वैज्ञानिक युग में जहाँ हम खुद को चाँद पर देख रहे हैं वहीँ इस 21 वीं शताब्दी की कड़वी सच्चाई यह भी है कि हमारे  देश में  लडकियों के साथ दोहरा व्यवहार किया जाता है | आखिर हम किस युग में जी रहे हैंआधुनिकता की चादर ओढ़े इस देश में आधुनिकता कम फूहड़ता ज्यादा दिखती है किस आधुनिकता  की दुहाई देते हैं हम जब देश की आधी आबादी इससे वंचित है?

Tuesday, February 22, 2011

ऊपर से आने का, नीचे दबाने का...पेप्सी आहा

पेप्सी का यह कैम्पेन खासा लोकप्रिय हो रहा है। आपको यह कैसा लगा? फूहड़, रोचक , रचनात्मक या कुछ और? इसके लोकप्रिय होने की कोई वजह होगी। क्या है वह वजह? बेहतर हो कि हम लोकप्रियता की संस्कृति और उसके सामाजिक संदर्भों पर भी बात करें। इसकी भर्त्सना करना आसान है, पर क्या हम इसकी उपेक्षा कर सकते हैं? 

पेप्सी का कैम्पेन चेंज द गेम।

ऊपर से आने का

नीचे दबाने का

पीछे उठाने का हा..

हा...हा...हा