Thursday, May 2, 2019

ताकत यानी पावर का नाम है राजनीति!

समय के साथ राजनीति में आ रहे बदलावों पर क्या आपने ध्यान दिया है? कुछ साल पहले सायास और अनायास मुझे कुछ ऐसे लोगों से मिलने का मौका लगा, जो ऊँचे खानदानों से वास्ता रखते हैं और राजनीति में आना चाहते हैं। उन्होंने जो रास्ता चुना, वह जनता के बीच जाने का नहीं है। उनका रास्ता पार्टी-प्रवक्ता के रूप में उभरने का है। उन्हें मेरी मदद की दो तरह से दरकार थी। एक, राजनीतिक-सामाजिक मसलों की पृष्ठभूमि को समझना और दूसरे मुहावरेदार हिन्दी बोलने-बरतने में मदद करना। सिनेमा के बाद शायद टीवी दूसरा ऐसा मुकाम है, जहाँ हिन्दी की बदौलत सफलता का दरवाजा खुलता है।

पिछले एक दशक में राजनीतिक दलों के प्रवक्ता बनने का काम बड़े कारोबार के रूप में विकसित हुआ है। पार्टियों के भीतर इस काम के लिए कतारें हैं। मेरे विस्मय की बात सिर्फ इतनी थी कि मेरा जिनसे भी सम्पर्क हुआ, उन्हें अपने रसूख पर पूरा यकीन था कि वे प्रवक्ता बन जाएंगे, बस उन्हें होमवर्क करना था। वे बने भी। इससे आप राजनीतिक दलों की संरचना का अनुमान लगा सकते हैं। सम्बित महापात्रा का उदाहरण आपके सामने है। कुछ साल पहले तक आपने इनका नाम भी नहीं सुना था।



सम्बित पात्रा की धुआँधार वाक-प्रतिभा के जवाब में 2015 में कांग्रेस पार्टी ने प्रवक्ताओं और ‘मीडिया पैनलिस्ट’ की एक लम्बी सूची जारी की। इसमें भारी संख्या में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बाल-बच्चे शामिल थे। पार्टी ने 17 प्रवक्ता और 4 सीनियर प्रवक्ताओं के अलावा 31 लोगों को मीडिया और टीवी चैनलों के पैनल में कोऑर्डिनेट करने की जिम्मेदारी रणदीप सुरजेवाला को जन-सम्पर्क विभाग का प्रमुख बनाया गया। इस सूची में तबसे काफी बदलाव हो चुका है, पर जो भी नए प्रवक्ता आ रहे हैं, उनके आर्थिक वर्ग पर गौर करें।

यह किसी एक पार्टी की बात नहीं है। प्रियंका चतुर्वेदी कुछ समय पहले ही अपना काम छोड़कर राजनीति के मैदान में आईं थीं। कांग्रेस से अनबन होने के बाद उन्हें शिवसेना ने फौरन अपने साथ जोड़ा। पार्टियों को हिन्दी और अंग्रेजी में धुआँधार तेजी से आक्रामक शैली में बातें रखने वालों की जरूरत है। टेलीविजन ने एक स्पेस तैयार किया है। पिछले कुछ महीनों के भीतर कितने नए प्रवक्ता सामने आए हैं? ज्यादातर युवा और ‘वैल कनेक्टेड’ शहरी हैं।

हमारी राजनीति पर गरीबी और समाजवाद का पानी चढ़ा है, पर पकड़ किसी और तबके की है। अब प्रत्याशी टिकट पाने के लिए करोड़ों रुपये खर्च करने लगे हैं। आप गरीब हैं, तो चुनाव लड़ भी नहीं सकते। सन 2013 में समाचार एजेंसियों की खबर थी कि राज्य सभा के एक सदस्य ने कहा था, “...मुझे एक व्यक्ति ने बताया कि राज्य सभा की सीट 100 करोड़ रुपए में मिलती है।” बाद में उन्होंने इस बात को घुमा दिया, पर क्या यह बात पूरी तरह गलत थी?

लोकसभा चुनाव के अभी चार दौर पूरे हुए हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने अब तक के 5381 नामांकनों के साथ दाखिल किए गए हलफनामों के आधार पर गणना की है कि इनमें से 1523 यानी 28 प्रतिशत प्रत्याशी करोड़पति हैं। चुनाव पूरा होने पर पता लगेगा कि कुल कितने करोड़पति प्रत्याशी मैदान में उतरे। फिर जीतने वाले करोड़पतियों की संख्या सामने आएगी। उसके पाँच साल बाद उनकी समृद्धि के संकेत मिलेंगे।

पिछले लोकसभा चुनाव में चुने गए 543 सदस्यों में से 442 करोड़पति नेता थे। इनमें सबसे अमीर नेता के पास 683 करोड़ रुपए से ज्यादा की संपत्ति थी। बात नेताओं की अमीरी की नहीं है, बल्कि बात यह है कि धीरे-धीरे राजनीति पर अमीरों और कुछ चुनींदा घरानों का कब्जा होता जा रहा है। वंशवाद नहीं, यह शुद्ध अमीरवाद है। राजनीतिक पाखंड आज के नहीं हैं, बल्कि इनकी पुरानी परम्परा है। स्वतंत्रता से पहले की। उसका विस्तार हुआ है और बेशर्मी को वैधता मिली है।

यशपाल के ‘झूठा-सच’ और नागार्जुन के उपन्यासों में ऐसे तमाम पात्र और परिस्थितियाँ मिलेंगी, जिनसे राष्ट्रीय आंदोलन के पाखंड पर भी रोशनी पड़ती है। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी पेंशन मिली, पद्म पुरस्कार भी। पर उनमें बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी थे, जो वास्तव में संजीदगी के साथ आंदोलन से जुड़े थे। पर राजनीति क्रमशः एलीटिस्ट होती गई है और नारे जनोन्मुखी। यह उसका पाखंड है। सन 1952 में बनी पहली संसद के अनेक सदस्य साइकिलों पर चलते थे। केवल सांसद ही नहीं हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज भी साइकिल से चलते थे।

साठ के दशक तक राज्य सरकारों के मंत्री तक रिक्शों पर बैठे नजर आ जाते थे। धीरे-धीरे इस साइकिल ने प्रतीक रूप धारण किया। नब्बे के दशक में जब मुलायम सिंह ने साइकिल का चुनाव चिह्न तय किया, तो उसके पीछे प्रतीकात्मकता थी। सन 2012 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने अपनी साइकिल रैलियों के मार्फत ही जनता से संवाद किया था। बताते हैं कि उनकी साइकिल मर्सिडीज़ ब्रांड थी। शायद उसकी कीमत लाखों रुपये की थी।

इतने बड़े राजनेता से हमें कृत्रिम सादगी की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। अलबत्ता कुछ दशक पहले तक इस राजनीति में कुछ गरीबों को भी जगह मिल जाती थी, अब वह जगह कम होती जा रही है। सत्तर के उत्तरार्ध में जब राम नरेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो उनके और उनके परिवार की सादगी के बारे सुनकर अच्छा लगता था। उस दौर में जमीन से बहुत से नेता सामने आए।

वह भारतीय राजनीति का संधिकाल था। नेताओं की एक पीढ़ी समृद्धि के द्वार को पार कर चुकी थी। वामपंथी दलों में भी जनता से जुड़े कार्यकर्ताओं और समृद्ध नेताओं के बीच का अंतर नजर आता था। बहरहाल कर्पूरी ठाकुर, वीर बहादुर सिंह, मुलायम सिंह, लालू यादव, कांशीराम जैसे तमाम राजनेता नीचे से उठकर ऊपर आए। अस्सी और नब्बे के दशक ने राजनेताओं की एक नई पीढ़ी को जगह दी। क्या वह रिक्रूटमेंट अब भी जारी है? ऐसा होता, तो नए नेता इन्हीं परिवारों से क्यों आते? मुलायम सिंह, लालू यादव, मायावती, ममता बनर्जी के संघर्षों से इनकार नहीं किया जा सकता, पर प्रगति की लहर इन परिवारों पर आकर रुक क्यों गई? हाल में एक वैबसाइट ने 20 राज्यों के 34 प्रमुख राजनीतिक राजवंशों पर एक विश्लेषण पेश किया, जहाँ एक परिवार के कम से कम तीन सदस्य सक्रिय राजनीति में हैं।

जब कोई व्यक्ति किसी कारोबार में उतरता है, तो उसकी संतानें स्वाभाविक रूप से उसी कारोबार को अपनाती हैं। इस लिहाज से वंशवाद और परिवारवाद को कोसना गलत है। पर यह परिवार-परम्परा नहीं, एक अलग ताकतवर आर्थिक वर्ग की रचना है। राजनीति अब पावर है। ताकत का एक नाम है। इसकी महत्ता को देखते हुए सम्पन्न परिवारों के लोग राजनीति की तरफ आ रहे हैं। इसमें प्रवेश के तीन-चार रास्ते हैं। स्वाभाविक रूप से पहला है राजनीतिक खानदान। इसके बाद बिजनेस खानदान। राज्यसभा चुनावों में आप उनकी ताकत देखते हैं। फिर हैं फिल्मी कलाकार और स्टार-खिलाड़ी। ये खूबसूरत मुखौटे हैं। और हैं अपराधी-माफिया परिवार। यह वह तबका है, जिसके पास चुनाव जिताने की ताकत है। उनकी जरूरत सबको है।






2 comments:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 2400वीं बुलेटिन - स्व. सत्यजीत रे जी 98वीं जयंती में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  2. बिल्कुल सही और सार्थक पोस्ट।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
    iwillrocknow.com

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