Sunday, April 14, 2019

धन-बल के सीखचों में कैद लोकतंत्र


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शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि चुनावी बॉण्डों पर स्थगनादेश जारी नहीं किया है, पर राजनीतिक चंदे के बारे में महत्वपूर्ण आदेश सुनाया है। अदालत ने राजनीतिक दलों से कहा है कि वे चुनावी बॉण्ड के जरिए मिली रकम का ब्यौरा चुनाव आयोग के पास सीलबंद लिफाफे में जमा कराएं। इस ब्यौरे में दानदाताओं, रकम और उनके बैंक खातों का विवरण भी दिया जाए। यह ब्यौरा 30 मई तक जमा कराना होगा। वस्तुतः अदालत इससे जुड़े व्यापक मामलों पर विचार करके कोई ऐसा फैसला करना चाहती है, जिससे पारदर्शिता कायम हो।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने अदालत में चुनावी बॉण्ड योजना पर रोक लगाने की गुहार लगाई है। इस योजना को केंद्र सरकार ने पिछले साल जनवरी में अधिसूचित किया था। चुनाव आयोग ने अधिसूचना जारी होने के पहले से ही इसका विरोध किया था। विरोध की वजह है दानदाताओं की गोपनीयता। हमारे विधि आयोग ने चुनाव सुधार से जुड़ी अपनी 255वीं रिपोर्ट में कहा था कि राजनीति में धन के इस्तेमाल के साथ जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण चीज है सार्वजनिक जानकारी। जन प्रतिनिधित्व कानून, आयकर कानून, कम्पनी कानून और दूसरे सभी कानूनों के तहत बुनियादी बातों का पता सबको होना चाहिए।


हमारा लोकतंत्र धीरे-धीरे धन-बल और आपराधिक शक्तियों के चंगुल में फँसता जा रहा है। चुनावी बॉण्ड स्कीम में दानदाताओं के नाम गोपनीय रखने की व्यवस्था उचित नहीं है। चुनाव आयोग का कहना है कि ये बॉण्ड काले धन को सफेद करने का एक और जरिया है। हमारे चुनाव-तंत्र में कई तरह के छिद्र हैं। दूसरी तरफ चुनाव-सुधार राजनीतिक दलों के एजेंडा में नहीं हैं। ज्यादातर सुधार चुनाव आयोग और स्वयंसेवी समूहों की पहल पर हुए हैं या सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से। मतदाता पहचान पत्र बनाने और प्रत्याशियों के हलफनामे की व्यवस्था इसके उदाहरण हैं।

हलफनामे की व्यवस्था लागू तभी हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की पहल को समर्थन दिया। सन 2002 में जब चुनाव आयोग ने हलफनामों की व्यवस्था की तो सरकार ने उसे अध्यादेश जारी करके रोक दिया। इसके बाद 13 मार्च 2003 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह व्यवस्था लागू हो पाई। कम से कम तीन ऐसे मामले हैं, जिनसे पार्टियाँ बचती हैं। चुनावी चंदे की पारदर्शिता, दागी प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने पर रोक और गलत हलफनामे पर कार्रवाई।

चुनाव में काले धन का जमकर इस्तेमाल होता है। यह काला धन राजनीतिक दलों को कहाँ से और क्यों मिलता है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। सन 2013 में छह राष्ट्रीय दलों को आरटीआई के दायरे में लाने की कोशिश को पार्टियों ने पसंद नहीं किया। वह कोशिश आज तक सफल नहीं हो पाई है। 1990 में गोस्वामी समिति, 1993 में वोहरा समिति, सन 1998 में चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग पर विचार के लिए इन्द्रजीत गुप्त समिति, 1999 में चुनाव सुधार पर विधि आयोग की रपट, सन 2001 में संविधान पुनरीक्षा आयोग की सिफारिशों, सन 2004 में चुनाव आयोग के प्रस्ताव और सन 2007 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को और 2015 में विधि आयोग की 255 वीं रिपोर्ट को एक साथ रखकर पढ़ें तो समझ में आता है कि पूरी व्यवस्था को रफू करने की जरूरत है।

भारतीय आम चुनाव दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है। यह गतिविधि काले धन से चलती है। काले धन की विशाल गठरियाँ इस मौके पर खुलती हैं। चंदा लेने की व्यवस्था काले पर्दों से ढकी हुई है। लोकसभा के एक चुनाव में 543 सीटों के लिए करीब आठ हजार प्रत्याशी खड़े होते लड़ते हैं। तीस से पचास हजार करोड़ रुपए की धनराशि प्रचार पर खर्च होती है। शायद इससे भी ज्यादा। राजनीतिक दलों का खर्च अलग है। जो पैसा चुनाव के दौरान खर्च होता है, उसमें काफी बड़ा हिस्सा काले धन के रूप में होता है। यह सोचने की जरूरत है कि यह काला धन कहाँ से और क्यों आता है

ज्यादातर प्रत्याशी अपने चुनाव खर्च को कम करके दिखाते हैं। चुनाव आयोग के सामने दिए गए खर्च के ब्यौरों को देखें तो पता लगता है कि किसी प्रत्याशी ने खर्च की तय सीमा पार नहीं की। जबकि अनुमान है कि सीमा से आठ-दस गुना तक ज्यादा खर्च होता है। जिस काम की शुरूआत ही गोपनीयता, झूठ और छद्म से हो वह आगे जाकर कैसा होगा? इसी छद्म-प्रतियोगिता में जीतकर आए जन-प्रतिनिधि कानून बनाते हैं। चुनाव-सुधार से जुड़े कानून भी उन्हें ही बनाने हैं।  

राजनीतिक दलों को इनकम टैक्स से पूरी तरह छूट है। उन्हें केवल 20 हज़ार रुपये से अधिक के चंदे की जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है। 2016 में जब नोटबंदी हुई, तब लगा था कि राजनीतिक दलों के पास जमा काला धन बर्बाद हो जाएगा। ऐसा हुआ नहीं, और उन्होंने सब कुछ ठीक कर लिया। सच यह है राजनीतिक दलों के एजेंडा में पारदर्शिता की कोई भूमिका नहीं है।

इन दिनों चुनाव आयोग और आयकर विभाग के छापों में बड़ी मात्रा में नकदी पकड़ी जा रही है। चुनाव आयोग की विशेष टीम ने अब तक जो नकदी और शराब जब्त की है, उसकी कीमत करीब दो हजार करोड़ रुपये बताई जा रही है। इसमें नकदी और सोने के रूप में ही करीब एक हजार करोड़ रुपये हैं। यह चुनाव के पहले दौर के पहले की बात है। अभी तो चुनाव चल ही रहा है। सन 2014 के लोकसभा चुनाव में करीब 300 करोड़ रुपये की नकदी बरामद हुई थी। अभी न जाने कितनी नकदी पकड़ी जाएगी और कितनी नहीं पकड़ी जाएगी।

चुनाव आयोग के अलावा आयकर विभाग के छापे अलग हैं। कुछ राजनीतिक दलों का आरोप है कि ये छापे राजनीतिक द्वेष के कारण मारे गए हैं। इस बात को सच मान लें, तब भी ये नोट क्यों निकल रहे हैं? धन-शक्ति और अपराधियों की भूमिका ने हमारी राजनीति के चेहरे की रंगत बदल दी है। शुरुआती वर्षों में कमजोर पृष्ठभूमि के लोग भी राजनीति में आगे बढ़ जाते थे। पर अब पार्टियों के टिकट खरीदने के लिए ही प्रत्याशी लाखों रुपये खर्च करते हैं। उन्हें रुपये देने पर टिकट मिलता है। गरीब आदमी टिकट पा ही नहीं सकता। चुनाव जीतने के बाद जन-प्रतिनिधियों की आमदनी आसमान से बातें करती है। इस खतरनाक प्रवृत्ति को दूर करने की जरूरत है।





2 comments:

  1. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति राष्ट्रीय अग्निशमन सेवा दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।

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