Sunday, February 11, 2018

पाकिस्तानी सेना को अर्दब में लेना जरूरी

यह आलेख 10 फरवरी के inext में प्रकाशित हुआ था और इसमें जम्मू-कश्मीर के सुंजवान सैनिक शिविर पर हुए हमले का विवरण नहीं है. पिछले कुछ साल से हमले बढ़े हैं और दूसरी ओर भारतीय राजनीति में कश्मीर के घटनाक्रम को राजनीतिक नजरिए से देखने की प्रवृत्ति भी बढ़ी है. इसकी एक झलक जम्मू-कश्मीर विधानसभा में लगाए गए 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' के नारे से मिलती है. जिस पार्टी के सदस्य ने ये नारे लगाए, उसके नेता फारुक अब्दुल्ला ने दूसरी तरफ पाकिस्तान को खरी-खोटी भी सुनाई है. बहरहाल पाकिस्तानी 'डीप स्टेट' योजनाबद्ध तरीके से हिंसा की मदद से कश्मीर समस्या का समाधान करने की कोशिश कर रही है. भारतीय राष्ट्र-राज्य के बरक्स इस तरीके से समस्या का समाधान नहीं हो सकता, पर इन तरीकों से वह आग सुलगती रह सकती है, जो 1947 में लगाई गई थी. बहरहाल हमें इस समस्या के दूरगामी हल और फौरी कदमों के बारे में सोचना चाहिए.  

हाल में जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर हुई गोलाबारी में चार भारतीय सैनिकों की मौत को लेकर पूरा देश बेचैन है. गोलाबारी लगातार बढ़ती जा रही है. सरकारी सूत्रों के अनुसार सन 2017 में 860 बार सीमा का उल्लंघन हुआ है. यह संख्या 2015 में 152 और 2016 में 228 की थी. पर इस बार अकेले जनवरी के महीने में ही ढाई सौ से ज्यादा बार उल्लंघन हो चुका है. बेशक यह खूँरेजी दुर्भाग्यपूर्ण है और इसमें मरने वालों में बड़ी संख्या सीमा के दोनों ओर रहने वाले निर्दोष नागरिकों की है. मौतों के अलावा खेत-खलिहान तबाह होते हैं. इसलिए दोनों देशों की जिम्मेदारी है कि इसे रोका जाए.
जैसी गोलाबारी इन दिनों हो रही है, लगभग वैसे ही हालात सन 2003 के पहले पैदा हो गए थे. 13 दिसम्बर 2001 को भारतीय संसद पर हमले के बाद यह गोलाबारी चरम पर पहुँच गई थी. सीमा के दोनों ओर रहने वालों की जीवन नर्क बन गया था और जन-जीवन ठप पड़ गया था. दोनों देशों की सरकारों को उस वक्त मिलकर गोलाबारी रोकने की बात ठीक लगी और 2003 में समझौता हुआ. उस वक्त पाकिस्तान में जनरल परवेज मुशर्रफ सर्वेसर्वा थे, इसलिए वह समझौता लागू हो गया. सन 2008 में मुशर्रफ के हटते-हटते मुम्बई कांड हो गया.  पाकिस्तान में बैठी कोई ताकत समाधान नहीं होने देना चाहती.

इन दिनों जो गोलाबारी हो रही है, उसे रोकने का समझौता करने के लिए दोनों देशों की नागरिक सरकारों के अलावा पाकिस्तानी सेना को भी आगे आना होगा. यहीं पर पेच है. पेच इसलिए कि गोलाबारी के सूत्र सीधे पाकिस्तानी सेना से जुड़े हैं. पाकिस्तानी सेना कश्मीर में घुसपैठ कराने के लिए फायरिंग का कवर देती है. इसके जवाब में भारतीय सेना घुसपैठ रोकने के लिए फायरिंग करती है. घुसपैठ लम्बे अरसे से होती रही है, पर हाल में इसमें तेजी आई है.
कुछ लोग इसे दिल्ली में आई मोदी सरकार की नई रणनीति का हिस्सा मानते हैं. भारत सरकार ने सेना के कमांडरों और सीमा सुरक्षा दल के अधिकारियों को कड़ी जवाबी कार्रवाई के निर्देश दिए हैं. ये निर्देश पठानकोट और उड़ी जैसी घटनाओं के बाद दिए गए थे.
जनवरी 2016 में पठानकोट हमले के पहले तक भारत सरकार दोस्ती का हाथ बढ़ा रही थी. उसके एक हफ्ते पहले 25 दिसम्बर 2015 को नरेन्द्र मोदी अचानक लाहौर पहुँचे गए थे. शायद यह बात पाकिस्तानी सेना को नागवार गुजरी. उसके फौरन बाद ही पठानकोट पर हमला हुआ. उस प्रकरण के बाद से पाकिस्तानी नागरिक प्रशासन और सेना का टकराव और ज्यादा बढ़ा. इसकी परिणति सितम्बर 2016 में भारतीय सेना के सर्जिकल स्ट्राइक के रूप में हुई. भारतीय रणनीति है कि जबतक पाकिस्तानी सेना को दर्द नहीं होगा, ये कार्रवाइयाँ रुकेंगी नहीं.
गोलाबारी के इस मामले को सैनिक, राजनयिक और राजनीतिक तीनों नजरियों से देखा जाना चाहिए. कश्मीर में लगातार अशांति बनाए रखना पाकिस्तानी डीप स्टेट की रणनीति है. यह डीप स्टेट पाकिस्तान राष्ट्र-राज्य का वह अनौपचारिक कोना है, जिसमें सेना, कट्टर धार्मिक नेता, राजनीति और  न्याय-व्यवस्था की हिस्सेदारी है. यह एक रणनीति का हिस्सा है. हमारे यहाँ की राजनीतिक शक्तियाँ इसे अपने नजरिए से देखती हैं. भारतीय सेना को भी इस राजनीति में लपेटा जा रहा है. कश्मीर में पत्थर मारो आंदोलन की शुरुआत 2012 में हुई थी, जब उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे और केंद्र में यूपीए की सरकार थी.
जुलाई 2016 में बुरहान वानी की मौत के बाद कश्मीर के पत्थर मारो आंदोलन में अचानक तेजी आ गई. बुरहान वानी को आईएसआई ने अपना आईकॉन बनाया था. उसका ट्विटर अकाउंट था. हमारी खुली स्वतंत्र व्यवस्था में मोबाइल फोनों और सोशल मीडिया के मार्फत किशोरों की भीड़ जमा करने के तमाम रास्ते खुले हुए थे. मीडिया में पैलेट गन से घायल हुए बच्चों की तस्वीरें छपीं. स्वाभाविक रूप से मानवाधिकार के समर्थक समाज को इस बात से ठेस लगी. पर जाहिर है कि किशोरों को भड़काने वाली कोई मशीनरी भी काम कर रही है. बुरहान वानी प्रकरण के बाद से कश्मीर में घुसपैठ बढ़ी है, सुरक्षा बलों पर हमले बढ़े हैं और नियंत्रण रेखा पर गोलाबारी भी बढ़ी है.
सवाल यह है कि क्या यह सब ऐसे ही चलेगा? सात दशक से अनसुलझी समस्या का समाधान इतना आसान नहीं है. जब तक बंदूक के जोर से कश्मीर को हासिल करने की कोशिश होगी, तब तक समाधान होगा भी नहीं. दोनों देशों की सेनाएं आपसी बातचीत से गौलाबारी की भयावहता को कम करने के रास्ते निकाल सकती हैं. दोनों देशों के डायरेक्टर जनरल मिलिट्री ऑपरेशंस के बीच हर हफ्ते हॉटलाइन पर संवाद होता है. पर पाकिस्तानी डीजीएमओ का पद इतना ताकतवर नहीं है कि वह गोलाबारी रोक पाए. इसके लिए कम से कम सेना के नम्बर एक या नम्बर दो अधिकारी को सामने आना होगा. भारत की आंतरिक राजनीति को भी कश्मीर के मामले में आमराय बनानी चाहिए. यह मामला किसी एक पार्टी के हित से नहीं जुड़ा है.

सन 2016 में बुरहान वानी की मौत के बाद से कश्मीर में भारतीय सेना ने लगातार कार्रवाइयाँ करके कुछ आतंकियों को मार गिराया. सर्दियों में ये गतिविधियाँ कम हो जाती हैं. अब मौसम बदल रहा है और अंदेशा है कि गतिविधियाँ नए सिरे से शुरू होंगी. जरूरत इस बात की है कश्मीर की अराजकता को जल्द से जल्द काबू में किया जाए। इसके लिए कश्मीरी आंदोलन से जुड़े नेताओं से संवाद की जरूरत भी होगी। यह संवाद अनौपचारिक रूप से ही होगा। केंद्र सरकार ने नवम्बर में आईबी के पूर्व चीफ़ दिनेश्वर शर्मा को जम्मू कश्मीर के लिए वार्ताकार नियुक्त किया है. वे कश्मीर के लोगों से मिलकर भी आए हैं. उन्होंने भी कहा है कि मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है लेकिन मेरी कोशिशों को गंभीरता से परखना होगा. कश्मीर पर कोई भी बात करने के पहले देश में आमराय भी बनानी होगी. यह काम आसान नहीं. 

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (12-02-2018) को "प्यार में महिलाएं पुरुषों से अधिक निडर होती हैं" (चर्चा अंक-2876) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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