Saturday, September 30, 2017

असमानता भरा विकास

चुनींदा-1
बिजनेस स्टैंडर्ड के सम्पादक टीएन नायनन के साप्ताहिक कॉलम में इस बार टॉमस पिकेटी और लुकास चैसेल के एक ताजा शोधपत्र का विश्लेषण किया गया है। टॉमस पिकेटी हाल के वर्षों में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के संजीदा विश्लेषकों में शामिल किए जा रहे हैं। नायनन के आलेख का यह हिंदी अनुवाद है जो बिजनेस स्टैंडर्ड के हिंदी संस्करण में प्रकाशित हुआ है। पूरे लेख का लिंक नीचे दिया हैः-

सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की धीमी प्रगति को लेकर मोदी सरकार गंभीर आलोचनाओं के घेरे में है। इस चर्चा से यह भी साफ होता है कि मुखर जनता की राय में जीडीपी वृद्धि ही ïराष्ट्रीय उद्देश्य के लिहाज से केंद्र में होनी चाहिए। बढ़ती असमानता के बारे में हाल में प्रकाशित एक शोधपत्र पर चर्चा न होना भी इतना ही महत्त्वपूर्ण है। थॉमस पिकेटी (कैपिटल के चर्चित लेखक) और सह-लेखक लुकास चैंसेल ने 'फ्रॉम ब्रिटिश राज टू बिलियनरी राज?' शीर्षक वाला यह पत्र पेश किया है। 

करीब दो महीने पहले जारी शोधपत्र के मुताबिक भारत में 1980 के बाद हुए सुधारों के अमूमन सारे लाभ समृद्ध लोगों को ही मिले हैं। इसी तरह आबादी के निचले आधे हिस्से की राष्ट्रीय आय वर्ष 2013-14 में महज 15 फीसदी रही थी जबकि 1980 के दशक की शुरुआत में यह 24 फीसदी हुआ करती थी। जहां इस अवधि में औसत आय दोगुनी भी नहीं हुई, वहीं आबादी के शीर्ष पर बैठे एक फीसदी लोगों की आय में आठ गुने से भी अधिक वृद्धि हुई है। संक्षेप में, आर्थिक सुधारों के दौर में समाज के बीच असमानता नाटकीय रूप से बढ़ी है जबकि 1980 से पहले के तीन दशकों में असमानता स्तर में कमी आ रही थी। (जबकि उस समय जीडीपी की वृद्धि दर सुस्त ही थी।)

पिकेटी और चैंसेल ने अपने अध्ययन में आर्थिक नीतियों में हुए बदलाव के पहले और बाद के दौर पर ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश की है। नीतिगत बदलाव के चलते सरकारी स्वामित्व और भारी कराधान के स्थान पर बाजार एवं निजी क्षेत्र के अनुकूल नीतियों का दौर चला। हालांकि इन विद्वानों ने कार्य-कारण संबंध नहीं लागू किया है लेकिन इस मान्यता को नकारना काफी मुश्किल होगा कि तीव्र आर्थिक वृद्धि के लाभ उठा पाने की स्थिति में मौजूद लोग अपेक्षाकृत संपन्न ही रहे होंगे। हालांकि यह विरोधाभासी आकलन नहीं रखा जा सकता है कि सुधारों के पहले की नीतियां जारी रहने की स्थिति में गरीबों को फायदा हुआ रहता।

नायनन का इससे पिछले हफ्ते का आलेख भी पढ़ें यहाँ
बुनियादी सुधार का आधार

क्या अर्थव्यवस्था इस बात की कीमत चुका रही है कि सरकार बीते तीन साल में मूलभूत सुधार तक अपनाने में नाकाम रही? इसका जवाब हां है लेकिन साथ ही सरकार पिछली सरकारों की ढांचागत सुधारों को अंजाम न दे पाने की कमी का भी खामियाजा भुगत रही है। जिस समय हालात अच्छे चल रहे थे तब उस समय कड़े फैसले लेने चाहिए थे। इस बात से भी कौन इनकार करेगा कि भारत कई वर्षों तक बहुत बेहतर स्थिति में रहा है। मनमोहन सिंह सरकार ने बेहतर वृद्धि दर के दौर में भी सुधार के मोर्चे पर कुछ खास नहीं किया। कई मामलों में तो उसने गलत कदम भी उठाए। इसके अलावा नीतिगत निष्क्रियता के अलावा वह कई तरह के घोटालों में उलझ गई।
मोदी सरकार की बात करें तो वह कड़े सुधार अपनाने के क्रम में अपनी राजनीतिक पूंजी गंवाना नहीं चाहती है। दोनों सरकारें यह दावा कर सकती हैं कि उनके कुछ कार्यक्रम सफल साबित हुए लेकिन हाल तक व्यवस्थागत बदलाव देखने को नहीं मिला है। उसकी कीमत हमें अब चुकानी पड़ रही है और वृद्धि दर में गिरावट देखने को मिल रही है।
सरकारी प्रवक्ताओं और खुद प्रधानमंत्री की बात करें तो वे परिवर्तनकारी बदलाव लाने की बात करना पसंद करते हैं। वहीं उनके बारे में एक समांतर विचार यह है कि उन्होंने बड़े सुधारों के बजाय मामूली रद्दोबदल को तरजीह दी है। चूंकि कोई बड़ा बदलाव दृष्टिगोचर नहीं है इसलिए आलोचना उचित ही प्रतीत होती है।


1 comment:

  1. विकास किस तरह ऊपर से नीचे सरकता है, मुझे आज तक न समझ आया। हाँ, जब सीधा सारोकार हो तो बात बनती है।

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