Sunday, July 24, 2016

कश्मीरी नौजवानों को कोई भड़का भी तो रहा है

कश्मीर मामले को पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय फोरमों पर उठाने की तैयारी कर रहा है। वहाँ 20 जुलाई को जो काला दिवस मनाया गया, जो इस योजना का हिस्सा था। नवाज शरीफ ने पाकिस्तान वापसी के बाद शुक्रवार को राष्ट्रीय सुरक्षा समिति की बैठक बुलाई जिसमें सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ भी शामिल हुए। पिछले दो हफ्तों में पाकिस्तान ने अपने तमाम दूतावासों को सक्रिय कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य देशों के साथ खासतौर से सम्पर्क साधा गया है। यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि कश्मीर घाटी में असाधारण जनांदोलन है।


इस बार की पाकिस्तानी रणनीति नब्बे के दशक से अलग है। हिंसा की रणनीति विफल होने और खासतौर से 9/11 के बाद सन 2000 से 2008 तक पाकिस्तान ने बातचीत के रास्ते को पकड़ा था। तब वाजपेयी सरकार ने जेठमलानी समिति के मार्फत हुर्रियत से सम्पर्क साध लिया था। फिर 2004 में यूपीए सरकार आने के बाद भी कश्मीर में संवाद चला। मनमोहन सिंह ने कश्मीर जाकर कहा, हम कश्मीर में नियंत्रण रेखा को अप्रासंगिक बना देंगे। यानी उसके आर-पार आवाजाही और व्यापार को बढ़ावा देंगे।

पर तब पाकिस्तानी सत्ता का केवल एक केन्द्र था-परवेज मुशर्रफ। यह सिर्फ संयोग नहीं कि मुम्बई पर हमला मुशर्रफ के दौर की समाप्ति के बाद हुआ, जब वहाँ नागरिक सरकार आई और सत्ता के दो केन्द्र बन गए। उस हमले के बाद ही संवाद को विराम लगा और गर्दनें काटने का दौर शुरू हुआ। उसी समय से कश्मीरी आंदोलन को जनांदोलन साबित करने की कोशिशें शुरू हुईं हैं। मई 2008 में अमरनाथ के नाम पर शुरू हुआ आंदोलन किसी न किसी रूप में अब तक जारी है। 2010 की गर्मियों में पत्थर मारोआंदोलन ने उसे नया रूप दिया, जिसके सूत्रधार सैयद अली शाह गिलानी थे।

उधर भारत सरकार अधूरे मन से इस समस्या का राजनीतिक समाधान खोजने की कोशिश कर रही थी। 13 अक्तूबर, 2010 को केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने जम्मू कश्मीर की समस्या का अध्ययन कर समाधान खोजने के लिए तीन सदस्यीय दल का गठन किया। इस टीम ने कश्मीर के अलगाववादियों से व्यापक बातचीत की और 12 अक्तूबर, 2011 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। टीम की सिफारिश थी, अनुच्छेद 370 को अस्थायी के बजाय ‘विशेष’ में परिवर्तित कर दिया जाए। वार्ताकारों ने 1952 के बाद लागू किए गए सभी कानूनों की समीक्षा के लिए संविधान समिति बनाने की सिफारिश भी की।

इसके अलावा गृहमंत्री पी चिदम्बरम के नेतृत्व में सर्वदलीय प्रतिनिधि मण्डल कश्मीर घाटी गया। इस दल में अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, सीताराम येचुरी, लोजपा के रामविलास पासवान सहित विभिन्न दलों के 38 सदस्य शामिल थे। इस टीम ने भी अलगाववादियों के साथ अनौपचारिक बातचीत की। इस यात्रा के बाद सरकार ने कश्मीर के लिए आठ सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की। कोशिशें कश्मीर में हालात सामान्य बनाने के लिए थीं, पर व्यावहारिक सतह पर कुछ नहीं हुआ। सैयद अली शाह गिलानी ने कुछ भी मानने से इंकार कर दिया। दूसरी ओर पाकिस्तान ने कश्मीर में अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता की बातें फिर से शुरू कर दीं। बहरहाल हालात को सुधारने की भारतीय रिपोर्टें और सिफारिशें कागजों पर रखी रह गईं।

पूर्व राजनयिक और मनमोहन सिंह सरकार में पाकिस्तान मामलों के विशेष दूत सतिंदर के लाम्बा ने एक बार दावा किया था कि मसले को सुलझाने का ठोस फॉर्मूला मौजूद है। इस फॉर्मूले के तहत 2007में मुशर्रफ और मनमोहन सिंह के बीच डील करीब-करीब फाइनल थी। भारत राजी था कि वह कश्मीर में सेना में कटौती करेगा और पाकिस्तान तैयार था कि वह जनमत संग्रह कराने की जिद छोड़ देगा। मुशर्रफ ने इस बारे में पाक फौज और आईएसआई को भरोसे में ले लिया था। (सन 2005 की पहल को लेकर अखबारों की कवरेज)

मनमोहन सिंह सरकार इस फॉर्मूले के बारे में कांग्रेस पार्टी और विपक्ष से चर्चा करने ही वाली थी कि पाकिस्तान में हालात बदल गए। मुशर्रफ के खिलाफ आंदोलन छिड़ गया, जिसके कारण उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी। फिर 26/11 के आतंकी हमलों के बाद दोनों देशों के बीच बातचीत बंद हो गई और तबसे बंद पड़ी है।

पाकिस्तानी विदेश नीति नागरिक सरकार के बजाय सेना के हाथ में है। वहाँ जेहादियों की भूमिका को समझने की जरूरत है। लश्करे तैयबा और जैशे-मुहम्मद जैसे संगठन कई तरह की अंतरराष्ट्रीय पाबंदियों के बावजूद पाकिस्तान में खुले आम सक्रिय हैं और उनका रिश्ता पाकिस्तानी सेना से है। अंतर्विरोध भारतीय प्रतिष्ठान में भी हैं। बीजेपी और कांग्रेस के राजनीतिक हित सर्वसम्मत राय पर पहुँचने से रोकते हैं। सन 2003 से 2008 के बीच राज्य में शांति स्थापना के दौर का यूपीए के दौर में भी लाभ उठाया नहीं गया। सन 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान और उसके बाद केन्द्र सरकार ने मीर वाइज फारूक की पेशकश की ओर ध्यान नहीं दिया। फिर कश्मीर में पीडीपी-भाजपा सरकार बनने के बाद बीजेपी ने कश्मीर के सवाल को बहुत हल्के से लेना शुरू कर दिया।

भारत को कश्मीर में जनमत संग्रह की सम्भावनाओं को सिरे से नकारना चाहिए। मामले को संयुक्त राष्ट्र में भारत लेकर गया था न कि पाकिस्तान। यह अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत किसी फोरम पर कभी नहीं उठा। भारत की सदाशयता के कारण पारित सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के एक अंश को पाकिस्तान आज तक रह-रहकर उठाता रहा है, पर पूरी स्थिति को कभी नहीं बताता। 13 अगस्त 1948 के प्रस्ताव को लागू कराने को लेकर वह संज़ीदा था तो तभी पाकिस्तानी सेना वापस क्यों नहीं चली गईप्रस्ताव के अनुसार पहला काम उसे यही करना था।

संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव अपनी मियाद भी खो चुका है और महत्व भी। सुरक्षा परिषद दिसम्बर 1948 में ही मान चुकी थी कि पाकिस्तान की दिलचस्पी सेना हटाने में नहीं है तो इसे भारत पर भी लागू नहीं कराया जा सकता। शिमला समझौते के बाद लगभग औपचारिक रूप से पाकिस्तान ने इस बात को मान लिया। पाकिस्तानी नेताओं ने लम्बे अरसे तक इस सवाल को उठाना बंद रखा, पर पिछले दो दशक से उन्होंने इसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाना शुरू कर दिया है।

समाचार एजेंसी रायटर ने 18 दिसम्बर 2003 को परवेज़ मुशर्रफ के इंटरव्यू पर आधारित समाचार जारी किया, जिसमें उन्होंने कहा, हमारा देश संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव को ‘किनारे रख चुका है’ (लेफ्ट एसाइड) और कश्मीर समस्या के समाधान के लिए आधा रास्ता खुद चलने को तैयार है। यह बात आगरा शिखर वार्ता (14-16 जुलाई 2001) के बाद की है। जून 1972 के शिमला समझौते की तार्किक परिणति थी कि पाकिस्तान को इस मामले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाना बंद कर देना चाहिए था।

नियंत्रण रेखा पर आवागमन को स्वीकार करके एक प्रकार से भारत सरकार ने उधर के कश्मीर के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया है। 13 अप्रैल 1956 को जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, “मैं मानता हूँ कि युद्ध विराम रेखा के पार का इलाका आपके पास रहे। हमारी इच्छा लड़ाई लड़कर उसे वापस लेने की नहीं है।” ऐसे ही 9 दिसम्बर 2003 को पाकिस्तान के उच्चायुक्त अजीज खान ने कोलकाता में कहा, ‘हम मानते हैं कि भारत और पाकिस्तान हमेशा रंज़िश के लिए नहीं बने हैं...हमें सहयोग चाहिए, टकराव नहीं।’

समझौतों के इतने करीब आकर वापस लौट जाने का फायदा किसे हुआ? पाकिस्तान में एक ताकतवर तबके की समझ है कि जब तक टकराव है तभी तक पाकिस्तान का वजूद है। भारत में बहस पुलिस-कार्रवाई और किशोरों के गुस्से के आगे नहीं जा रही है। बीजेपी-पीडीपी सरकार बनना भी इसके पीछे की वजह नहीं है। इसकी बिना पर नौजवानों को भड़काया जा सकता है, पर कांग्रेस-नेशनल कांफ्रेंस सरकार भी होती तो स्थिति ज्यादा अलग नहीं होती।

संयोग से मुझे आकार पटेल का  एक 2010 का लेख मिल गया। यह लेख देश की बदली हुई राजनीतिक स्थितियों में देश के वामपंथियों की समझ पर भी रोशनी डालता है

What ails Kashmir? The Sunni idea of ‘azadi’

Aakar Patel
We know what Hurriyat Conference wants: azadi, freedom. But freedom from what? Freedom from Indian rule. Doesn’t an elected Kashmiri, Omar Abdullah, rule from Srinagar?
Yes, but Hurriyat rejects elections. Why? Because ballots have no azadioption.But why can’t the azadidemand be made by democratically elected leaders? Because elections are rigged through the Indian Army. Why is the Indian Army out in Srinagar and not in Surat? Because Kashmiris want azadi.

What do Kashmiris want freedom from? India’s Constitution.
What is offensive about India’s Constitution? It is not Islamic. This is the issue, let us be clear.

The violence in Srinagar isn’t for democratic self-rule because Kashmiris have that. The discomfort Kashmiris feel is about which laws self-rule must be under, and Hurriyat rejects a secular constitution.
पूरा लेख पढ़ें यहां



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Kashmir for Kashmiris By Pranay Gupte
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स्ट्रैटफर का विश्लेषण
पाकिस्तानी नजरिया
Shah Faesal in INdian Express
A season of loss in Kashmir
Pakistan's Point of view
गौहर गिलानी के अनुसार भारतीय बुद्धिजीवियों ने कश्मीर की आजादी को स्वीकार कर लिया है
कश्मीर पर चिदम्बरम-1
कश्मीर पर चिदम्बरम-2
मेघनाद देसाई का लेख
प्रताप भानु मेहता
ले जन एचएस पनाग का लेख-1
ले जन एचएस पनाग का लेख-2
कश्मीरी नौजवान क्या चाहते हैं? हिन्दू में प्रकाशित 2010 की एक रिपोर्ट
नौजवान रोजगार चाहते हैं
कश्मीर संरा की विवाद-सूची में नहीं
निताशा कौल का लेख
शुजात बुखारी का हिन्दुस्तान टाइम्स में लेख
शुजात बुखारी का फ्रंटलाइन में लेख
हूट में शहनाज़ बशीर का लेख
और जनरल महमूद दुर्रानी का इंटरव्यू
संयुक्त राष्ट्र का स्पष्टीकरण
फ्रंटलाइन में एजी नूरानी का आलेख
आकार पटेल का 2010 का लेख

हरिभूमि में प्रकाशित

1 comment:

  1. बहुत सही विश्लेषण , कश्मीर का यह मसला सुलझ भी नहीं सकता क्योंकि पाकिस्तान ने तहे दिल से कभी इसे सुलझाना ही नहीं चाहा। यह भी सच है कि जिस दिन कश्मीर मसला हल हो गया उस दिन पाकिस्तान की उलटी गिनती चालू हो जायेगी , इस बात को वहां की सरकार व सेना अच्छी तरह जानते व समझते हैं , वहां की जनता को तो इस मसले से ज्यादा लेना देना दिखता ही नहीं क्योंकि वह तो अपनी दिन प्रतिदिन की समस्याओं से ही झूझती रहती है , , यह महज राजनीतिक दलों, सेना व जिहादियों की खुरापात है जो अपनी किस्मत बनाये रखने के लिए ये खुरापात करते रहे हैं व रहेंगे , भारत को उन्हें झेलने के लिए सदैव तैयार रहना ही होगा , क्योंकि पाक इस को न जीवित रहना देगा न मरने देगा

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