Friday, September 30, 2011

फिर प्रधानमंत्री की भूमिका क्या है?

हिन्दू में केशव का कार्टून
पिछले हफ्ते की दो खबरों को एक साथ पढ़ने का मौका मिला। एक थी प्रणब मुखर्जी और पी चिदम्बरम के बीच की खींचतान और दूसरी पूर्वी उत्तर प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों की वसूली का विरोध करने वाले एक ड्राइवर की हत्या। दोनों खबरों में कोई रिश्ता नहीं, पर दोनों बातें हताश करती हैं। दोनों बातें बताती हैं कि सुपर पावर बनने को आतुर देश की व्यवस्था अकुशल, बचकानी और घटिया है। ये अवगुण पिछले दो दशक में विकसित हुए हैं। तिकड़म, दलाली और धंधेबाजी को जो खुलेआम सम्मान हाल के वर्षों में मिला है वह पहले नहीं था। तथ्यों को बजाय उजागर करने के उनपर पर्दा डालने की प्रवृत्ति व्यवस्था को अविश्सनीय बना रही है।


अमेरिका से वापस आते वक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि विपक्ष बेवजह बेचैन हुआ जा रहा है। हमारे पास जनादेश है। विपक्ष को लगता है कि उसने सरकार के कुछ कमज़ोर पहलू पकड़ लिए हैं। वह जल्दी चुनाव कराना चाहता है। पर यह होने वाला नहीं। हम अपने शेष कार्यकाल में ऐसे काम करेंगे कि जनता को आश्चर्य होगा। जनता को पक्ष-विपक्ष में दिलचस्पी नहीं है। उसे जो सामने नज़र आ रहा है बात उसकी होनी चाहिए। प्रधानमंत्री के वक्तव्य की विपक्ष में प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। बेशक विपक्ष का काम सरकार की नाक में दम करना है। पर इस मौके पर वह सरकार गिराने की कोशिश क्यों करेगा? उसके पास न तो संख्याबल है और न सरकार बनाने का माहौल। वह तो यही चाहेगा कि जैसा चल रहा है वैसा दो-ढाई साल और चले। यूपीए पर घोटालों और पार्टी के अंदरूनी अंतर्विरोधों से ज्यादा बड़ा संकट महंगाई और बेरोजगारी का है। दोनों संकटों से निपटने की रणनीति दिखाई नहीं पड़ती।

टूजी मामले से जुड़े वित्त मंत्रालय के नोट के बाबत प्रधानमंत्री ऐसी सफाई नहीं दे पाए, जिससे विवाद खत्म हो। प्रधानमंत्री ने प्रकारांतर से माना कि शुरुआत दयानिधि मारन के दबाव से हुई थी। मारन ने ही स्पेक्ट्रम प्राइसिंग का अधिकार ग्रुप ऑफ मिनिस्टर के बजाय दूरसंचार मंत्री को देने की बात कही थी। मारन ने कहा था कि इससे तमाम तकनीकी मामले जुड़े हैं। ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स जैसे बड़े ग्रुप को इन बारीकियों को समझने में दिक्कत होगी। पर सरकार तो पूरी सरकार होती है। एक या दो मंत्रियों की नहीं। थोड़ी देर के लिए हम इसे भ्रष्टाचार न मानें, पर अकुशलता तो है।

पिछले साल इन्हीं दिनों कोई नहीं कह सकता था कि दिल्ली सरकार बड़े संकट में घिरने वाली है। कॉमनवैल्थ गेम्स की तैयारी में हो रही देरी को लेकर मीडिया ने हंगामा ज़रूर मचाया था। पर कहानी में मोड़ पर मोड़ जाएंगे इसकी भनक नहीं थी। सरकार मौज में नहीं थी तो संकट में भी नहीं थी। विपक्ष के पास कोई मसला नहीं था। नरेन्द्र मोदी के करीबी अमित शाह की गिरफ्तारी हो चुकी थी। भाजपा अपने पचड़ों में फँसी थी। नए अध्यक्ष नितिन गडकरी झारखंड की राजनीति में हाथ झुलसा चुके थे। कर्नाटक में भाजपा सरकार का समर्थन कर रहे विधायकों के बीच टकराव के कारण येदीयुरप्पा सरकार पर संकट था। राज्यपाल ने बहुमत साबित करने का आदेश दिया था। सीएजी-स्रोतों से 2जी स्पेक्ट्रम के आबंटन में हुई एकतरफा कार्रवाई के संकेत मिल रहे थे, पर राजा ससम्मान साहब कुर्सी पर थे और यूपीए नेतृत्व का आशीर्वाद उन्हें प्राप्त था। दसेक महीनों में कहानी बदल गई।

कांग्रेस के प्रवक्ता वित्त मंत्रालय के नोट को एक जूनियर अधिकारी का मामूली कागज़ कह रहे हैं, पर पुराने ब्यूरोक्रेटों की धारणा है कि वह मामूली कागज़ नहीं है। इस सरकार के साथ दिक्कत यह है कि यह पहले किसी बात को नामंजूर करती है, फिर उसे स्वीकार कर लेती है। प्रधानमंत्री बजाय अपने को अलग करने के इसे पूरी सरकार का मामला बताकर अपनी भूमिका को साफ करते तो बेहतर होता। आखिर वे सरकार के प्रमुख हैं। सरकारी कामकाज़ और फैसलों में परिपक्वता और आत्मविश्वास की कमी है। साथ ही जनता के साथ संवाद बेहद कमज़ोर है।

प्रधानमंत्री इसे पर्सेप्शन यानी धारणात्मक विफलता मानते हैं। यानी कि सरकार अपने खिलाफ बन रही धारणाओं को रोकने में नाकामयाब रही। मनमोहन सिंह ने 16 फरवरी को टीवी सम्पादकों के साथ बातचीत में और उसके बाद 29 जून को चुनींदा समाचार पत्र-सम्पादकों के सामने भी लगभग यही बात कही। इसमें एक मजबूरी का भाव भी था। इस मजबूरी का एक कारण गठबंधन सरकार है। उनसे सवाल किया गया कि यूपीए-एक के मुकाबले यूपीए-दो का कार्यकाल कमज़ोर है। इसपर उनका कहना था कि जिन गड़बड़ियों की बात आप कर रहे हैं, वे पिछली सरकार के कार्यकाल के हैं। वास्तव में, यह उस सरकार के कार्यकाल में हुआ, जिसे बाहर से वामपंथियों का समर्थन प्राप्त था। वामपंथी दलों ने तमाम सरकारी कम्पनियों के विनिवेश को रोका। अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील को लेकर जमीन-आसमान एक कर दिया। उन्होंने भी टूजी स्पेक्ट्रम के आबंटन में हस्तक्षेप क्यों नहीं किया?

जिन दिनों स्पेक्ट्रम आबंटन की बहस होनी चाहिए थी देश न्यूक्लियर डील को लेकर परेशान था। 10 जनवरी 2008 को ए राजा ने 122 लाइसेंसों का फैसला किया। पक्ष और विपक्ष ने ध्यान ही नहीं दिया। किसी ने विरोध किया भी होगा तो वह मामूली था। बात तभी बढ़ी जब 2010 के आखिरी दिनों में यह मामला अदालत में गया। शायद सीएजी की रपट भी बंडलों में बँधी रह जाती।

जनता की नाराज़गी इस बात से है कि कुर्सी में बैठे लोग नियम-कानूनों की अनदेखी करते हैं। कौन दूर संचार मंत्री बनेगा और झुनझुना मंत्री बनेगा, इसे लेकर सत्ता के गलियारे सरगर्म रहते है। लॉबीईस्टों और पीआर प्रतिनिधियों की चाँदी है। तब किसी ने संसद में सवाल नहीं उठाए। मीडिया सेलेब्रिटी इस बात को लेकर फिक्रमंद थे कि मंत्री कौन बने। व्यवस्था के कर्णधारों ने मान लिया है कि यह सब चलता है। नरेन्द्र मोदी पर आरोप है कि हिंसा हो रही थी और उन्होंने मुँह फेर लिया। हत्याएं होने दीं। सही आरोप है। क्या उसी तरह की आर्थिक हिंसा की अनदेखी व्यवस्था ने नहीं की?

आर्थिक गतिविधियों के साथ घोटालों का गहरा रिश्ता है। विश्व युद्ध के दौरान तमाम ठेकेदारों की तकदीर बदली। आर्थिक विकास भी तकदीर बदल रहा है। किसकी? दूर संचार-क्रांति ने बहुत कुछ दिया। हम दुनिया के सबसे अच्छे और किफायती नेटवर्क बनाने में कामयाब हुए। पर इसके पीछे घोटाले क्यों हैं? घोटाले एनडीए शासन में भी हुए थे। यूटीआई, केतन पारेख, पेट्रोल पम्प, कफन वगैरह के घोटाले। यूपीए के दौर में कम से कम मंत्री जेल जा रहे हैं। यूपीए ने उन्हें जेल भेजा होता तो उसे श्रेय मिलता। सरकार ने राजा को बचाने की कोशिश की। वे कानूनी पकड़ में तो अदालती कार्रवाई के बाद आए। प्रधानमंत्री का कहना है कि तब हम प्राइसिंग के बारे में इतना नहीं सोच पा रहे थे। हम तो पहले रक्षा मंत्रालय से स्पेक्ट्रम लेकर उसे देश की अर्थव्यवस्था से जोड़ने के बारे में ज्यादा फिक्रमंद थे।

फिल्म मदर इंडिया में एक दृश्य है जब डाकू बना सुनील दत्त सुक्खी लाला की चोपड़ी हाथ में लेकर समझना चाहता है। उसे पढ़ना नहीं आता। उसे अपनी माँ के कंगन याद हैं। अदालतों में तय होगा कि यह घोटाला था गलत निर्णय। इसमें जीरो-लॉस था, तीस करोड़ का या पौने दो लाख करोड़ का। जनता फाइलें पढ़ना नहीं जानती। उसे जिनपर भरोसा था, वे साख खो रहे हैं। दयानिधि मारन ने तकनीकी पहलुओं के कारण प्राइसिंग का फैसला दूरसंचार मंत्री के हाथों में ही रखने की माँग की थी। पर वजह तकनीकी जटिलता नहीं थी, यह अब साफ है।
तब फिर किस पर भरोसा किया जाए? कौन करेगा सार्वजनिक हित में फैसला? बावजूद इसके अर्थव्यवस्था साढ़े सात या आठ फीसदी की दर से बढ़ रही है। तमाम लाइसेंसों के लिए कतारें लगीं हैं। फैसले करने वाले उसी तरह फैसले कर रहे हैं। ड्राइवर की मौत के बाद भी सड़कों पर खुलेआम वसूली जारी है। जनता देखती है। उसकी दिलचस्पी इसमें नहीं कि किसकी सरकार बनती या बिगड़ती है। उसे अपनी बदहाली की फिक्र है। ड्राइवर की हत्या के बाद की अराजकता विचलित करती है। पर ये दृश्य बढ़ते जा रहे हैं।


जनवाणी में प्रकाशित
    


मंजुल का कार्टून साभार





6 comments:

  1. कल 01/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  2. मनमोहन सिंह के इस कार्यकाल में हमें बहुत निराशा हाथ लगी है। जब एक राजनीतिक कुर्सी पर एक नौकरशाह बैठता है, जिन्हें हमेशा अपनी जिम्मेवारी दूसरों पर डालने की आदत होती है, तो भला और क्या उम्मीद की जा सकती हैं।

    आपने सही कहा, वर्तमान परिदृश्य बहुत निराश करने वाला है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों में कहीं कोई नेतृत्व करने वाले नेता नहीं। हम एक विफल राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर हैं।

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  3. प्रमोद जी : अगर देश को कार्यकारी प्रधानमंत्री चाहिए, तो सबसे पहले प्रधानमंत्री की जबाबदेही जनता के प्रति होनी चाहिए. मैं इसे एक शर्मनाक बात समझता हूँ कि भारत के प्रधानमंत्री ने यह ज़रूरी नहीं समझा कि उन्हें जनता का सम्मान करते हुए लोक सभा का चुनाव लड़ना चाहिए. चुनाव यह देखने के लिए नहीं है कि वह जीत सकते हैं या नहीं, वह तो ज़रूर जीत जायेंगे. चुनाव इस लिए, कि प्रधानमंत्री को एक रीढ़ कि हड्डी मिले, और वह खुद के बलबूते पर मुल्क पर शाशन करें.

    यह हमारा दुर्भाग्य है कि आज प्रधानमंत्री बात बात में "मैडम जी" से आदेश लेते हैं, और विपक्ष के नेता बात बात पर RSS के मुख्यालय की ओर दौड़ते हैं.

    मुझे अपने देश का प्रधानमंत्री नहीं चाहिए, सिर्फ एक रीढ़ की हड्डी चाहिए, उसपर मांसपिंड तो हम सब भी लगा सकते है -- कुर्सी पर बिठाने के लिए.

    फिर करेंगे हम उनको सलाम!

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  4. अफ़सोस ईस बात का हैं कि हमारे देश के प्रधानमंत्री अब ईस लायक नहीं रहे कि स्वतः फैसला ले सके. (बिना सोनिया के )

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  5. कुर्सी में बैठे लोग नियम-कानूनों
    की अनदेखी करते हैं।
    बहुत बहुत आभार ||

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  6. यह उदारवाद का स्व्भाविक प्रतिफल है।

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