Tuesday, February 21, 2023

संगठन, नेतृत्व और गठबंधन: रायपुर महाधिवेशन में होंगे कांग्रेस के सामने तीन बड़े विषय


आगामी 24 से 26 फरवरी तक छत्तीसगढ़ के रायपुर में होने वाला 85वाँ कांग्रेस महाधिवेशन बेहद महत्वपूर्ण होने वाला है। 2024 के चुनाव के पहले की सबसे बड़ी संगठनात्मक गतिविधि है। इस साल के अंत में छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनाव भी होने वाले हैं। कांग्रेस पार्टी की इस समय छत्तीसगढ़, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में सरकार है। छत्तीसगढ़ के अलावा इस साल राजस्थान में भी चुनाव होने वाले हैं। इसमें नीचे से ऊपर तक का समूचा पार्टी-नेतृत्व एक जगह पर बैठकर महत्वपूर्ण मसलों पर विचार करेगा।

कांग्रेस महासमिति का महाधिवेशन हरेक तीन साल बाद होता है। मल्लिकार्जुन खड़गे की अध्यक्षता में यह पहला अधिवेशन है। महाधिवेशन में राजनीतिक, आर्थिक, अंतरराष्ट्रीय संबंध, कृषि, सामाजिक न्याय, शिक्षा और रोजगार से जुड़े विषयों पर प्रस्ताव पास किए जाएंगे। पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी को अलावा प्रदेश कांग्रेस समितियों के पदाधिकारी, उनके सदस्य और अन्य कार्यकर्ता शामिल होंगे, जिनकी संख्या करीब 4,000 होगी। अन्य अतिथियों तथा मीडिया-प्रतिनिधियों को जोड़कर करीब 14-15 हजार व्यक्ति इस अधिवेशन में उपस्थित रहेंगे।

माना जा रहा है कि अधिवेशन में खासतौर से तीन बड़े विषयों पर विचार होगा और फैसले किए जाएंगे। इनमें सबसे पहला विषय है संगठनात्मक सुधार। अधिवेशन में नई कार्यसमिति का गठन भी होना है, क्योंकि मल्लिकार्जुन खड़गे के चुनाव के बाद से एक अस्थायी संचालन-समिति काम कर रही है। इसकी शुरुआत कार्यसमिति के गठन से तो होगी ही, साथ ही गठन की प्रक्रिया पर विचार भी होगा। यानी कि उसके सदस्यों का चयन चुनाव के आधार पर हो या अध्यक्ष द्वारा मनोनयन की व्यवस्था को जारी रखा जाए।

Sunday, February 19, 2023

भारतीय राजनीति में विदेशी-हस्तक्षेप?


जनवरी के आखिरी हफ्ते में जब गौतम अडानी के कारोबार को लेकर अमेरिकी रिसर्च कंपनी हिंडनबर्ग की रिपोर्ट सामने आई थी, तभी यह स्पष्ट था कि इसके पीछे अमेरिकी कारोबारी जॉर्ज सोरोस का हाथ है। यह कहानी 2017 में ऑस्ट्रेलिया में चले अडानी-विरोधी आंदोलन के दौरान स्पष्ट थी। विरोध की वजह से अडानी ग्रुप के प्रोजेक्ट की क्षमता सीमित हो गई थी। इस विरोध के तार कितनी दूर तक जुड़े हैं, इसे समझना आसान नहीं। अलबत्ता कहा जा सकता है कि सोरोस-प्रकरण से संगठित विदेशी-हाथ की पुष्टि हो रही है।

अडानी-विरोध के पीछे पर्यावरण-संरक्षण से जुड़े संगठनों का हाथ ही होता, तो बात अलग थी। मान लेते हैं कि इसमें कारोबारी-प्रतिस्पर्धियों की भूमिका होगी। अडानी की कंपनियाँ बंदरगाहों, एयरपोर्ट, टेलीकम्युनिकेशंस, बिजलीघरों, खनन और इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी परियोजनाओं पर काम करती हैं। यह मामला केवल कारोबार तक सीमित नहीं है। उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करीबी माना जाता है। यदि इसके पीछे राजनीति है, तो सवाल होगा कि कैसी राजनीति? केवल मोदी और भारतीय जनता पार्टी निशाने पर है या भारतीय-अर्थव्यवस्था है? कौन है इसके पीछे? क्या यह पश्चिमी देशों में पनपने वाली भारत-विरोधी, हिंदू-राष्ट्रवाद विरोधी दृष्टि है? क्या इसके सूत्र भारतीय-राजनीति से जुड़े हैं? क्या यह भारतीय राजनीति में 2024 के चुनाव के पहले सीधे हस्तक्षेप की कोशिश है? भारत के भविष्य का फैसला देश का वोटर करेगा, विदेशी पूँजीपति नहीं।

सोरोस का एजेंडा

गत 16 फरवरी को म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस के सिलसिले में टेक्नीकल यूनिवर्सिटी ऑफ म्यूनिख में आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए जॉर्ज सोरोस के एक वक्तव्य और फिर केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के जवाबी बयान के बाद यह मसला और जटिल हो गया है। स्मृति ईरानी के बाद विदेशमंत्री एस जयशंकर ने भी उन्हें जवाब दिया है। शनिवार को ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में रायसीना डायलॉग के उद्घाटन सत्र के दौरान जयशंकर ने कहा कि सोरोस की टिप्पणी ठेठ 'यूरो अटलांटिक नज़रिये' वाली है। वे न्यूयॉर्क में बैठकर सोचते हैं कि उनके विचारों से पूरी दुनिया की गति तय होनी चाहिए... अगर मैं ठीक से कहूं तो वे बूढ़े, रईस, हठधर्मी और ख़तरनाक हैं। अगर आप इस तरह की अफ़वाहबाज़ी करेंगे, जैसे दसियों लाख लोग अपनी नागरिकता से हाथ धो बैठेंगे तो यह वास्तव में हमारे सामाजिक ताने-बाने को बहुत क्षति पहुंचाएगा। ऐसे लोग वास्तव में नैरेटिव या बयानिया तय करने में अपने संसाधन लगाते हैं। उनके जैसे लोगों को लगता है कि अगर उनकी पसंद का व्यक्ति जीते तो चुनाव अच्छा है और अगर चुनाव का परिणाम कुछ और आए, तो वे कहेंगे कि यह खराब लोकतंत्र है। गजब की बात तो यह है कि यह सब कुछ खुले समाज की वकालत के बहाने किया जाता है। भारत के मतदाताओं ने फैसला किया है कि देश कैसे चलना चाहिए।

सवाल है कि सोरोस को बयान देने की जरूरत क्यों पड़ी? वे क्या चाहते हैं? उनके बयान का क्या विपरीत प्रभाव पड़ेगा?  सोरोस का एक राजनीतिक एजेंडा है और उनके साथ दुनियाभर के अकादमिक, मानवाधिकार संरक्षण और मीडिया-संगठन जुड़े हैं। उन्होंने पहली बार मोदी-सरकार पर हमला नहीं बोला है। इसके पहले वे वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में सरकार की आलोचना कर चुके हैं। इतना ही नहीं वे अपने राजनीतिक-कार्यक्रम के लिए एक अरब डॉलर के कोष की स्थापना कर चुके हैं। इसमें वे अरबों रुपया लगा रहे हैं। वे अकेले नहीं हैं। उनके साथ एक पूरा नेटवर्क है। यह पागलपन है।

अडानी बहाना, मोदी निशाना

अपने ताजा बयान में सोरोस ने अडानी को लेकर प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधा है। उन्होंने कहा, मोदी इस मुद्दे पर खामोश हैं, लेकिन उन्हें विदेशी निवेशकों और संसद में पूछे गए सवालों के जवाब देने होंगे। यह जवाबदेही सरकार पर मोदी की पकड़ को कमजोर कर देगी। मुझे उम्मीद है कि भारत में एक लोकतांत्रिक परिवर्तन होगा। उन्होंने यह भी कहा, भारत तो लोकतांत्रिक देश है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकतांत्रिक नहीं हैं। उनके इतनी तेज़ी से आगे बढ़ने के पीछे भारतीय मुसलमानों के साथ हिंसा भड़काना एक बड़ा कारक रहा है। 

बात केवल अडानी-संदर्भ तक सीमित नहीं है। ज्यादा महत्वपूर्ण है कश्मीर से 370 हटाने का विरोध और नागरिकता कानून को लेकर उनकी राय। वे दुनिया में बढ़ रहे राष्ट्रवादी विचार के विरोधी हैं। उन्होंने 2020 में एक ग्लोबल यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिए एक अरब डॉलर के दान की घोषणा की थी। इस विवि का उद्देश्य राष्ट्रवादी विचार से लड़ना है। सोरोस ने कहा कि राष्ट्रवाद बहुत आगे निकल गया है। सबसे बड़ा और सबसे भयावह झटका भारत में लगा है, क्योंकि वहाँ लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित नरेंद्र मोदी भारत को एक हिंदू राष्ट्रवादी देश बना रहे हैं। वे कश्मीर में सख्ती कर रहे हैं, जो अर्ध-स्वायत्त मुस्लिम क्षेत्र है और वे लाखों नागरिकों को उनकी नागरिकता से वंचित करने की धमकी दे रहे हैं।

Wednesday, February 15, 2023

बीबीसी पर छापे के पीछे की कहानी क्या है?

दिल्ली के एचटी हाउस में स्थित बीबीसी का दफ्तर

मंगलवार को दुनिया के मीडिया प्लेटफॉर्मों पर यह खबर आग की तरह फैल गई कि ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन (बीबीसी) के दिल्ली और मुंबई कार्यालयों पर
आयकर विभाग के छापे चल रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया और अखबारों की सुर्खियाँ बनने के अलावा इस विषय पर टीका-टिप्पणियाँ हो रही हैं। कांग्रेस समेत देश के ज्यादातर विरोधी दलों ने इन छापों की निंदा की है। कांग्रेस ने इसे अघोषित आपातकाल बताया है, वहीं बीजेपी का कहना है कि सारी कार्रवाई नियमों के तहत हो रही है और अगर किसी ने कुछ गलत नहीं किया है तो उसे डरने की जरूरत नहीं है। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा है कि इनकम टैक्स विभाग समय-समय पर सर्वे करता है। विभाग आपको इस विषय पर आगे की जानकारी दे देगा। ब्रिटेन की सरकार ने कहा कि इस मामले पर वह नजर बनाए हुए है। मीडिया का एक हिस्सा और राजनेता इस छापे को हाल में जारी की गई बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री से जोड़कर दखे रहे हैं।

कांग्रेस के महासचिव केसी वेणुगोपाल ने आयकर विभाग की कार्रवाई पर कहा, "ये निराशा का धुआं है और ये दर्शाता है कि मोदी सरकार आलोचना से डरती है।" उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा, "हम डराने-धमकाने के इन हथकंडों की कड़े शब्दों में निंदा करते हैं। यह अलोकतांत्रिक और तानाशाही रवैया अब और नहीं चल सकता।" दूसरी तरफ बीजेपी प्रवक्ता गौरव भाटिया ने बीबीसी को दुनिया का भ्रष्ट, बकवास कॉरपोरेशन बताया। उन्होंने कहा, भारत एक ऐसा देश है जहाँ हर संस्था को मौक़ा दिया जाता है। तब तक, जब तक आप ज़हर नहीं उगलेंगे। तलाशी क़ानून के दायरे में हैं और इसकी टाइमिंग का सरकार से कोई लेना देना नहीं है।

एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने कहा कि हम इस तलाशी को लेकर "बहुत चिंतित" हैं। सरकार की नीतियों या सरकारी संस्थानों की आलोचना करने वाले मीडिया संस्थानों को डराने और परेशान करने के लिए सरकारी एजेंसियों के इस्तेमाल के प्रचलन का ही यह क्रम है। प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया ने भी बयान जारी करके इस कार्रवाई की आलोचना की है। प्रेस क्लब ने सरकार की कार्रवाई पर चिंता जताई है और कहा है कि इससे भारत की छवि को नुक़सान पहुँचेगा। मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने अधिकारियों पर बीबीसी को डराने का आरोप लगाया।

अंतिम समाचार मिलने तक दूसरे दिन भी सर्वे चल रहा  है और माना जा रहा है कि यह काम दो-तीन दिन तक चलेगा। मंगलवार की सुबह करीब सवा 11 बजे इनकम टैक्स की टीम बीबीसी के दिल्ली दफ्तर में पहुंची और सर्वे का काम शुरू किया। इनकम टैक्स की टीम में 15 से 20 अधिकारी मौजूद हैं। सरकारी सूत्रों के अनुसार बीबीसी के खातों और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स को चेक करने में लंबा वक्त लग सकता है। ऐसे में इनकम टैक्स विभाग की कार्रवाई लंबी चल सकती है। अधिकारियों ने बताया कि सर्वे अंतरराष्ट्रीय कराधान और बीबीसी की सहायक कंपनियों के ‘‘ट्रांसफर प्राइसिंग’’ से संबंधित मुद्दों की जांच के लिए किया गया है। अतीत में इस विषय पर बीबीसी को नोटिस दिया गया था, लेकिन उसने उस पर गौर नहीं किया और उसका पालन नहीं किया। उसने अपने मुनाफे के खास हिस्से को दूसरी जगह भेजा। उन्होंने कहा कि विभाग, बीबीसी के कारोबारी संचालन से जुड़े दस्तावेजों पर गौर कर रहा है।

इस बीच बीबीसी ने कहा कि वह इनकम टैक्स अधिकारियों के साथ पूरा सहयोग कर रहा है। बीबीसी प्रेस ऑफिस की ओर से एक बयान में कहा गया है, ''हम अपने कर्मचारियों का मदद कर रहे हैं. हमें उम्मीद है कि स्थिति जल्द से जल्द सामान्य हो जाएगी… हमारा आउटपुट और पत्रकारिता से जुड़ा काम सामान्य दिनों की तरह चलता रहेगा। हम अपने ऑडियंस को सेवा देने के लिए प्रतिबद्ध हैं।''

आयकर विभाग के अनुसार बीबीसी पर वित्तीय अनियमितता और टैक्स चोरी का आरोप है। ट्रांसफर प्राइसिंग नॉर्म्स और इंटरनेशनल टैक्सेशन के नियमों के उल्लंघन का भी आरोप है। विभाग ने बीबीसी से बैलेंस शीट और लेनदेन के ब्योरे की माँग की है। इस सिलसिले में बीबीसी के वित्त वर्ष 2012-13 के बाद किए गये सभी लेन-देन की जांच हो सकती है। मंगलवार को जब छापे की कार्रवाई शुरू हुई तो बीबीसी के कर्मचारियों को परिसर के अंदर एक विशेष स्थान पर अपने फोन रखने के लिए कहा गया था। कुछ कंप्यूटरों को जब्त कर लिया गया है वहीं कुछ कर्मचारियों के मोबाइल फोनों का क्लोन बनाया जा रहा है।

बीबीसी दफ्तर पर छापे की खबर फैलते ही मध्य दिल्ली के कस्तूरबा गांधी मार्ग स्थित बीबीसी कार्यालय के बाहर भारी संख्या में राहगीरों और मीडिया कर्मियों की भीड़ जमा हो गई। मुंबई में बीबीसी का कार्यालय सांताक्रुज में है। सर्वे के नियमों के तहत, आयकर विभाग केवल कंपनी के व्यावसायिक परिसर की ही जांच करता है और इसके प्रवर्तकों या निदेशकों के आवासों और अन्य स्थानों पर छापा नहीं मारता।

बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री

बीबीसी ने हाल में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर एक डॉक्यूमेंट्री का प्रसारण किया था। टह डॉक्यूमेंट्री भारत में प्रसारण के लिए नहीं थी, पर देश में लोगों ने इसे इंटरनेट से डाउनलोड करके कई जगह इसका प्रदर्शन किया। यह डॉक्यूमेंट्री 2002 के गुजरात दंगों पर थी। उस समय भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। डॉक्यूमेंट्री में कई लोगों ने गुजरात दंगों के दौरान नरेंद्र मोदी की भूमिका पर सवाल उठाए थे।

केंद्र सरकार ने इस डॉक्यूमेंट्री को प्रोपेगैंडा और औपनिवेशिक मानसिकता के साथ भारत-विरोधी बताते हुए भारत में इसे ऑनलाइन शेयर करने से ब्लॉक करने की कोशिश की थी। बीबीसी ने कहा था कि भारत सरकार को इस डॉक्यूमेंट्री पर अपना पक्ष रखने का मौक़ा दिया गया था, लेकिन सरकार की ओर से इस पेशकश पर कोई जवाब नहीं मिला। बीबीसी का कहना है कि "इस डॉक्यूमेंट्री पर पूरी गंभीरता के साथ रिसर्च किया गया, कई आवाज़ों और गवाहों को शामिल किया गया और विशेषज्ञों की राय ली गई और हमने बीजेपी के लोगों समेत कई तरह के विचारों को भी शामिल किया।"

बीबीसी का सर्वे क्यों?

सरकारी अधिकारियों के अनुसार यह सर्वे यह पता करने के लिए किया जा रहा है कि बीबीसी ने अवैध तरीके से लाभ तो प्राप्त नहीं किए हैं, जिनमें टैक्स शामिल है। बीबीसी लगातार जानबूझकर ट्रांसफर प्राइसिंग नियमों का उल्लंघन करता रहा है। एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को वस्तु या सेवा की कीमत देकर उसके हस्तांतरण को, ट्रांसफर प्राइस कहा जाता है। किसी बहुराष्ट्रीय ग्रुप के अलग-अलग पक्षों के बीच व्यावसायिक हस्तांतरण पर वही नियम लागू नहीं होते, जो दो स्वतंत्र फर्मों के बीच हुए हस्तांतरण पर लागू होते हैं। आयकर विभाग के अनुसार ट्रांसफर प्राइसिंग सामान्यतः सहयोगी उपक्रमों के बीच हुए हस्तांतरण के मूल्य होते हैं, जो दो स्वतंत्र उपक्रमों के बीच के हुए हस्तांतरण से भिन्न शर्तों पर होते हैं।

उदाहरण के लिए क कंपनी किसी वस्तु को 100 रुपये में खरीदती है और किसी अन्य देश में अपनी सहयोगी ख कंपनी को 200 रुपये में बेचा, जिसने उसे खुले बाजार में 400 रुपये में बेच दिया। यदि क ने उस वस्तु को सीधे बेचा होता, तो उसे 300 रुपये का लाभ होता, पर उसे ख के मार्फत बेचने पर उसे 100 का लाभ होगा और शेष लाभ ख को मिलेगा। इस प्रकार 200 रुपये का लाभ देश में मौजूद ख को मिला। वह वस्तु 200 रुपये की कीमत (ट्रांसफर प्राइस) पर बेची गई है न कि बाजार मूल्य (400 रुपये) पर।

ट्रांसफर प्राइसिंग से फर्क यह पड़ता है कि इस लेनदेन में पितृ कंपनी (या उसकी सहायक कंपनी) अपर्याप्त कर योग्य आय या अतिरिक्त हानि प्राप्त करती है। आयकर विभाग की वैबसाइट के अनुसार पितृ-कंपनी ऊँचे ट्रांसफर प्राइस की मदद से उन देशों में स्थित अपनी सहायक कंपनियों से ज्यादा लाभ हासिल कर सकती हैं, जहाँ टैक्स की दरें ऊँची हैं। और जिन देशों में टैक्स की दरें कम हैं वहाँ ट्रांसफर प्राइस कम रखकर सहायक कंपनी का लाभ बढ़ा सकती हैं।

इसी प्रकार जिन देशों में टैक्स की दरें ज्यादा हैं, वहाँ की पितृ-संस्था उस देश की सहायक कंपनी को जहाँ टैक्स बहुत कम है, कम मुनाफे पर माल बेच सकती है। इसके बाद सहायक कंपनी उस उत्पाद को आर्म्स लेंग्थ प्राइस पर बेच देती है। इसके बाद बढ़े हुए मुनाफे पर बहुत कम टैक्स पड़ेगा। इससे सरकार को राजस्व और विदेशी मुद्रा की हानि होगी। भारत के आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 92 एफ(2) में आर्म्स लेंग्थ प्राइस अनियंत्रित शर्तों वाली वह कीमत बताई गई है, जो ऐसे दो पक्षों के बीच हुए विनिमय में ली गई हो, जो आपस में सहयोगी नहीं है। आर्म्स लेंग्थ प्राइस कैसे तय होगा, इसकी व्याख्या धारा 92 सी(1) में की गई है। 

‘ऑपरेशन दोस्त’ और तुर्किये के साथ हमारे रिश्ते


तुर्की और सीरिया में आए विनाशकारी भूकंप के बाद सबसे पहले सहायता के लिए जो देश खड़े हुए हैं, उनमें भारत भी एक है. तुर्किये के साथ रिश्तों को देखते हुए कुछ लोगों ने इस सहायता पर सवाल खड़े किए हैं. उनका कहना है कि अतीत में हुई लड़ाइयों में तुर्की ने पाकिस्तान साथ दिया और वह संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के मसले को उठाता रहता है. वह हमारा दोस्त नहीं है, फिर इतनी हमदर्दी क्यों?

यह त्रासदी से जुड़ी मानवीय-सहायता की बात है, पर इस साल आम-बजट में अफगानिस्तान की सहायता के मद में रखी गई 200 करोड़ रुपये की धनराशि को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री ने जो टिप्पणी की, उसके पीछे भी ऐसा ही नज़रिया है. दोनों तरह की आपत्तियों को व्यक्त करने वालों ने जल्दबाजी में या देश की विदेश-नीति के बुनियादी-तत्वों और तथ्यों को समझे बगैर अपनी आपत्तियाँ व्यक्त की है.

मानवीय-सहायता

बुनियादी बात यह है कि मानवीय-सहायता के समय दोस्त-दुश्मन नहीं देखे जाते. मान्यताएं और परंपराएं ऐसी सहायता के लिए हमें प्रेरित करती हैं. राज-व्यवस्था से हमारी सहमति हो न हो, जनता से हमदर्दी तो है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है, भारतीय जनता की संवेदनाएं भूकंप पीड़ितों के साथ है.

‘ऑपरेशन दोस्त’ के तहत भारत लगातार मदद पहुंचा रहा है. इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सातवाँ विमान सहायता सामग्री लेकर तुर्किये (तुर्की ने जून 2022 में अपना नाम बदलकर तुर्किये कर लिया) पहुँच चुका है. भारतीय एनडीआरएफ की टीमें तुर्किये में राहत एवं बचाव कार्यों में लगी हैं. यह शुरुआती सहायता है, भविष्य में कई तरह की सहायता और सहयोग की जरूरत होगी.

इस प्रकरण ने भारत और तुर्किये के रिश्तों को समझने का मौका दिया है. सच यह है कि भारत के साथ तुर्किये के रिश्ते बहुत अच्छे नहीं, तो खराब भी नहीं रहते थे, पर एर्दोगान की नीतियों के कारण हाल के वर्षों में खलिश बढ़ी है.

Sunday, February 12, 2023

संसदीय-बहस ने खोले चुनाव-24 के द्वार


इस हफ्ते संसद में बजट से ज्यादा राष्ट्रपति का अभिभाषण चर्चा का विषय रहा। चर्चा का विषय यह नहीं था कि राष्ट्रपति ने क्या कहा, बल्कि इस अभिभाषण के मार्फत व्यापक सवालों से जुड़ी राजनीतिक-बहस संसद के दोनों सदनों में शुरू हुई है, जो संभवतः 2024 के लोकसभा चुनाव से जुड़े सवालों को छूकर गुजरेगी। भारत-जोड़ो यात्रा के अनुभव और आत्मविश्वास से भरे राहुल गांधी की राजनीतिक दिशा को भी इसके सहारे देखा-समझा जा सकता है। बहरहाल संसद के भीतर राहुल और उनके सहयोगियों ने सरकार को निशाना बनाया, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उतनी ही शिद्दत से उन्हें जवाब दिया। इस वाग्युद्ध की शब्दावली से अनुमान लगाया जा सकता है कि बहस का धरातल कैसा रहेगा। बहरहाल लोकसभा में प्रधानमंत्री के वक्तव्य के बाद माहौल में जो गर्मी पैदा हुई थी, उससे राज्यसभा में नाटकीयता बहुत ज्यादा बढ़ गई। इस दौरान संसदीय-बहस के कुछ मूल्य और सिद्धांतों को लेकर सवाल भी उठे हैं। सदन में किस प्रकार की शब्दावली की इस्तेमाल किया जाए, आरोप लगाते वक्त किन बातों को ध्यान में रखा जाए और किस प्रकार के बयानों को कार्यवाही से निकाला जा सकता है, ऐसे प्रश्न राष्ट्रीय-विमर्श के केंद्र में भी आए हैं। मोटे तौर पर यह सब उस राष्ट्रीय बहस का प्रस्थान-बिंदु है, जिसका समापन अब 2024 के चुनाव में ही होगा।

मोदी पर निशाना

लोकसभा में राहुल गांधी ने और राज्यसभा में मल्लिकार्जुन खड़गे ने नरेंद्र मोदी को सीधा निशाना बनाया, तो मोदी ने दोनों को करारे जवाब दिए। अलबत्ता राज्यसभा में कांग्रेस पार्टी ने लगातार नारेबाजी का सहारा लिया, जबकि लोकसभा में एकबार बहिर्गमन करने के बाद पार्टी के सदस्य सदन में वापस आ गए थे।  दोनों बातों से लगता है कि पार्टी तय नहीं कर पा रही है कि उसकी रणनीति क्या होगी। उसे अपना चेहरा सौम्य बनाना है या कठोर? अतीत का अनुभव है कि केवल मोदी पर हमला होने पर जवाबी प्रतिक्रिया का लाभ मोदी को ही मिलता है। 2002 के गुजरात चुनाव के बाद से अब तक का अनुभव यही रहा है। पूरी बहस पर नज़र डालें, तो उसमें राष्ट्रपति के अभिभाषण में व्यक्त बातों को शायद ही कही छुआ गया हो। मोदी ने लोकसभा में अपना वक्तव्य शुरू करते समय इस बात का उल्लेख किया भी था। बेशक इस बहस ने माहौल को सरगर्म कर दिया है, पर संसदीय-कर्म की गुणवत्ता के लिहाज से तमाम सवाल भी इसे लेकर उठे हैं।

एक अकेला, सब पर भारी

लोकसभा में मोदी ने कहा कि देश की 140 करोड़ जनता मेरे लिए ढाल का काम करती है, वहीं राज्यसभा में कहा, मैं अकेला बोल रहा हूं, उन्हें नारेबाजी के लिए लोग बदलने पड़ रहे हैं। और यह भी, कीचड़ उनके पास था, मेरे पास गुलाल। जो भी जिसके पास था, उसने दिया उछाल। जितना कीचड़ उछालोगे, कमल उतना ही ज्यादा खिलेगा। राज्यसभा में प्रधानमंत्री का भाषण शुरू होने के पहले ही विपक्ष ने नारेबाजी शुरू कर दी, जो उनके 90 मिनट के भाषण के दौरान लगातार जारी रही। इस पर मोदी बोले, देश देख रहा है कि एक अकेला कितनों पर भारी पड़ रहा है। नारे बोलने के लिए भी लोग बदलने पड़ रहे हैं। मैं अकेला घंटे भर से बोल रहा हूं, रुका नहीं। उनके अंदर हौसला नहीं है, वे बचने का रास्ता ढूंढ रहे हैं। एक अकेला, सब पर भारी 2024 के चुनाव में यह राजनीतिक नारा बनकर उभरे तो हैरत नहीं होगी। बजट सत्र शुरू होने के ठीक पहले गौतम अडानी की कंपनियों को लेकर हिंडनबर्ग रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद कांग्रेस के पास इससे जुड़े सवाल करने का यह बेहतरीन मौका था। राहुल गांधी ने अपने भाषण में इन सवालों को उठाया, जबकि प्रधानमंत्री ने इनका जिक्र भी नहीं किया। क्यों नहीं किया? इसके दो कारण बताए गए हैं। पहला कारण तकनीकी है। राहुल गांधी के वक्तव्य के वे अंश कार्यवाही से निकाल दिए गए हैं, जिनमें अडानी से जुड़े सवाल थे। जब सवाल ही कार्यवाही में नहीं है, तब जवाब कैसे? दूसरा कारण रणनीतिक है। जवाब देने पर उसमें विसंगतियाँ निकाली जातीं। पार्टी अभी उनसे बचना चाहती है।