जनवरी के आखिरी हफ्ते में जब गौतम अडानी के कारोबार को लेकर अमेरिकी रिसर्च कंपनी हिंडनबर्ग की रिपोर्ट सामने आई थी, तभी यह स्पष्ट था कि इसके पीछे अमेरिकी कारोबारी जॉर्ज सोरोस का हाथ है। यह कहानी 2017 में ऑस्ट्रेलिया में चले अडानी-विरोधी आंदोलन के दौरान स्पष्ट थी। विरोध की वजह से अडानी ग्रुप के प्रोजेक्ट की क्षमता सीमित हो गई थी। इस विरोध के तार कितनी दूर तक जुड़े हैं, इसे समझना आसान नहीं। अलबत्ता कहा जा सकता है कि सोरोस-प्रकरण से संगठित विदेशी-हाथ की पुष्टि हो रही है।
अडानी-विरोध के पीछे पर्यावरण-संरक्षण से जुड़े
संगठनों का हाथ ही होता, तो बात अलग थी। मान लेते हैं कि इसमें कारोबारी-प्रतिस्पर्धियों
की भूमिका होगी। अडानी की कंपनियाँ बंदरगाहों, एयरपोर्ट, टेलीकम्युनिकेशंस,
बिजलीघरों, खनन और इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी परियोजनाओं पर काम करती हैं। यह मामला
केवल कारोबार तक सीमित नहीं है। उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करीबी माना
जाता है। यदि इसके पीछे राजनीति है, तो सवाल होगा कि कैसी राजनीति? केवल मोदी और भारतीय जनता पार्टी निशाने पर है या भारतीय-अर्थव्यवस्था
है? कौन है इसके पीछे? क्या
यह पश्चिमी देशों में पनपने वाली भारत-विरोधी, हिंदू-राष्ट्रवाद विरोधी दृष्टि है?
क्या इसके सूत्र भारतीय-राजनीति से जुड़े हैं? क्या
यह भारतीय राजनीति में 2024 के चुनाव के पहले सीधे हस्तक्षेप की कोशिश है? भारत के भविष्य का फैसला देश का वोटर करेगा, विदेशी पूँजीपति नहीं।
सोरोस का एजेंडा
गत 16 फरवरी को म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस के सिलसिले में टेक्नीकल यूनिवर्सिटी ऑफ म्यूनिख में आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते
हुए जॉर्ज सोरोस के एक वक्तव्य और फिर केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के जवाबी बयान
के बाद यह मसला और जटिल हो गया है। स्मृति
ईरानी के बाद विदेशमंत्री एस जयशंकर ने भी उन्हें जवाब दिया है। शनिवार को
ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में रायसीना डायलॉग के उद्घाटन सत्र के दौरान जयशंकर ने कहा
कि सोरोस की टिप्पणी ठेठ 'यूरो अटलांटिक नज़रिये' वाली है। वे न्यूयॉर्क में बैठकर सोचते हैं कि उनके विचारों से पूरी दुनिया
की गति तय होनी चाहिए... अगर मैं ठीक से कहूं तो वे बूढ़े, रईस,
हठधर्मी और ख़तरनाक हैं। अगर आप इस तरह की अफ़वाहबाज़ी करेंगे,
जैसे दसियों लाख लोग अपनी नागरिकता से हाथ धो बैठेंगे तो यह वास्तव
में हमारे सामाजिक ताने-बाने को बहुत क्षति पहुंचाएगा। ऐसे लोग वास्तव में नैरेटिव
या बयानिया तय करने में अपने संसाधन लगाते हैं। उनके जैसे लोगों को लगता है कि अगर
उनकी पसंद का व्यक्ति जीते तो चुनाव अच्छा है और अगर चुनाव का परिणाम कुछ और आए,
तो वे कहेंगे कि यह खराब लोकतंत्र है। गजब की बात तो यह है कि यह सब कुछ खुले समाज
की वकालत के बहाने किया जाता है। भारत के मतदाताओं ने फैसला किया है कि देश कैसे
चलना चाहिए।
सवाल है कि सोरोस को बयान देने की जरूरत क्यों
पड़ी? वे क्या चाहते हैं? उनके
बयान का क्या विपरीत प्रभाव पड़ेगा? सोरोस
का एक राजनीतिक एजेंडा है और उनके साथ दुनियाभर के अकादमिक, मानवाधिकार संरक्षण और
मीडिया-संगठन जुड़े हैं। उन्होंने पहली
बार मोदी-सरकार पर हमला नहीं बोला है। इसके पहले वे वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में
सरकार की आलोचना कर चुके हैं। इतना ही नहीं वे अपने राजनीतिक-कार्यक्रम के लिए एक
अरब डॉलर के कोष की स्थापना कर चुके हैं। इसमें वे अरबों रुपया लगा रहे हैं। वे
अकेले नहीं हैं। उनके साथ एक पूरा नेटवर्क है। यह पागलपन है।
अडानी बहाना,
मोदी निशाना
अपने ताजा बयान में सोरोस ने अडानी को लेकर प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधा है। उन्होंने कहा, मोदी इस मुद्दे पर खामोश हैं, लेकिन उन्हें विदेशी निवेशकों और संसद में पूछे गए सवालों के जवाब देने होंगे। यह जवाबदेही सरकार पर मोदी की पकड़ को कमजोर कर देगी। मुझे उम्मीद है कि भारत में एक लोकतांत्रिक परिवर्तन होगा। उन्होंने यह भी कहा, भारत तो लोकतांत्रिक देश है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकतांत्रिक नहीं हैं। उनके इतनी तेज़ी से आगे बढ़ने के पीछे भारतीय मुसलमानों के साथ हिंसा भड़काना एक बड़ा कारक रहा है।
बात केवल अडानी-संदर्भ तक सीमित नहीं है। ज्यादा महत्वपूर्ण है कश्मीर से 370 हटाने का विरोध और नागरिकता कानून को लेकर उनकी राय। वे दुनिया में बढ़ रहे राष्ट्रवादी विचार के विरोधी हैं। उन्होंने 2020 में एक ग्लोबल यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिए एक अरब डॉलर के दान की घोषणा की थी। इस विवि का उद्देश्य राष्ट्रवादी विचार से लड़ना है। सोरोस ने कहा कि राष्ट्रवाद बहुत आगे निकल गया है। सबसे बड़ा और सबसे भयावह झटका भारत में लगा है, क्योंकि वहाँ लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित नरेंद्र मोदी भारत को एक हिंदू राष्ट्रवादी देश बना रहे हैं। वे कश्मीर में सख्ती कर रहे हैं, जो अर्ध-स्वायत्त मुस्लिम क्षेत्र है और वे लाखों नागरिकों को उनकी नागरिकता से वंचित करने की धमकी दे रहे हैं।
स्मृति ईरानी
का जवाब
सोरोस साफ-साफ मोदी-सरकार को हराने या हटाने का
आह्वान कर रहे हैं। क्या यह भारत की राजनीतिक-प्रक्रिया में विदेशी हस्तक्षेप नहीं
है? स्मृति ईरानी ने
इसके जवाब में कहा कि विदेशी जमीन से भारतीय लोकतांत्रिक ढांचे को हिलाने की कोशिश
की जा रही है। सोरोस ने भारत के लोकतंत्र में दखल देने की कोशिश की है। देश की
जनता को इस विदेशी ताकत को माकूल जवाब देना चाहिए। कांग्रेस के जयराम रमेश ने भी
जॉर्ज सोरोस को फटकारा है। उन्होंने कहा, अडानी घोटाले की
प्रतिक्रिया में भारत में लोकतांत्रिक पुनरुत्थान होगा या नहीं, यह पूरी तरह
कांग्रेस, विरोधी दलों और हमारी चुनाव प्रक्रिया पर
निर्भर है। इसका जॉर्ज सोरोस से कोई लेना-देना नहीं हैं हमारी नेहरूवादी विरासत सुनिश्चित
करती है कि उन जैसे लोग हमारे चुनाव परिणाम तय नहीं कर सकते। कांग्रेस को ऐसा
वक्तव्य क्यों जारी करना पड़ा, यह भी स्पष्ट है। सोरोस के बयान का बैकलैश होगा। या
तो सोरोस भारतीय मनोदशा को समझते नहीं है या उन्हें सलाह देने वालों की समझ में
दोष है। उनके बयान से इस आरोप की पुष्टि हो रही है कि भारतीय-राजनीति में
विदेशी-संस्थाएं हस्तक्षेप कर रही हैं। 2024 के चुनाव के पहले से अमेरिकी-ब्रिटिश
मीडिया का एक हिस्सा नरेंद्र मोदी के सीधे विरोध में उतर आया है।
सोरोस कौन?
स्मृति ईरानी ने सोरोस पर निशाना साधते हुए कहा
कि जिस व्यक्ति ने इंग्लैंड के बैंक को तोड़ दिया, जिसे आर्थिक युद्ध-अपराधी के रूप में नामित किया
गया, उसने अब भारतीय लोकतंत्र को तोड़ने का ऐलान
किया है। सोरोस करेंसी और शेयर बाजार के
खिलाड़ी है और उन्होंने इसी महारत के सहारे 16 सितंबर, 1992 को बैंक ऑफ इंग्लैंड
को ध्वस्त (कड़का) करते हुए ब्रिटिश पाउंड की बुनियाद पर चोट की थी। उसके बाद
ब्रिटिश सरकार को यूरोपियन एक्सचेंज रेट मिकैनिज्म (ईआरएम) के समझौते से बाहर
निकलना पड़ा था। ईआरएम से जुड़ने का मतलब था यूरोपियन अर्थव्यवस्था से जुड़ना। उस
चक्कर में सोरोस ने करीब एक अरब डॉलर की कमाई की थी। 1988 में फ्रांस के एक बैंक पर कब्जे की कोशिश में 2002
में एक अदालत ने उनपर 23 लाख डॉलर का जुर्माना भी लगाया था। 2006 में फ्रांस के
सुप्रीम कोर्ट ने उस सजा को बरकरार रखा।
भारत में दिलचस्पी
जॉर्ज सोरोस ने अपने देश में डोनाल्ड ट्रंप, रूस के पुतिन और चीन के शी
चिनफिंग की आलोचना भी की है, पर उनकी दिलचस्पी भारत की राजनीति में बहुत ज्यादा
है। रूस और चीन की व्यवस्थाओं के मुकाबले भारतीय व्यवस्था काफी खुली हुई है,
जिसमें लोकतांत्रिक-मूल्यों की रक्षा के नाम पर विदेशी-तत्वों की सक्रियता संभव भी
है। सोरोस ने अपनी करीब 65 प्रतिशत पूँजी यानी 32
अरब डॉलर की धनराशि अपने ओपन सोसायटी फाउंडेशन में लगा दी है, जो करीब 100 देशों
में सक्रिय है। भारत में उनका संगठन 1999 से सक्रिय है। यानी कि एनडीए की सरकार बनने के बाद से उनकी दिलचस्पी भारत में जागी
है। उनकी विचारधारा लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रसिद्ध प्रोफेसर कार्ल पॉपर के
विचारों पर आधारित है, जिसके अनुसार वही समाज समृद्ध हो सकते हैं, जहाँ सरकारें
लोकतांत्रिक हों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो और व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा हो।
मूलतः यह पूँजीवादी-अवधारणा है, जो पारदर्शिता का समर्थन करती है। 2008 में सोरोस
इकोनॉमिक डेवलपमेंट फंड ने ओमिडयार नेटवर्क, इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस और गूगल डॉट
ओआरजी के साथ सॉन्ग फंड बनाया। भारत में कई प्रकार की स्कॉलरशिप वे देते हैं और
तमाम एनजीओ और मीडिया संगठन भी परोक्ष रूप से उनकी सहायता पाते हैं। उन्हें
हिंदू-राष्ट्रवाद खतरनाक लगता है, पर वे कश्मीर में इस्लामिक कट्टरपंथ को नहीं देख
पा रहे हैं।
भारत से नफरत
सवाल है कि वे भारतीय लोकतंत्र से नाराज क्यों
हैं? उन्होंने अपने वक्तव्य में भारत के
हिंदू राष्ट्र की दिशा में बढ़ने का अंदेशा भी जाहिर किया है। क्या उनका अंदेशा
सही है? क्या वे भारतीय लोकतंत्र की दिशा को सही पढ़ पा
रहे हैं? भारत में कांग्रेस के पराभव और मोदी की
सफलता को क्या उन्होंने समझने की कोशिश की है? दूसरी
तरफ बढ़ते भारत-द्वेष का मतलब क्या है? यह सब मोदी के कारण नहीं है।
कश्मीर-समस्या के उलझने के पीछे ब्रिटिश-अमेरिकी भूमिका है। यह संयोग नहीं कि भारत
सरकार के खिलाफ शोर मचाने वाले भारतीय मीडिया प्लेटफॉर्मों को पश्चिम से पैसा और
प्रोत्साहन मिल रहा है। इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट (आईपीआई) के पुरस्कारों पर
नजर डालें। आईआईपी को यूरोपियन आयोग, स्वीडन, ऑस्ट्रिया की सरकारों और जॉर्ज सोरोस के ओपन सोसायटी फाउंडेशन से
आर्थिक सहायता मिलती है। इन दातव्य संस्थाओं की भारतीय राजनीति में दिलचस्पी है।
आईपीआई ऐसे अमेरिकी कानूनों का सवाल नहीं उठाता, जो
आतंकवाद के विरुद्ध बनाए गए हैं, पर भारत के कानूनों का सवाल उठाता है।
पश्चिम की संस्थाओं और मीडिया में भारतीय-राष्ट्रवाद से नफरत और ह्वाइट सुप्रीमेसी
को पढ़ा जा सकता है। यह प्रवृत्ति बढ़ रही है।
पश्चिमी-नज़रिया
पिछले साल अगस्त में न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक
लेख प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक था, ‘मोदीज़ इंडिया इज़
ह्वेयर ग्लोबल डेमोक्रेसी डाइज़।’ भारत में लोकतंत्र की मौत हो रही है। यह लेख तब
प्रकाशित हुआ, जब हम अपनी स्वतंत्रता के 75 वर्षों का
उत्सव मना रहे थे। क्या यह ह्वाइट सुप्रीमेसी की अभिव्यक्ति है? इसी अखबार ने भारत के चंद्रयान का
कार्टून बनाकर मजाक उड़ाया और बाद में माफी भी माँगी। उसके एक साल पहले भारतीय
विदेश-सेवा से जुड़े 20 पुराने अधिकारियों ने विश्व व्यापार संगठन के नाम एक
चिट्ठी लिखी थी, जिसमें डब्लूटीओ, अमेरिका, ब्रिटेन और दूसरे पश्चिमी देशों के
राजनीतिक समूहों को कोसा गया था। मौका था किसान आंदोलन के कारण पैदा हुई राजनीतिक
परिस्थितियों का। इसमें लिखा गया था कि आप हमें बाजार खोलने का सुझाव भी देंगे और
नसीहत भी देंगे कि ऐसे नहीं वैसे चलो। उस मौके पर नीदरलैंड्स के पूर्व राजदूत
अलफोंसस स्टोलिंगा ने एक रोचक ट्वीट किया। उन्होंने लिखा, हमारे
मीडिया में लेखक तमाम विषयों पर तमाम बातें लिखते है, पर
भारत के बारे में उनकी जानकारी अधूरी है, केवल अंग्रेजी मीडिया तक सीमित। वे
भारतीय समाज और संस्कृति की उदार-पृष्ठभूमि को देख नहीं पा रहे हैं।
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