एकसाथ आई दो खबरों से ऐसा लगने लगा है कि अर्थव्यवस्था चौपट हो रही है और
विकास के मोर्चे पर सरकार फेल हो रही है। इस मामले के राजनीतिक निहितार्थ हैं,
इसलिए शोर कुछ ज्यादा है। इस शोर की वजह से हम मंदी की ओर बढ़ती अर्थव्यवस्था के
कारणों पर ध्यान देने के बजाय उसके राजनीतिक निहितार्थ पर ज्यादा ध्यान दे रहे
हैं। कांग्रेस समेत ज्यादातर विरोधी दल नोटबंदी के फैसले को निशाना बना रहे हैं। इस
मामले की राजनीति और अर्थनीति को अलग करके देखना मुश्किल है, पर उसे अलग-अलग करके
पढ़ने की कोशिश करनी चाहिए।
बुनियादी रूप से केंद्र सरकार ने कुछ फैसले करके जो जोखिम मोल लिया है,
उसका सामना भी उसे करना है। बल्कि अपने फैसलों को तार्किक परिणति तक पहुँचाना
होगा। अलबत्ता सरकार को शाब्दिक बाजीगरी के बजाय साफ और खरी बातें कहनी चाहिए। जिस
वक्त नोटबंदी हुई थी तभी सरकार ने माना था कि इस फैसले का असर अर्थव्यवस्था पर
पड़ेगा, पर यह छोटी अवधि का होगा। इन दिनों हम जीडीपी में गिरावट के जिन आँकड़ों
पर चर्चा कर रहे हैं, वे नोटबंदी के बाद की दूसरी तिहाई से वास्ता रखते हैं। हो
सकता है कि अगली तिहाई में भी गिरावट हो, पर यह ज्यादा लंबी नहीं चलेगी।