संसदीय मर्यादाओं
और राजनीतिक शब्दावली को लेकर गंभीर विमर्श की जरूरत दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। इसकी
जिम्मेदारी राजनीतिक दलों की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह को लेकर जो बात कही और उसे लेकर कांग्रेस पार्टी ने जो प्रतिक्रिया
व्यक्त की, दोनों से साफ जाहिर है कि ताली एक हाथ से नहीं बज सकती। इस कटुता को
रुकना चाहिए। और इसकी जगह गंभीर विमर्श को बढ़ाया जाना चाहिए।
गुजरात में सन
2007 के विधानसभा चुनाव की शुरुआत में सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कहा था। पिछले साल सर्जिकल स्ट्राइक के बाद
राहुल गांधी ने ‘खून की दलाली’ शब्दों का इस्तेमाल किया था। कोई
मौका ऐसा नहीं होता, जब राजनीति में आमराय दिखाई पड़ती हो। बेशक सभी दलों के हित
अलग-अलग हैं, पर कहीं और कभी तो आपसी सहमति भी होनी चाहिए।