लोकसभा राज्यसभा में प्रधानमंत्री के भाषण और उन्हें लेकर कांग्रेसी प्रतिक्रिया के साथ संसदीय मर्यादा के सवाल खड़े हुए हैं। राजनीतिक शब्दावली को लेकर संयम बरतने की जरूरत है। वोट की राजनीति ने समाज के ताने-बाने में कड़वाहट भर दी है। उसे दूर करने की जरूरत है। इस घटनाक्रम पर गौर करें तो पाएंगे कि इन बातों में क्रमबद्धता है। क्रिया की प्रतिक्रिया है। दोनों पक्ष एक-दूसरे को जवाब देना चाहते हैं। सवाल है कि क्या संसद इसी काम के लिए बनी है?
प्रधानमंत्री ने राज्यसभा में मनमोहन सिंह पर ‘रेनकोट पहन कर नहाने’ के जिस रूपक इस्तेमाल किया, उसे कांग्रेस ने ‘तल्ख और बेहूदा’ करार दिया है। कांग्रेस चाहती है कि पूर्व प्रधानमंत्री की मर्यादाएं हैं। उनका सम्मान होना चाहिए। पर क्या कांग्रेस प्रधानमंत्री के पद की गरिमा को मानती है? राज्यसभा में मोदी के भाषण के दौरान विरोधी कुर्सियों से जिस तरह से टिप्पणियाँ हो रहीं थी क्या वह उचित था? संभव है कि यह किसी योजना के तहत नहीं हुआ हो, पर माहौल में उत्तेजना पहले से थी। बीच में एकबार वेंकैया नायडू ने उठकर कहा भी कि क्या यह ऐसे ही चलता रहेगा? क्या रनिंग कमेंट्री चलती रहेगी?
इसके पहले नवम्बर में उन्होंने राज्यसभा में कहा कि नोटबंदी का फैसला ‘संगठित लूट और कानूनी डाकाजनी’ (ऑर्गनाइज्ड लूट एंड लीगलाइज्ड प्लंडर) है। मनमोहन सिंह की अर्थ-शास्त्री छवि का लाभ लेकर कांग्रेस ने मोदी पर हमले बोले। यों भी पिछले दो-तीन सत्र से संसद में दोनों पक्षों के बीच खुला टकराव चल रहा है। पूरा शीत सत्र इस टकराव के कारण बेकार हो गया। सत्र के खत्म होते-होते राहुल गांधी ने वह बयान दिया, ‘मैं बोलूँगा तो भूकम्प आ जाएगा।’
मंगलवार को नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में अपने भाषण की शुरुआत वहीं से की। उन्होंने कहा, ‘...लेकिन आखिर भूकम्प आ ही गया...धमकी तो बहुत पहले सुनी थी।’ उस दिन मोदी ने संसद में अब तक का सबसे लम्बा भाषण दिया। इसमें उन्होंने कांग्रेस पार्टी और खासतौर से राहुल गांधी पर काफी चुटकियाँ लीं। भाजपा-विरोधी दलों का कहना है कि यह चुनावी भाषण था। इसका उद्देश्य उत्तर प्रदेश के वोटर को संदेश देना था। बहरहाल यह राजनीति है।
बुधवार को राज्यसभा में जो टकराव हुआ वह संयोगवश नहीं था। मनमोहन सिंह के ‘संगठित और कानूनी डाकाजनी’ शब्द बीजेपी ने नोट करके रखे थे। ये बातें राज्यसभा में ही कही गईं थीं। मोदी ने कहा, इतने बड़े व्यक्ति ने सदन में ‘लूट और प्लंडर’ जैसे शब्द प्रयोग किए थे। तब पचास बार उधर भी सोचने की जरूरत थी। हम भी उसी ‘कॉइन’ में वापस देने की ताकत रखते हैं। मोदी ने वस्तुतः कहा कि पार्टी मनमोहन सिंह के नाम का इस्तेमाल कर रही है।
मर्यादा एकतरफा नहीं होती। कांग्रेस और मोदी की कड़वाहट सन 2007 में शुरू हुई, जब सोनिया गांधी ने पहली बार उन्हें ‘मौत का सौदागर’ कहा था। उसके बाद से उन्हें निकृष्ट ही साबित करने की कोशिश की गई। हाल में प्रमोद तिवारी ने नोटबंदी के सिलसिले में कहा, किसी सभ्य देश ने यह नहीं किया, जिसने किए हैं उनके नाम इतिहास में है। पहला गद्दाफी, दूसरा मुसोलिनी, तीसरा हिटलर और चौथा मोदी। सर्जिकल स्ट्राइक के संदर्भ में राहुल गांधी का ‘खून की दलाली’ बयान हाल की बात है। ऐसे ही संदर्भों में वेंकैया नायडू ने कहा, हमारे प्रधानमंत्री को हिटलर और मुसोलिनी कहा गया।
सन 2013 में प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी और मनमोहन सिंह को लेकर जो बातें कहीं, उनसे कांग्रेस की छवि खराब हुई। ‘पप्पू’ शब्द उसी दौर की देन है। उधर संसदीय रणनीति माहौल को और कड़वा बना रही है। कांग्रेस पार्टी ने सन 2015 में संसद के मॉनसून सत्र को सायास धो डाला था। पर सिर्फ एक भाषण में उस तूफान का रुख सुषमा स्वराज ने मोड़ दिया था। संसद के पिछले शीत सत्र को कांग्रेस ने ठप कर रखा था। वहीं भाजपा को जब इस बात का संकेत मिला कि राहुल गांधी सहारा दस्तावेजों को संसद में उठाना चाहते हैं तो उसने भी गतिरोध का रास्ता पकड़ लिया। नुकसान किसका हुआ?
कांग्रेस पार्टी ने कहा है कि नरेंद्र मोदी को मनमोहन सिंह के बारे में कही गई अपनी बातों के लिए माफी माँगनी चाहिए। पूर्व पीएम के बारे में इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करना किसी भी पीएम के लिए अच्छी बात नहीं है। उधर केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है कि माफी तो कांग्रेस को मोदी के भाषण में बार-बार खलल डालने के लिए मांगनी चाहिए।
मनमोहन सिंह ने जब राज्यसभा में नोटबंदी को कानूनी डाकाजनी कहा था, यह कड़वाहट उस दिन नहीं थी। तब भाषण के बाद लंच ब्रेक के वक्त नरेंद्र मोदी ने मनमोहन सिंह के पास जाकर उनसे हाथ मिलाया था। सामान्यतः राजनेताओं के आपसी रिश्ते अच्छे होते हैं। शब्दों की गरमी और नरमी हालात पर निर्भर करती है।
पिछले हफ्ते तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी के नेताओं को निर्देश दिया है कि वे नोटबंदी की आलोचना जरूर करें, पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधे हमले करने से बचें। तृणमूल की इस रणनीति के पीछे संसदीय मर्यादा है या बदलते हालात? पता नहीं, अलबत्ता जरूरत इस बात की है कि राजनीतिक दल आपस में बैठकर इसका हल खोजें, क्योंकि साख उनकी दाँव पर है।
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