क्या वास्तव में सरकारें किसी कानूनी-प्रक्रिया को अपनाए बगैर तोड़फोड़ कर रही हैं? या तथ्य कुछ और हैं? ऐसे ही सवाल हिंसा के दौरान नष्ट हुई सार्वजनिक संपत्ति को लेकर भी हैं। अदालत को देखना होगा कि उसकी भरपाई कौन करेगा? अब जब फोटोग्राफी एक-एक चेहरे की पहचान बताने लगी है, तब अपराधियों को सजा कैसे मिलेगी? उत्तर प्रदेश राज्य की ओर से देश के सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, जो हुआ, वह नियमानुसार है। याचिकाकर्ता मामले को अदालत के सामने गलत ढंग से रख रहे है। नोटिस बहुत पहले जारी किए गए थे, ये लोग पेश नहीं हुए।
जस्टिस गवई ने कहा, निर्माण अनधिकृत हैं, तब भी यह काम कानून के अनुसार होना चाहिए। बहरहाल यह
भी साफ है कि सरकार के रेडार पर अनियमितताओं का लेखा-जोखा है, पर कार्रवाई तभी होती
है, जब कोई वजह हो। ईडी, सीबीआई और बुलडोज़र सब इस बात के सबूत हैं कि जिनपर
कार्रवाई होती है, उनके काम में कोई न कोई गड़बड़ी भी होती है।
इस बात का महत्वपूर्ण पहलू राजनीतिक है। उत्तर प्रदेश ने बुलडोजर 'न्याय' को राजनीतिक मसला बनाया। विरोधियों ने भी उसका विरोध किया, क्योंकि ऐसी कार्रवाई अल्पसंख्यकों पर ज्यादा हुई है। दिल्ली में शाहीनबाग आंदोलन के दौरान हुई हिंसा के समानांतर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी हिंसा हुई थी। उस वक्त सवाल था कि ट्रंप की भारत यात्रा के दौरान फसादों के पीछे क्या कोई राजनीतिक साजिश है? शाहीनबाग में लंबे समय तक सड़क घिरने और फिर किसान आंदोलन के दौरान 26 जनवरी को दिल्ली में हुए उत्पात ने भी इन सवालों को जन्म दिया था। उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश सरकार ने सार्वजनिक संपत्ति की क्षतिपूर्ति के नोटिस दिए थे। बाद में बुलडोजर कार्रवाइयाँ भी हुईं। ऐसी तोड़फोड़ दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी हुई है।
इस साल हुए लोकसभा चुनाव में कुछ प्रत्याशियों
ने ‘बुलडोजर’ को अपनी राजनीति का रूपक बनाकर पेश
किया था। बुलडोजर का भी एक वोटबैंक है। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे
ने कहा कि देश में ‘बुलडोजर न्याय’ की कोई जगह नहीं है। अल्पसंख्यकों को
बार-बार निशाना बनाना बेहद परेशान करता है। उनकी यह टिप्पणी मध्य प्रदेश के छतरपुर
जिले में विरोध प्रदर्शन के दौरान हुई हिंसा में शामिल एक व्यक्ति के घर को ध्वस्त
किए जाने के बाद आई थी। दोनों बातों के संदर्भ राजनीतिक ज्यादा है, न्यायिक कम।
बात बुलडोजर-न्याय तक सीमित नहीं है। न्याय में
विलंब को लेकर भी सवाल हैं। अदालत की टिप्पणी के एक दिन पहले ही राष्ट्रपति
द्रौपदी मुर्मू ने रविवार को कहा कि त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के लिए अदालतों
में ‘स्थगन की संस्कृति’ को बदलने की जरूरत है। जिस कार्यक्रम में उन्होंने यह बात
कही थी, उसमें उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ भी मौजूद थे। इसके
पहले राष्ट्रपति ने कोलकाता के बलात्कार कांड के संदर्भ में कहा था, ‘अब बहुत हो गया।’
भले ही यह बात राजनीति
के गलियारों में जाकर उलझ गई है, पर यह केवल राजनीति तक सीमित नहीं है। दिसंबर
2012 में दिल्ली में बलात्कार की घटना के बाद जनता का गुस्सा फूटा था। उसके बाद दिसंबर
2019 में हैदराबाद में एक बलात्कार के बाद पुलिस की गोली से चारों अभियुक्त मारे
गए। आमतौर पर एनकाउंटरों को जनता स्वीकार नहीं करती, पर हैदराबाद में पुलिस की
गोली से अभियुक्तों की मौत पर बड़ी संख्या में लोगों ने कहा, जो हुआ वह ठीक हुआ। पुलिस
वालों को फूल मालाएं पहनाई गईं। आम प्रतिक्रिया थी, ऐसे दस-बीस एनकाउंटर और होंगे, तभी अपराधियों के मन में दहशत पैदा होगी।
तब ज्यादातर राजनीतिक
नेताओं और सेलेब्रिटीज़ ने एनकाउंटरों का समर्थन किया था। संसद में ऐसी बातें कही
गईं, जिन्हें सुनकर हैरत होती थी। जुलाई 2020 में कानपुर के अपराधी विकास दुबे की
मौत के बाद भी ऐसी बातें कही गईं। संयोग से उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश में त्वरित
न्याय की बुलडोजर शैली जन्म ही ले रही थी। फिर अतीक अहमद प्रसंग हुआ।
असली बात है न्याय
व्यवस्था पर से जनता के भरोसे का डोलना। इस अविश्वास के जवाब में किसी ने कहा, ‘प्रक्रिया हमें थकाती है, फ्रस्ट्रेट
करती है, निराश भी करती है लेकिन नागरिकों को क़ानूनी
प्रक्रिया के साथ ही होना चाहिए, क्योंकि वही प्रक्रिया उन्हें सुरक्षा भी देती है…।’
नवोदय टाइम्स में प्रकाशित आलेख का परिवर्धित संस्करण
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