आम आदमी पार्टी से उसके
वरिष्ठ सदस्य आशुतोष का इस्तीफा ऐसी खबर नहीं है, जिसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ हों.
इस्तीफे के पीछे व्यक्तिगत कारण नजर आते हैं. और समय पर सामने भी आ जाएंगे. अलबत्ता
यह इस्तीफा ऐसे मौके पर हुआ है, जब इस पार्टी के भविष्य को लेकर सवाल खड़े हो रहे
हैं. एक सवाल यह भी है कि इस पार्टी में बार-बार इस्तीफे क्यों होते हैं?
आशुतोष ने अपने इस्तीफे
की घोषणा ट्विटर पर जिन शब्दों से की है, उनसे नहीं लगता कि किसी नाराजगी में यह
फैसला किया गया है. दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल ने जिस अंदाज में ट्विटर पर उसका
जवाब दिया है, उससे लगता है कि वे इस इस्तीफे के लिए तैयार नहीं थे.
गमसुम इस्तीफा क्यों?
आशुतोष ने अपने ट्वीट में
कहा था, हर यात्रा का एक अंत होता है.‘आप’ के साथ मेरा जुड़ाव बहुत अच्छा/क्रांतिकारी
था, उसका भी अंत आ गया है. इस ट्वीट के तीन मिनट बाद उन्होंने एक और ट्वीट किया,
जिसमें मीडिया के दोस्तों से गुज़ारिश की, ‘मेरी निजता का सम्मान
करें. मैं किसी तरह से कोई बाइट नहीं दूंगा.’
आशुतोष अरविंद केजरीवाल
के करीबी माने जाते रहे हैं. पिछले चार साल में कई लोगों ने पार्टी छोड़ी, पर आशुतोष
ने कहीं क्षोभ व्यक्त नहीं किया. फिर भी तमाम तरह के कयास हैं. कहा जा रहा है कि पार्टी
की ओर से राज्यसभा न भेजे जाने की वजह से वे नाराज चल रहे थे. शायद वे राजनीति को
भी छोड़ेंगे वगैरह.
आम आदमी पार्टी के
ज्यादातर संस्थापक सदस्यों की पृष्ठभूमि गैर-राजनीतिक है. ज्यादा से ज्यादा लोग
एक्टिविस्ट हैं, पर आशुतोष की पृष्ठभूमि और भी अलग थी. वे खांटी पत्रकार थे और
शायद उनका मन बीते दिनों को याद करता होगा.
पत्रकारिता में
वापसी होगी?
उन्होंने ऐसा कभी कुछ
नहीं कहा कि मुझे राजनीतिक जीवन रास नहीं आ रहा, पर लगता है कि वे अपने पत्रकारीय
जीवन पर वापस जाना चाहेंगे.ऐसा लगता है कि राजनीति में उनका करियर ठहर गया था.‘आप’ से परे उनके जीवन में राजनीति का मतलब वही है,
जो एक पर्यवेक्षक के लिए होता है. इसलिए पत्रकारिता में उनकी वापसी सम्भव है.
देश की पत्रकार बिरादरी अब राजनीतिक रंगत वाले
साथियों को स्वीकार करती है. खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने एक नई पत्रकार
विरादरी को जन्म दिया है. बहरहाल यह एक अलग डिबेट का विषय है, फिलहाल सवाल ‘आप’ के भविष्य को लेकर है.
‘आप’ का क्या होगा?
आशुतोष ने अपने ट्वीट में ‘आप’ के साथ रिश्तों का जिक्र करते हुए उसे सुंदर/क्रांतिकारी लिखा है. पर उसका भी अंत हुआ.
प्रकारांतर से यह बात ‘आप’ के पूरे आंदोलन पर लागू होती है. जिस वक्त यह
आंदोलन था और पार्टी नहीं बनी थी, तब बहस का विषय यह था कि अब आगे क्या? और जब पार्टी बन गई और करीब पाँच साल में उसे
सत्ता की ‘खुशबू’ मिल गई तो सवाल है
कि अब आगे क्या?
पार्टी के विचारकों और सूत्रधारों को ऐसे सवालों
का जवाब देना है. पार्टी ने दिल्ली और पंजाब में जमीन तैयार की है. ‘आप’ को जो भी सफलता मिली है, वह परम्परागत राजनीति
के खिलाफ जनता के मन में बैठे असंतोष के कारण है.
आंदोलन है या पार्टी?
दुर्भाग्य से इस पार्टी का आचरण उसी राजनीति
जैसा है, जिसके विरोध में यह खड़ी हुई है. ‘प्रचार-कामना’ इसकी दुश्मन है. इसमें बड़ी संख्या में ऐसे लोग
शामिल हैं, जो बीजेपी, कांग्रेस या ऐसे ही दलों में जगह नहीं बना पाए.
इस पार्टी ने अपने आंतरिक फैसलों के लिए
लोकतांत्रिक तौर-तरीकों को विकसित नहीं होने दिया. यहाँ भी हाइकमान है. यह हाईकमान
शैली वहीं काम करती है, जहाँ सत्ता की यथेष्ट शक्ति केंद्र के पास हो. दिल्ली में
यह कुछ समय के लिए ताकत जरूर बनी, पर भविष्य नजर नहीं आ रहा.
अटपटे कारणों से खबरों में
अब यह पार्टी किसी न किसी गैर-जरूरी या अटपटी बात
के कारण चर्चा में रहती है. पन्द्रह-बीस दिन में इससे जुड़ी कोई न कोई अनोखी बात
होती रहती है. इसकी एक वजह यह है कि शुरू से ही इसकी दिशा अस्पष्ट रही है.
पार्टी ने शुरुआत में खुद को बीजेपी और कांग्रेस
से अलग दिखाने की कोशिश की, पर 2014 के चुनाव में अनायास इसके नेतृत्व ने मोदी के
समांतर खड़े होने की कोशिश की. संयोग से दिल्ली में उसे सफलता मिली.
दिल्ली की सफलता
दिल्ली की सफलता में काफी बड़ी भूमिका कांग्रेस
विरोधी वोटरों की भी थी. अब कांग्रेस ने दिल्ली में अपनी स्थिति मजबूत कर ली है.
यह मजबूती ‘आप’ की परेशानी का कारण है. पिछले कुछ समय से
पार्टी कांग्रेस के साथ गठबंधन की मनुहार कर रही थी. कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं
है.
केजरीवाल को विरोधी दलों की जमात में तो जगह मिल
गई, पर कांग्रेस का साथ नहीं मिला. पिछले दिनों जब दिल्ली के एलजी के घर पर
केजरीवाल सरकार धरने पर बैठी थी, तब चार राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने उनका समर्थन
किया था. पर वह समर्थन दिल्ली में किसी काम का नहीं था.
कांग्रेस की झिड़की
कांग्रेस की झिड़की ‘आप’ पर भारी पड़ रही है. यहाँ तक कि राज्यसभा के
उप-सभापति चुनाव में कांग्रेस ने बीके हरिप्रसाद के पक्ष में उससे वोट भी नहीं
माँगा. इस बात से उत्तेजित होकर ‘आप’ ने चुनाव का बहिष्कार किया और फिर अरविंद केजरीवाल ने घोषणा की कि हम अगले आम चुनाव में विपक्ष
के प्रस्तावित गठबंधन में शामिल नहीं होंगे.
उन्होंने यह भी कहा,‘गठबंधन की राजनीति से कोई
फर्क नहीं पड़ता. मेरे लिए राजनीति का मतलब जनता और उसका विकास है.’ सच यह है कि वे अकेले
पड़ गए हैं, और आगे की उनकी डगर काफी कठिन है. हो सकता है कि आशुतोष के इस्तीफे का इन
बातों से कोई वास्ता न हो. शायद वे अब अपने बारे में सोचने लगे हों, पर अब पार्टी
को भी अपने बारे में सोचना चाहिए.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (17-08-2018) को "दुआ करें या दवा करें" (चर्चा अंक-3066) (चर्चा अंक-3059) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
पत्ते के आगे पत्ता पत्ते के पीछे पत्ता
ReplyDeleteबीच में फंसा खुद एक बेचारा पत्ता।
अब तो घर घर राजनीति है।
और हर गली राजनीतिज्ञ।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र तय करने वाले सर्वप्रिय अटल जी को सादर नमन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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