सतीश आचार्य का कार्टून साभार |
भाजपा-विरोधी दलों की राष्ट्रीय-एकता की खबरों
के बीच एक रोचक सम्भावना बनी है कि क्या राष्ट्रीय राजधानी में आम आदमी पार्टी और
कांग्रेस का भी गठबंधन होगा? हालांकि दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष
अजय माकन ने ऐसी किसी सम्भावना से इंकार किया है, पर राजनीति में ऐसे इंकारों का
स्थायी मतलब कुछ नहीं होता.
पिछले महीने कर्नाटक में जब एचडी कुमारस्वामी
के शपथ ग्रहण समारोह में अरविंद केजरीवाल और सोनिया-राहुल एक मंच पर खड़े थे, तभी
यह सवाल पर्यवेक्षकों के मन में कौंधा था. इसके पहले सोनिया गांधी विरोधी दलों की
एकता को लेकर जो बैठकें बुलाती थीं, उनमें अरविन्द केजरीवाल नहीं होते थे. कर्नाटक
विधान-सौध के बाहर लगी कुर्सियों की अगली कतार में सबसे किनारे की तरफ वे भी बैठे
थे.
हाई कमान की इच्छा क्या है?
हालांकि अजय माकन ने पार्टी की ओर से अपनी बात
साफ की है, पर असली सवाल हाईकमान का है. यह नहीं भूलना चाहिए कि कर्नाटक में जेडीएस
के साथ गठबंधन का फैसला हाईकमान ने किया था, सिद्धारमैया या खड़गे ने नहीं.
कांग्रेस का नेतृत्व किसी भी कीमत पर बीजेपी को
हराना चाहता है. देखना सिर्फ यह है कि आम आदमी पार्टी उसके लिए उपयोगी होगी या
नहीं? जब कर्नाटक में कांग्रेस-विरोधी पार्टी से गठबंधन हो
सकता है तो दिल्ली, पंजाब और हरियाणा में भी सम्भव है.
बात कहीं छिड़ी जरूर
है
आम आदमी पार्टी के भीतर से निकलने वाले स्वरों
का विश्वास बोल रहा है कि कहीं न कहीं बात कोई गम्भीर छिड़ी है. पिछले हफ्ते दोनों
पार्टियों के नेताओं के बीच चले ट्विटर संवाद से इतना लगता है कि पेशकश आम आदमी
पार्टी की तरफ से है.
राजनीतिक गलियारों में कई तरह की बातें चलती
रहती हैं. परिपक्व राजनेता बातों को तभी बाहर निकालते हैं, जब वह पक्की हो जाए. या
वे ऐसी बातें तब करते हैं, जब लोगों की प्रतिक्रिया लेनी होती है.
अस्तित्व का संकट
इन दिनों जो राजनीतिक मंथन चल रहा है, उसका एक
निष्कर्ष है कि 2019 के बाद क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ेगा, पर कुछ छोटे दल
विलीन भी होंगे. क्या आम आदमी पार्टी के नेतृत्व को भी ऐसा डर तो नहीं सता रहा है? क्या वजह है
कि गठबंधन की बातें बाहर निकल कर आ रहीं हैं?
शुक्रवार को अजय माकन ने ट्वीट किया कि जब
दिल्ली की जनता केजरीवाल सरकार को अस्वीकार कर रही है, तो हम उसकी मदद में क्यों
आएंगे? इसपर आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता दिलीप पांडे
का जवाब आया ‘अजय माकन जी!
कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेता आम आदमी पार्टी के संपर्क में हैं, और वे हरियाणा, दिल्ली और पंजाब में हमारा साथ/सहयोग चाहते हैं, और दिल्ली में हमसे वे एक सीट मांग रहें हैं.’
किसके दरवाजे कौन?
क्या वास्तव में ऐसा सम्भव है कि कांग्रेस के
वरिष्ठ नेता आम आदमी पार्टी के दरवाजे पर खड़े हों और अजय माकन को खबर न हो. और
क्या कांग्रेस दिल्ली में सात में से केवल एक सीट माँगेगी? किसके दरवाजे कौन खड़ा
है?
दिल्ली में लोकसभा की 7 सीटें हैं, पंजाब में
13 और हरियाणा में 10. सन 2014 की मोदी लहर में दिल्ली की सातों सीटें बीजेपी के
खाते में गईं थीं. तब बीजेपी का वोट प्रतिशत 46.6 और आम आदमी पार्टी का वोट
प्रतिशत 33.1 था. कांग्रेस को 15.2 फीसदी वोट मिले थे.
आज परिस्थितियाँ 2014 जैसी नहीं हैं. वैसी भी
हों और कांग्रेस और आम आदमी पार्टी मिलकर चुनाव लड़ें तब भी बीजेपी को सात में से
केवल एक सीट मिल सकती है. अनुमान है कि इधर बीजेपी और आम आदमी पार्टी की
लोकप्रियता कमी आई होगी और कांग्रेस की लोकप्रियता बढ़ी होगी.
सवाल दर सवाल
सवाल है कि ऐसे में कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ना
चाहेगी या अकेले? लोकप्रियता बढ़ने के बावजूद क्या दिल्ली में त्रिकोणीय
मुकाबला कांग्रेस के हित में होगा? पर ऐसी पार्टी से गठबंधन करना क्या उचित होगा, जिसने
उसका बंटाढार किया?
सवाल यह भी है कि जो
आम आदमी पार्टी एक दौर में विचारधारा के मामले में बीजेपी के करीब नजर आती थी, वह धीरे-धीरे बीजेपी-विरोधी क्यों बन गई? क्या उसकी
राष्ट्रीय अभिलाषाएं बदल चुकी हैं? उसका भ्रष्टाचार विरोधी एजेंडा
साम्प्रदायिकता-विरोधी विचारधारा में तब्दील कैसे हो गया?
पंजाब का पचड़ा
सवाल दिल्ली का ही
नहीं, पंजाब की राजनीति का भी है, जहाँ वह कांग्रेस की प्रत्यक्ष विरोधी पार्टी
है. खबरें हैं कि पंजाब में एचएस फुलका जैसे कई वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस के साथ
गठबंधन की सम्भावनाओं का विरोध करना शुरू कर दिया है.
‘आप’ कार्यकर्ताओं
से राय लेकर फैसला करने वाली पार्टी है. क्या उसके कार्यकर्ता इस गठबंधन को
स्वीकार करेंगे? व्यावहारिक सच यह है कि आम आदमी पार्टी भी हाईकमान वाली
पार्टी है. पिछले चार वर्षों में पार्टी ने हर मौसम में दृष्टिकोण बदले हैं. इसलिए
उसके किसी भी फैसले पर अचम्भा नहीं होना चाहिए.
एचएस फुलका सीनियर वकील हैं और वे लम्बे अरसे
से 1984 के सिख दंगे से पीड़ित लोगों के परिवारों के पक्ष में मुकदमे लड़ रहे हैं. उन
परिवारों के मन में कांग्रेस पार्टी के प्रति सहज-रोष है. ऐसे में आम आदमी पार्टी
के पक्ष में आए वोटर के टूटने का खतरा भी है.
इस वक्त सवाल ‘आप’ के
कार्यकर्ताओं का नहीं है, बल्कि यह है कि क्या कांग्रेस ‘आप’ की भी जूनियर बनने को
तैयार है? मान लिया ऐसा नहीं हुआ, तो क्या ‘आप’ उस पार्टी की
जूनियर बनेगी, जिसे सबक सिखाने के लिए उसने राजनीतिक दल बनने का फैसला किया था? राजनीति के प्रहसन
में संजीदा सवालों का कोई मतलब नहीं, पर सवाल करना जमाने का दस्तूर है.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (08-06-2018) को "शिक्षा का अधिकार" (चर्चा अंक-2995) (चर्चा अंक 2731) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
2019 का चुनाव किसी राजनीतिक मुद्दे पर नहीं होगा। 2019 का चुनाव केवल बीजेपी और मोदी के विरोध पर ही अन्य राजनीतिक दल लड़ेंगे। जहाँ तक कांग्रेस का सवाल है , यह बात कांग्रेस अच्छी तरह जानती है की त्रिकोणीय मुकाबले में नुकसान होगा इसलिए वो आम आदमी पार्टी से गठबंधन करना चाहेगी। देश में विगत 4 साल से कोई बड़ा भ्रष्टाचार नहीं हुआ इसलिए अन्य पार्टियां भ्रष्टाचार मुद्दे से दूरी बनाएंगी और केवल बीजेपी सांप्रदायिक बताकर अपने अपने वोट को साधेंगी जिसमें मुस्लिम समाज सबसे अहम है।
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