राष्ट्रगीत में भला कौन वह/ भारत-भाग्य-विधाता है/ फटा सुथन्ना पहने जिसका/ गुन हरचरना गाता है/ मखमल, टमटम, बल्लम, तुरही/ पगड़ी, छत्र-चँवर के साथ/ तोप छुड़ाकर, ढोल बजाकर/ जय-जय कौन कराता है/ पूरब-पश्चिम से आते हैं/ नंगे-बूचे नरकंकाल/ सिंहासन पर बैठा/ उनके तमगे कौन लगाता है।
हमारे यहाँ हर रोज कोई न कोई पर्व होता है, पर तीन राष्ट्रीय पर्व हैं: स्वतंत्रता दिवस, गांधी जयंती और ‘गणतंत्र दिवस।’ नागरिकों की दृष्टि से तीनों महत्वपूर्ण हैं, पर तीनों में 26 जनवरी खासतौर से नागरिकों का दिन है। स्वतंत्र नागरिकों की अपनी व्यवस्था का नाम है ‘गणतंत्र’। जिस देश के राष्ट्राध्यक्ष को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से नागरिक चुनते हैं। शासन-प्रणाली वह रूप है, जो ‘सार्वजनिक’ है, किसी की ‘निजी-संपत्ति’ नहीं।
लोकतंत्र ब्रिटेन में भी है, पर वह गणतंत्र नहीं है। सिद्धांततः उसका स्वामी वहाँ का राज-परिवार है, भारत के मालिक यहाँ के नागरिक हैं। हमारे संविधान का पहला वाक्य है, ‘हम, भारत के लोग…।’ यह प्रस्तावना है, जिसमें नागरिकों की ओर से कुछ संकल्प किए गए है। इसका अंतिम वाक्य है, ‘…इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’ इसे किसी ने हम पर आरोपित नहीं किया है, बल्कि हमने अपने ऊपर इसे लागू किया है।
आज 76वाँ गणतंत्र दिवस है। कुछ सवाल आपसे पूछने का मन करता है। किस तरह चला रहे हैं आप अपने देश को? आपके गणतांत्रिक सपने किस अवस्था में हैं? सोए हुए हैं या जागे हैं? आप कह सकते हैं कि मैं किस खेत की मूली हूँ। मेरी हैसियत ही क्या है? बात सही है, पर पूरी तरह नहीं।
पाश की कविता है, ‘सबसे ख़तरनाक होता है/ हमारे सपनों का मर जाना।’ पर यह किसी एक व्यक्ति के सपनों की बात नहीं है। पूरे समाज के सपनों का सवाल है। जब पूरा समाज सपने देखता है, तभी वे पूरे होते हैं। सपने नहीं देखना खतरनाक स्थिति होती है। सपने भी कई तरह के होते हैं। खेल के मैदान से लेकर विज्ञान की प्रयोगशाला तक। उत्साहवर्धक, भरमाने वाले, उकसाने वाले और दुखी करने वाले। वे टूटते और बिखरते भी है। पर उन्हें होना चहिए। ऐसे सपने जो हम सब मिलकर देखें।
तमाम मानकों पर तेजी से आगे बढ़ने के लिए हमें आर्थिक विकास की तेज गति चाहिए। केवल गति नहीं, कुशल और ईमानदार कोशिशें इसकी ज़रूरी शर्त है। उपलब्धियों का वितरण भी उचित अनुपात से होना चाहिए। ऐसा न हो कि सिर्फ कुछ आँखों में चमक हो और बाकी के हिस्से में गर्दो-गुबार।
यह बड़ा सपना है, पर इस गति और प्रगति का नेतृत्व करने वाली राजनीति जबर्दस्त अंतर्विरोधों की शिकार है। उसका मतलब झूठ और फरेब हो गया है, जो चुनाव के दौर में चरम पर होता है। झूठ और सच के भेद को पकड़ पाना आसान नहीं है। खासतौर से ऐसे दौर में जब तकनीक ने ‘फ़ेक’ को ‘रियल’ बना दिया है। झूठ का स्वाद मीठा और सच ‘कड़वा’ हो गया है।
जिन घपलों-घोटालों का जिक्र हम सुन रहे हैं, वे इस लोकतंत्र के अनिवार्य अंग बन चुके हैं। उसपर नज़र रखने वाला समाज अबोध-अशिक्षित, कुशिक्षित और कुपोषित है। सच यह भी है कि पारदर्शिता बढ़ रही है, इसलिए हमें दोष भी नज़र आ रहे हैं, पर यह दोष शीशे का नहीं, हमारा है। बरसों से पड़ा पर्दा खुल रहा है। इस तमाशे के नायक-नायिका आप हैं। कथानक आपका है, पटकथा आपकी, परिस्थितियाँ आपकी, समस्याएं आपकी और समाधान भी आपके।
ऐसे वक्त में जब पुराना भारत नए देश के रूप में प्रस्फुटित हो रहा है, हम निराश होकर कहते हैं कि कुछ नहीं हो पाएगा। क्यों नहीं हो पाएगा? लोग चाहते हैं कि व्यवस्था कुशल और कारगर हो। इसके लिए कोई बाहर से नहीं आएगा। आपकी भागीदारी होगी, तो यही व्यवस्था बेहतरीन परिणाम देगी। दे भी रही है।
निराशा के कारण हैं, तो उम्मीद बढ़ाने वाली बातें भी हमारे बीच हैं। रघुवीर सहाय की ऊपर उधृत कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं,
‘कौन-कौन है वह जन-गण-मन/ अधिनायक वह महाबली/ डरा हुआ मन बेमन जिसका/ बाजा रोज़ बजाता है।’
वह भारत भाग्य विधाता इस देश की जनता है। वह आप हैं। पर क्या आप उसे जागी हुई जनता कहेंगे?
लोकतंत्र जादू की छड़ी नहीं है। वह बदलाव का उपकरण है। बदलाव भी दो दिन में नहीं होता। पश्चिमी देशों में आधुनिक लोकतंत्र पिछले ढाई सौ साल या उससे भी पहले आ गया था, फिर भी जनता संतुष्ट नहीं है। शिक्षा, जागरूकता और सिस्टम्स को परिपक्व होने में समय लगता है। हमारे यहाँ भी छोटे-छोटे गाँवों और कस्बों के छोटे-छोटे लोगों की उम्मीदों, सपनों और दुश्वारियों की किताबें खुल रहीं हैं। ड्राइंग रूमों से लेकर सड़क किनारे पड़ी मचिया के पास रखे टीवी सेट पर उम्मीदों की टकटकी लगाए करोड़ों लोग इसमें शामिल हैं।
2014 में भारतीय चुनाव-संचालन की सफलता के इर्द-गिर्द एक सवाल ब्रिटिश पत्रिका ‘इकोनॉमिस्ट’ ने उठाया था। उसका सवाल था कि भारत चुनाव-संचालन में इतना सफल क्यों है? फिर कहा, जब इतनी सफलता के साथ वह चुनाव संचालित करता है, तब उसके बाकी काम इतनी सफलता से क्यों नहीं होते? मसलन उसके स्कूल, स्वास्थ्य व्यवस्था, पुलिस वगैरह से लोगों को शिकायत क्यों है?
पत्रिका का निष्कर्ष था कि जिस काम में पब्लिक-स्क्रूटनी होती है, वह सफल होता है। आज़ादी के बाद हमारी अनेक विफलताएं हैं तो कुछ उपलब्धियाँ भी हैं। इनमें सबसे बड़ी उपलब्धि है संचार क्रांति। साठ के दशक की हरित क्रांति से भी ज्यादा बड़ी उपलब्धि। हरित क्रांति ने हमें अनाज में आत्मनिर्भर बनाया, जबकि संचार क्रांति ने हमें सूचना, ज्ञान और विचारों के मामले में पुष्ट बनाया है, जो लोकतंत्र का कच्चा माल है। फोन ने स्त्रियों को घर से बाहर निकलने में मदद की है।
तमाम विफलताओं के बावजूद हमारी ताकत लोकतंत्र ही है। राजनीति के इस जुलूस में सांप्रदायिकता, जातीय-चेतना और क्षेत्रीय मनोकामनाओं के आंदोलन भी चलते हैं। कुछ अलगाववादी भी हैं, पर भारत की वृहत-संकल्पना कमजोर नहीं है। 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए आसानी से हुआ, क्योंकि जनता एक समूचे भारत के पक्ष में थी। यह भी राजनीति है, जिसकी धुरी में है लोकतंत्र।
नागरिक के पास सपने और संकल्प होने चाहिए। वही बदलेगा, तो देश बदलेगा। जन-जागृति और शिक्षा के सहारे इसका विस्तार होता है। आप चाहें तो अपने हालात को देखकर निराश हो सकते हैं, पर इससे क्या होगा? भागो नहीं, जागो। इसे सुधारने में मददगार बनो। फैज़ अहमद फैज़ के शब्दों में: दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है/ लंबी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है।
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हमारा लोकतंत्र
लोकतंत्र अपेक्षाकृत आधुनिक विचार है, और उसका काफी श्रेय पश्चिमी समाज के दिया जाता है। ऐसा मानते हैं कि छठी शताब्दी में यूनानी नगर-राज्यों में प्रत्यक्ष लोकतंत्र की शुरुआत हुई थी। इसके लिए 'डेमोस' और 'क्रेटोस' शब्दों को लिया गया। पिछले साल गणतंत्र दिवस परेड की थीम थी, ‘विकसित भारत’ और ‘भारत-लोकतंत्र की मातृका।’ इसमें बताया गया कि भारत 'लोकतंत्र की जननी' है। प्राचीन भारत में गणतंत्रों के कई उदाहरण हैं, जहाँ शासक वंशानुगत नहीं थे। महाभारत में लिखा है कि नागरिकों का पहला कर्तव्य अपने शासक को चुनने का है। सितंबर, 2023 में भारत के संस्कृति मंत्रालय ने जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान 'भारत: लोकतंत्र की जननी' विषय पर एक प्रदर्शनी लगाई। इसमें उन भारतीय परंपराओं को दर्शाया गया, जो हमारे देश की लोकतांत्रिक परंपराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं।
ऋग्वेद और अथर्ववेद में सभा, समिति और संसद जैसी संस्थाओं का उल्लेख है। बादशाह अकबर ने ‘सुलह-ए-कुल’ के माध्यम से जिस समावेशी शासन को लागू करने की कोशिश की थी, उसकी जड़ें भी भारतीय परंपराओं में ही थीं। उनके नवरत्न परामर्शदाता लोकतांत्रिक आदर्शों के अनुरूप थे। देश की प्राचीन महाजनपद शासन-प्रणाली भी एक उदाहरण है। बौद्ध और जैन ग्रंथों में 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है। इसके तहत देश को पाँच भागों में विभाजित किया गया था–उत्तरापथ (पश्चिमोत्तर भाग), मध्यदेश, प्राची (पूर्वी भाग), दक्षिणापथ तथा अपरांत (पश्चिमी भाग)। ये 16 महाजनपद थे: 1.काशी, 2.कोशल, 3.अंग, 4.मगध, 5.वज्जि, 6.मल्ल, 7.चेदि, 8.वत्स, 9.कुरु, 10.पांचाल, 11.मत्स्य, 12.शूरसेन, 13.अश्मक, 14.अवंति, 15.गांधार और 16.कंबोज।
और गणतंत्र
अक्सर लोग पूछते हैं कि गणतंत्र-दिवस और स्वतंत्रता-दिवस में फर्क क्या है? मोटे तौर पर इसका मतलब है संविधान लागू होने का दिन। संविधान सभा ने 29 नवम्बर 1949 को संविधान को अंतिम रूप दे दिया था। इसे उसी रोज या 1 दिसम्बर या 1 जनवरी को लागू किया जा सकता था। इसके लिए 26 जनवरी की तारीख मुकर्रर करने का भी कारण था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दिसम्बर 1929 के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पास किया गया और 26 जनवरी, 1930 को कांग्रेस ने भारत की पूर्ण स्वतंत्रता हासिल करने के निश्चय की घोषणा की। उस दिन से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक 26 जनवरी ‘पूर्ण स्वराज्य दिवस’ के रूप में मनाया जाता रहा, पर स्वतंत्रता मिली 15 अगस्त को। 26 जनवरी का महत्व बनाए रखने के लिए संविधान बनने के बाद उसे 26 जनवरी 1950 से लागू करने का फैसला किया गया।
दुनिया में सांविधानिक परंपराएँ तकरीबन साढ़े तीन सौ साल पुरानी हैं। लिखित संविधान तो और भी बाद के हैं। 1787 में अमेरिकी संविधान से इसकी शुरूआत हुई। पिछले 75 साल के अपने सांविधानिक अनुभव को देखें तो सफलता और विफलता के अनेक मंज़र देखने को मिलेंगे। कभी लगता है कि हम लोकतंत्र से भाग रहे हैं। हम लोकतंत्र के लायक नहीं हैं, या लोकतंत्र हमारे लायक नहीं है। या लोकतंत्र को हम जितना अच्छा समझते हैं, वह उतना नहीं हो सकता। वह जिस समाज में है, वह खुद पाक-साफ नहीं है। समाज ही अपने लोकतंत्र को बनाता है। और लोकतंत्र ही समाज को बनाता है।
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