बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ताओं ने भी उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शन किया। बसपा प्रमुख मायावती ने अमित शाह की टिप्पणी को अंबेडकर के अनुयायियों के लिए बेहद दुखद बताया। वहीं, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने प्रदेश के सभी विधानसभा क्षेत्रों में 'पीडीए चर्चा' चला रही है। पार्टी के अनुसार इस पहल का उद्देश्य संविधान की रक्षा करना और आंबेडकर के आदर्शों का प्रचार करना है।
राजनीतिक फॉर्मूले
सवाल है कि क्या देश के दलित ऐसा ही चाहते हैं? क्या वे राजनीतिक-दलों ‘पीडीए, एमवाई, अजगर, मजगर’ जैसे सोशल-इंजीनियरी फॉर्मूलों के सत्य को पहचानते नहीं हैं? अमित शाह की टिप्पणी के बाद संसद के परिसर में विरोध प्रदर्शन के दौरान दोनों पक्षों के बीच जमकर हाथापाई हुई, जिसमें दो भाजपा सांसद प्रताप सारंगी और मुकेश राजपूत घायल हो गए। दोनों दलों ने आरोप लगाया कि उनके पार्टी सदस्यों के साथ धक्का-मुक्की की गई। बाद में, दिल्ली पुलिस ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ भाजपा की शिकायत के आधार पर एक प्राथमिकी दर्ज की।
इस तूफान के लक्षण 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले प्रकट होने लगे थे, जब कांग्रेस ने जाति को अपनी राजनीति का केंद्रीय मुद्दा बनाने का फैसला किया। कांग्रेस ने संविधान की रक्षा को अपना मुद्दा बनाया और भारतीय जनता पार्टी पर आरोप लगाया कि वह संविधान को और जातीय-आरक्षण को खत्म करने का इरादा रखती है। कहा गया कि भारतीय जनता पार्टी ‘400 पार’ इसलिए चाहती है, ताकि वह संविधान को खत्म कर सके। संविधान खत्म होगा, तो आरक्षण भी खत्म हो जाएगा। माना जाता है कि आरक्षण खत्म होने के भय ने दलित वोटर को ‘इंडिया’ गठबंधन की शरण में जाने को प्रेरित किया।
कांग्रेसी संवेदनशीलता
डॉ भीमराव आंबेडकर के महत्व को कांग्रेस ने हाल में ही नहीं पहचाना है। यूपीए-1 और 2 के समय में ही इस संवेदनशीलता की पहचान कर ली गई थी। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है 2012 का कार्टून प्रकरण जब एनसीईआरटी की एक पाठ्य पुस्तक में प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर का 1949 में बनाया एक कार्टून प्रकाशित होने पर वह विवाद का विषय बना। इसपर संसद में हंगामा हुआ, तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने माफी माँगी, एनसीईआरटी की किताब बैन कर दी गई। इतना ही नहीं, किताब को स्वीकृति देने वाली समिति के विद्वान सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया।
तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री ने कहा,''मैंने एक और फैसला किया है कि जिस पुस्तक में भी इस तरह के कार्टून होंगे, उन्हें आगे वितरित नहीं किया जाएगा।'' वह किताब 2006 में छपी थी। उसके पहले अध्याय ‘संविधान क्यों और कैसे’ के अंतर्गत यह कार्टून छपा था। उसके कैप्शन में लिखा था, संविधान के धीमी गति से बनने पर कार्टूनिस्ट की प्रतिक्रिया। इस कार्टून पर न तो 1949 में बवाल हुआ, जब डॉ आंबेडकर स्वयं संविधान के प्रारूप की रचना में लगे थे और न 2006 में जब पुस्तक प्रकाशित हुई थी।
बहरहाल 2012 में जो राजनीतिक-तूफान आया, करीब-करीब वैसा ही तूफान अब अमित शाह के वक्तव्य को लेकर आया हुआ है। अमित शाह ने अपने लंबे वक्तव्य में यह साबित करने का प्रयास किया था कि कांग्रेस पार्टी ने आंबेडकर की उपेक्षा की। उनके इस लंबे बयान में कुछ सेकंड के एक छोटे से वाक्य को कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने पकड़ लिया और कहना शुरू किया कि उन्होंने बाबा साहब का अपमान किया है। शाह का उद्देश्य आंबेडकर को लेकर कांग्रेस के पाखंड की आलोचना करना था, पर कांग्रेस अब उनके वक्तव्य के एक अंश पर ही बात करना चाहती है।
भारतीय जनता पार्टी आमतौर पर कांग्रेस के आरोपों को ज्यादा महत्व नहीं देती है, पर इस आरोप के महत्व को पार्टी ने फौरन पहचाना और उसका जवाब देने के लिए अमित शाह ने अगले ही दिन खुद सामने आकर संवाददाता सम्मेलन किया। उसके बाद से दोनों पक्षों ने इतिहास की किताबों से खोजकर साबित करना शुरू किया कि आंबेडकर के साथ किसने क्या किया। बातें वाद-विवाद तक ही सीमित रहतीं, तब भी काफी था। संसद के परिसर में धक्का-मुक्की, चोट लगने और पुलिस में रिपोर्ट लिखाए जाने से मामला और गंभीर हो गया। अब दोनों पक्ष इस घटनाक्रम को राष्ट्रीय-अभियान का रूप देने की तैयारी कर रहे हैं।
वोटों की मारामारी
इसे आंबेडकर के विचारों की विजय से ज्यादा दलित वोटों के पीछे मची मारामारी मानना चाहिए। सच यह है कि डॉ आंबेडकर को अपने जीवनकाल में मुख्यधारा की राजनीति से ऐसा सम्मान और महत्व नहीं मिला। दुर्भाग्य है कि संविधान की 75 वीं वर्षगाँठ पर बहस संविधानिक-मूल्यों, संसदीय-विमर्श की मर्यादाओं और आंबेडकर के कृतित्व पर केंद्रित होने के बजाय नकारात्मक बातों में भटक गई। उससे भी ज्यादा बड़ा सच यह है कि आंबेडकर की विरासत का दावा न तो कांग्रेस कर सकती है और न भारतीय जनता पार्टी। बेशक वंचित जातीय-समूहों के प्रति हमदर्दी रखने और उनके उत्थान के कार्यक्रमों पर चलने का अधिकार दोनों दलों को है दोनों अपने-अपने दावे कर सकते हैं, पर वे आंबेडकर की विरासत उनके नाम नहीं हो सकती।
आंबेडकर को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बहस का यह पहला मौका नहीं है। इसके पहले कई अवसरों पर ये बातें उठती रही हैं। कुछ बातें साफ समझ ली जानी चाहिए। आंबेडकर को वर्तमान राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखना ठीक नहीं है। उन्होंने ऐसे समय में तीखे सवाल पूछे थे, जब अनुसूचित जातियों के बीच भी गहरी चेतना नहीं थी।
गांधी से मतभेद
इस सिलसिले में महात्मा गांधी के साथ उनके मतभेद छिपे नहीं हैं। पूना पैक्ट के अलावा आंबेडकर के आलेख ‘जाति-भेद का उच्छेद’ और उसके जवाब में गांधी जी के हरिजन में प्रकाशित आलेखों से दोनों के मतभेद तभी उजागर हो गए थे। आंबेडकर के सवालों के जवाब देने में गांधी जी सफल नहीं हुए थे। आंबेडकर ने अपने आलेख में बताया था कि उन्नीसवीं सदी में कांग्रेस का कार्यक्रम एक तरफ राजनीतिक और दूसरी तरफ सामाजिक-सुधार के साथ शुरू हुआ था, पर कालांतर में सामाजिक-सुधार की अनदेखी होने लगी और अंततः 1892 में कांग्रेस ने सामाजिक-सुधार के विचार को पूरी तरह त्याग दिया।
आज यदि दलित राजनीतिक-दृष्टि से जागरूक हुए हैं, तो इसके पीछे आंबेडकर के उठाए सवाल हैं, पर सच यह भी है उन्हें अपने समय में मुख्यधारा की राजनीति के हाथों निराशा ही हाथ लगी थी। राजनीतिक दल बनाने और चुनाव लड़ने जैसे कार्यक्रमों में वे सफल नहीं हो पाए। दूसरी तरफ वे अपने कार्यक्रम कांग्रेस को लेकर भी आश्वस्त नहीं थे। उन्होंने अपनी वेदना को केंद्र के कानून मंत्री पद से इस्तीफा देते वक्त व्यक्त भी किया था।
कांग्रेस पार्टी उनका कितना सम्मान करती थी, इस बात का पता 6 अक्तूबर 1951 को बीसी रॉय को लिखे नेहरू जी के पत्र से लग सकता है। उन्होंने लिखा, ‘अम्बेडकर के जाने से मंत्रिमंडल बहुत कमजोर नहीं हुआ है।’ आंबेडकर मानते थे कि भारत ने स्वतंत्रता के समय, नेहरूवादी शासन की विदेश-नीति के कारण, जिसमें जम्मू-कश्मीर प्रमुख रूप से शामिल था, वैश्विक मंचों पर अपनी बहुत सारी सद्भावना, अपनी सामाजिक पूँजी खो दी है। वे नेहरू की कश्मीर नीति के आलोचक थे।
कांग्रेस कुछ भी कहे, सच यह है कि स्वतंत्रता के बाद आंबेडकर को भारत रत्न तब मिला, जब देश में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी। भारत रत्न से अलंकृत राजनेताओं की सूची देखें, तो आपको हैरत होगी कि किन-किन नेताओं के मुकाबले उन्हें इस सम्मान का कमतर अधिकारी माना गया। भारतीय राजनेताओं को उनकी याद मंडल-राजनीति के उभार और उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के उदय के बाद आई।
दलितों की राजनीतिक लामबंदी ने भारतीय राजनीति में एक नए आयाम को खोला और धीरे-धीरे सभी पार्टियों ने आंबेडकर को अपने पक्ष में करने की ‘वोट बैंक’ परियोजनाएँ शुरू कर दीं। इसकी वजह वह जनसमूह है, जिसका दिल आंबेडकर के नाम से धड़कता है। सवाल है कि क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और डॉ आंबेडकर के विचारों में समानता है? ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। आंबेडकर का वैचारिक आधार सामाजिक-न्याय और समानता से जुड़ा था, तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का लक्ष्य हिंदू-एकता से जुड़ा है। आंबेडकर ने जन्म से असमानता (जाति, धर्म आदि), विरासत से असमानता (धन, ज्ञान आदि) और उपलब्धि से असमानताओं में भेद किया था। वे मानते थे कि जन्म और विरासत की असमानताएं समाप्त होनी चाहिए।
हिंदू जाति-भेद
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 'सामाजिक-समरसता' का समर्थक है। वह सद्भाव पर ज़ोर देता है। संघ के समर्थक समानता और समरसता दोनों बातों को एक मानते हैं और बताते हैं कि संघ के भीतर जाति-भेद नहीं है, पर हिंदू समाज में जाति-भेद एक बड़ा सच है। इसे कोई भी देख सकता है। आंबेडकर ने हिंदू-धर्म का त्याग भी इसके विरोध में किया। हालांकि वे जीवन भर सामाजिक-प्रश्नों से जूझते रहे, पर उनके दो बड़े आंदोलनों का खासतौर से हवाला दिया जाता है। एक, 1927 का महाड़ सत्याग्रह आंदोलन और दूसरा था 1930 का नासिक में ही कालाराम मंदिर प्रवेश का आंदोलन। ये दोनों आंदोलन हिंदू धर्म में सुधार के उद्देश्य से थे। इस अभियान में निराश होने के बाद 13 अक्टूबर 1935 को नासिक के येवला में उन्होंने कहा, मैं एक हिंदू के रूप में पैदा हुआ था, लेकिन मैं एक हिंदू के रूप में नहीं मरूँगा।
हालांकि उन्होंने यह घोषणा 1935 में की थी, पर धर्मांतरण इसके 21 साल बाद 1956 में किया और बौद्ध धर्म को अपनाया। अलबत्ता उन्होंने इस्लाम या ईसाईयत को स्वीकार नहीं किया, बल्कि एक भारतीय-धर्म को अंगीकार किया। उनका उद्देश्य धर्मांतरण नहीं, जाति-भेद का उन्मूलन था, जो वे कर नहीं पाए। सवाल है कि वर्तमान राजनीति का लक्ष्य जाति-भेद का उन्मूलन है या सामाजिक-असमानता को कायम रखते हुए ‘वोट बैंक’ का निर्माण है?
भारत वार्ता में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment