हाल में एक शाम मेरे पुराने मित्र और सहयोगी संतोष तिवारी का फोन आया। बातों के दौरान एक पुरानी घटना का जिक्र हुआ। हम दोनों कभी लखनऊ के नवभारत टाइम्स में एक साथ काम कर चुके थे। बाद में तिवारी जी एकैडमिक्स में चले गए। अलग-अलग विश्वविद्यालयों के पत्रकारिता विभाग से संबद्ध रहने के बाद वे सेवामुक्त हो गए और आजकल लखनऊ के अपने घर में रह रहे हैं। 6 अक्टूबर 1995 के स्वतंत्र भारत में मैंने एक लेख लिखा था, जिसकी शुरुआत उनका संदर्भ देते हुए ही हुई थी। इस बात का जिक्र इसके पहले भी एकाध बार मैं उनसे कर चुका था। उन्होंने कहा, आप वह लेख मुझे भेज सकते हों, तो भेजें। मुझे वह लेख खोजने में एक दिन लगा। वॉट्सएप से उसकी तस्वीर मैंने उनके पास भेज दी। बहरहाल।
उस लेख को छपे 27 साल हो गए हैं, पर मुझे वह अब
भी प्रासंगिक लगता है। ऐसा नहीं कि उसमें मैंने कोई बड़ी बात लिख दी हो, पर मन की
बात थी, जो लिख दी थी। बहुत साधारण बात थी। उसमें तिवारी जी के अलावा हमारी एक और संपादकीय
सहयोगी तृप्ति जी का जिक्र भी था। लेख में
दोनों के नाम नहीं थे, उसकी जरूरत भी नहीं थी। तिवारी जी को तो मैंने बताया भी था,
तृप्ति जी से शायद मैंने कभी इसका जिक्र किया भी नहीं। बहुत व्यक्तिगत प्रसंग भी
नहीं था, और कभी ऐसा मौका मिला भी नहीं। पता नहीं तृप्ति जी को उस बात की याद है
भी या नहीं। इस लेख की कतरन लगाई है। समय मिला, तो लेख को दुबारा टाइप करके अपने
ब्लॉग में लगाऊंगा। यों तस्वीर का रिजॉल्यूशन अच्छा है। कतरन को पढ़ा जा सकता है।
उपरोक्त वक्तव्य के साथ मैंने इस कतरन को
फेसबुक पर लगा दिया। नवभारत टाइम्स, लखनऊ के ही पुराने साथी परवेज़ अहमद ने लिखा ‘आपने लखनऊ याद दिला दिया...दोनों दोस्तों को सलाम। प्रमोद जी इसे पढ़ पाना आसान नहीं है।’ मुझे समझ में आ रहा था
कि कुछ दोस्तों को पढ़ने में दिक्कत होगी। मैंने लिखा, ‘मैं कल इसे
टाइप करके ब्लॉग में लगाऊँगा।’ इसके बाद मैं सो गया।
सुबह उठने पर मैंने
अपने मोबाइल फोन पर नवभारत टाइम्स, लखनऊ के ही पुराने मित्र मुकेश कुमार सिंह का
संदेश देखा। उन्होंने कतरन का लेख टाइप करके भेजा था। फेसबुक को खोला, तो उसमें
मुकेश ने परवेज़ को जवाब दिया था, ‘लीजिए, मैंने आपका काम आसान कर दिया और परवेज़ अहमद जी की सहूलियत के लिए लेख को आसानी से पढ़ने लायक लेख में तब्दील कर दिया 😃😃।’ उन्होंने
फेसबुक के कमेंट बॉक्स में पूरा लेख लगा दिया। चूंकि कमेंट के लिए शब्दों की सीमा
होती है, इसलिए उसे तीन टुकड़ों में बाँट दिया। यह बात मेरे लिए खुशी और विस्मय
दोनों का विषय है। बहरहाल इस लेख को पढ़ें:
पहले बताएं आपने कभी किसी से कोई
शिकायत की?
बात कहने और उसे सुनने की संस्कृति विकसित हो, तब काफी कुछ किया जा सकेगा। क्या वह
संस्कृति हमने विकसित की है? रोडवेज़ की बसों में एक जब वे नई होती हैं, डिब्बा लगा होता है 'सुझाव शिकायतें' या फिर यह सूचना लिखी होगी 'परिवाद पुस्तिका कंडक्टर से मांगें!’ परिवाद पुस्तिका देश भर के विभागों और
दफ्तरों में होती है। हैरत है कि उनमें शिकायतें और सुझाव दर्ज नहीं होते। क्या
शिकायतें हैं। नहीं और सुझाव देने की जरूरत नहीं रही? बात यह है कि शिकायतें इतनी है कि उन्हें
सुना ही नहीं जा सकता। शिकायत है कि परिवाद पुस्तिका नहीं है। बस के कंडक्टर, ट्रेन के गार्ड, बैंक के मैनेजर या राशन के दुकानदार से
परिवाद पुस्तिका मांग कर देखें। सुझाव इतने सारे हैं कि उन पर अमल करना असंभव।
ज्यादातर लोग अपना काम कराना चाहते हैं। नियम-कानून की फिक्र किए बगैर। |
कुछ साल पहले की बात है, लखनऊ के एक हिन्दी दैनिक पत्र के एक पत्रकार ने कहीं से पते लेकर अमेरिका और ब्रिटेन के कुछ प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों, खासकर पत्रकारिता के प्रशिक्षण और शोध से जुड़े संस्थानों को पत्र लिखे। आशय यह था कि उन संस्थानों में शिक्षण, प्रशिक्षण और शोध कार्यों की जानकारी हासिल की जाए और यह पता लगाया जाए कि वहां प्रवेश पाने का 'जुगाड़' क्या है? 'जुगाड़' का अंग्रेजी पर्याय भले ही मिल जाए, पर इसका जो अर्थ भारत में है वह अनोखा है। पत्रकार बंधु ने पत्र लिख दिए थे, उन्हें उम्मीद नहीं थी कि कहीं से जवाब मिलेगा। उन्हें आश्चर्य तब हुआ जब प्रायः सभी संस्थानों से पत्रकारिता विभाग के अध्यक्षों ने व्यक्ति रूप से पत्र के उत्तर लिखे और साथ यह भी कहा कि योग्य सेवा के लिए भविष्य में भी पत्र लिखें।
उसी
दैनिक पत्र की एक महिला पत्रकार ने कुछ वर्ष पूर्व लखनऊ में लगे पुस्तक मेले में
साहित्य अकादमी की पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' का
सालाना चन्दा भरा था। लम्बे अर्से तक पत्रिका नहीं पहुंची तो उन्होंने साहित्य
अकादमी के सचिव के नाम चिट्ठी लिखी। चिट्ठी भेजने के कुछ दिन बाद साहित्य अकादमी
से पत्र आया, जिसमें छपा-छपाया मजमून था कि समकालीन भारतीय
साहित्य का वार्षिक शुल्क फलां-फलां है। यह राशि मनीआर्डर वगैरह-वगैरह से भेजी जा
सकती है। पत्रकार को लगा कि उनका पत्र पढ़े बगैर किसी ने जल्दबाजी में दूसरे किस्म
की सूचना भेज दी है सो उन्होंने एक पत्र और लिखा। कुछ रोज बाद उसका वही छपा-छपाया
जवाब हाजिर था।
एक
ही दफ्तर में दो सहयोगियों के पास दो किस्म के जवाब आए थे। विदेशी संस्थाओं के
उत्तर पाकर पत्रकार मित्र ने दरयाफ्त का दायरा बढ़ाया और अंत में इंग्लैंड के
कार्डिफ विश्व विद्यालय के पत्रकारिता विभाग ने उन्हें सिर्फ चिट्ठियों के आधार पर
पत्रकारिता की एमए कक्षा में प्रवेश दे दिया। लखनऊ के पत्रकार ने जवाब दिया मुझे
इस व्यवसाय से जुड़े इतना वक्त हो गया है, मैं तो पीएचडी में प्रवेश मिलने पर ही आ सकूंगा। उधर
भी कोई बन्दा उत्साही बैठा था। उसने जवाब दिया, आओ जी, पीएचडी
में ही आओ। साथ ही उसने लिखा, हमारी फीस इतनी है। आप गरीब
मुल्क से आ रहे है, इसलिए फीस देने में दिक्कत होगी। हम फीस
में छूट तो नहीं देंगे, पर कुछ संस्थाओं के नाम-पते दिए दे
रहे हैं, इनसे छात्रवृत्ति मिल सकती है। हम भी आपकी सिफारिश
कर देंगे, पर आवेदन आपको करना पड़ेगा। आवेदन करने पर
छात्रवृत्ति भी मंजूर हो गई। सब कुछ चिट्ठियों के सहारे अब जाने का खर्च निकालना
था वह काम भी भारतीय लालफीताशाही से संघर्ष करते
हुए पूरा किया गया और पत्रकार बंधु लगभग तीन वर्ष तक कार्डिफ़ में रहकर पीएचडी की डिग्री लेकर भारत आ गए हैं।
महिला पत्रकार को 'समकालीन भारतीय साहित्य मिला या नहीं, इसकी जानकारी
नहीं है।
उपरोक्त
दोनों घटनाएं सच है। एक सुनी हुई बात का आनन्द लें। एक विदेशी उद्योगपति ने भारतीय
प्रचार से प्रेरित होकर निश्चय किया कि भारत में उद्योग लगाया जाए। महाशय भारत आ
गए। उद्योग लगाने के लिए तमाम दफ्तरों में दौड़ लगाई और अर्जी दी। लम्बे अर्से तक
अनुमति नहीं मिली तो वापस लौट गए। दो-तीन वर्ष बाद उनके पास भारत सरकार के किसी
अफसर की चिट्ठी आई कि आपकी प्रार्थना पर हम विचार करने को तैयार हैं, अपना प्रस्ताव और
उसका विवरण लेकर आएं। वे अब क्या आते क्योंकि उस परियोजना को वे सिंगापुर ले गए थे
और उसे वहां लगे हुए ही दो वर्ष हो चुके थे। ऐसे तमाम किस्से हैं और हमें आश्चर्य
नहीं होता। ज्यादातर बातें सच लगती है। इन्हें झूठ मानने की कोई वजह नहीं है,
क्योंकि हमारे यहां राशन कार्ड बनवाने से रेलवे रिजर्वेशन कराने तक
यही दशा है। काम कराने के लिए जुगाड़ खोजना पड़ता है और जो जितना अच्छा जुगाडू है,
वह उतना ही सफल है।
राजीव
गांधी के जमाने में सैम पित्रोदा का नाम उभरा था। उनका असली नाम सत्येन है जो सैम
पित्रोदा हो गया। उड़ीसा के तितिलागढ़ नाम के कस्बे में पले-बढ़े सत्येन का परिवार
आम निम्न मध्यम वर्गीय भारतीय की
तरह अभावों में रहता था। जाति से वे सुतार हैं और
प्रारम्भिक पढ़ाई उन्होंने भी प्राइमरी स्कूल तक का सफर नंगे पैर चलकर पूरी की थी।
सैम पित्रोदा ने 'हारवर्ड 'बिजनेस रिव्यू' में
छपे अपने एक लेख में न केवल अपने बारे में रोचक जानकारी दी है, बल्कि भारत की जटिल व्यवस्था के अकुशल होने की वजहों पर भी रोशनी डाली है।
सैम पित्रोदा भारत के लाखों देहाती छात्रों की तरह शहरों की गंदी
बस्तियों में रहकर कभी कम रोशनी वाले बल्बों या मिट्टी तेल की ढिबरियों के सहारे
पढ़ता था। उसे अपनी मेहनत के सहारे पढ़ाई में बेहतर अंक मिले और अंततः उसने बड़ौदा
के महाराजा सायाजीराव विश्वविद्यालय से भौतिक शास्त्र में एमएस-सी किया। सैम ने
लिखा है, मैं एक नई तकनीकी-जाति का सदस्य बन गया और मेरी जन्मना जाति पीछे छूट गई।
1964 में उसे अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में प्रवेश मिल गया। सैम पित्रोदा को
अमेरिका में कैसे सफलता मिली? इसकी अलग कहानी
है उससे ज्यादा रोचक तथ्य यह है कि उन्हें (अब 'उसे' कहना
कद को कम करना होगा) भारत में दुबारा प्रवेश कैसे मिला। कोई जुनून तो था जिसके
सहारे पित्रोदा ने असाधारण योग्यता प्राप्त की। बाद में पित्रोदा भारत की दूरसंचार
क्रांति के सूत्रधार बने। पर 1964 तक उन्होंने टेलीफोन का इस्तेमाल नहीं किया था।
दो विपरीत परिस्थितियों को एक ही जिन्दगानी में देखने वालों को सूची बनाई जाए तो
पित्रोदा का नाम काफी ऊपर होगा, पर यहां इरादा
कुछ और बताने का है।
पित्रोदा ने लिखा है, 1980 में मैं लखपति (बल्कि करोड़ पति) बन चुका
था धन सम्पदा को लेकर में संतुष्ट था, पर मुझे भारत के
गांव की गरीबी याद थी। मेरी स्वार्थी यात्रा ने मुझे काफी सफल बनाया था, और
उसी के दबाव में मैंने एक और सपना देखा जो अमेरिका की खास पहचान है। यह सपना है नई
चुनौती, नए लक्ष्यों की खोज। 1980 में भारत में कुल जमा 25,00,000 टेलीफोन थे।
देश की 7 प्रतिशत आबादी के पास इनमें से 55 प्रतिशत टेलीफोन थे। देश की 70 करोड़
जनता के लिए कुल 12,000 सार्वजनिक फोन बूथ थे। देश के छह लाख गांवों में से 97% के
पास एक भी फोन नहीं था। सैम पित्रोदा का एक सामाजिक सोच है। वह कहते हैं कि रोटी, कपड़ा
और मकान के साथ भारत जैसे देश को नवीनतम संचार तकनीक की जरूरत है। यह तकनीक पश्चिम
से खरीदने के बजाय उसे भारत में ही विकसित करना चाहिए। सैम पित्रोदा ने इस दिशा
में काफी काम किया और उन्हें पूरी तरह सफल न मानें तो विफल भी नहीं कह सकते। भारत
की राजनीति में सैम पित्रोदा कैसे जमे रहे और उन्हें हटना क्यों पड़ा? यह
भी रोचक विषय है। पर उससे ज्यादा रोचक बात यह है कि वे राजीव गांधी से टकरा कैसे
गए?
1981 में सैम पित्रोदा को बम्बई से उनके एक दोस्त ने अखबार की कतरन
भेजी जिसमें सूचना दी गई थी कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के दूरसंचार
विकास की समीक्षा के लिए एक उच्चस्तरीय समिति बनाई है। सैम ने इस समिति के अध्यक्ष
को चिट्ठी लिखकर मुलाकात का समय मांगा। अमेरिका से आई चिट्ठी और भेजने वाले के इतालवी
नाम से अध्यक्ष महोदय प्रभावित हुए। कौन जानता है कि बाराबंकी से किसी रामलोटन
चौरसिया ने वैसी चिट्ठी लिखी होती तो उसे बुलवाया जाता। सैम भारत आए और बाद में
पहले अध्यक्ष फिर राजीव गांधी के सहायकों, उसके
बाद राजीव गांधी से और फिर इंदिरा गांधी से मिले। वह सब क्या हुआ और कैसे हुआ, उसके
विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है, पर यह जरूर है
कि सैम की चिट्ठी भारत में कारगर हुई। देशभर में पीसीओ क्रांति, जिसे
हम देख रहे हैं, वह सैम की देन है।
बात कहने और उसे सुनने की संस्कृति विकसित हो, तब
काफी कुछ किया जा सकेगा। क्या वह संस्कृति हमने विकसित की है? रोडवेज
की बसों में जब वे नई होती है, एक डिब्बा लगा
होता है 'सुझाव शिकायतें’ या फिर यह
सूचना लिखी होगी 'परिवाद पुस्तिका कंडक्टर से मांगें!' परिवाद
पुस्तिका देश भर के विभागों और दफ्तरों में होती है। हैरत है कि उनमें शिकायतें और
सुझाव दर्ज नहीं होते। क्या शिकायतें है नहीं और सुझाव देने की जरूरत नहीं रही? बात
यह है कि शिकायतें इतनी है कि उन्हें सुना ही नहीं जा सकता। शिकायत है कि परिवाद
पुस्तिका नहीं है। बस के कंडक्टर, ट्रेन के गार्ड, बैंक
के मैनेजर या राशन के दुकानदार से परिवाद पुस्तिका मांग कर देखे। सुझाव इतने सारे
है कि उन पर अमल करना असंभव है। ज्यादातर लोग अपना काम कराना चाहते हैं।
नियम-कानून की फिक्र किए बगैर। ऐसे जुनूनी भी बैठे हैं जो ताउम्र लिखा पढ़ी करते
हैं। उनका तजुर्बा यह है कि कायदे से लिखा पढ़ी की जाए तो प्रधानमंत्री को भी
सुनना पड़ता है। पर आम आदमी से इस हद तक कलम घिसाई की उम्मीद नहीं की जा सकती।
खासतौर से उस समाज में जहां हल्की-फुल्की आह को कोई नहीं सुनता।
गूंगा-बहरा समाज आगे नहीं बढ़ सकता। खासतौर से वह समाज, जिसे
मारपीट कर गूंगा बनाया गया हो। किसने मारा-पीटा? यह
भी लम्बी कथा है इतना समझ लीजिए कि 1947 की आजादी इस गूंगेपन का इलाज नहीं कर पाई।
क्या यह व्यक्तियों का दोष है? व्यक्तियों पर सारी
जिम्मेदारी डालना उचित नहीं होगा। व्यवस्था स्वयं कुछ नहीं होती, इसलिए
व्यवस्था के बारे में भी क्या कहें। भारत की दशा उन पर एयरकंडीशंड गांधी आश्रमों
जैसी है जहां के 'सेल्समैन' अपना
माल बेचने को उत्सुक नजर नहीं आते। या फिर बैकों के उन बाबुओं जैसी जो काउंटर के
उस तरफ जाने के बाद संवेदनहीन हो जाते है। गांधी आश्रम का कार्यकर्ता क्यों इतना
ढीला-ढाला है? व्यवस्था ने कभी उसे सक्रिय करने की कोशिश नहीं की। अच्छे काम से उसे
कभी फायदा और घटिया काम से कभी नुकसान नहीं हुआ। वह काम क्यों करे?
फिलहाल काम या कार्य संस्कृति' पर
भी चर्चा करने का यहां इरादा नहीं है। यहां तो बात सुनवाई की है। हाल में देश के
उच्चतम न्यायालय और कुछ हाईकोर्टों ने सरकारी अफसरों को अदालत की अवमानना का दोषी
पाकर सजा देनी शुरू की है। यह अनायास है या सायास, पर शुभ है। देश में बाकी न्याय
व्यवस्था की जो भी स्थिति 'हो, न्यायपालिका
की अवमानना के मामले भाग संख्या में अनिर्णीत पड़े हैं। अपनी अवमानना में बेसुध
न्याय पालिका को जागृत कैसे कहा जाए? अखबारों में
पाठकों के पत्र छपते हैं उन पर कितनी कार्रवाई होती है? कार्रवाई
नहीं होती। इसलिए पत्र लिखने का चलन कम होता जाता है। पाठकों को अखबारों से भी
शिकायत होती है। अखबार से वैचारिक असहमति के अलावा तथ्य-सम्बद्ध शिकायतें भी होती
है। अमेरिका के 'कुछ अखबार अपने सम्पादकीय पेज के
सामने 'का पेज पाठकों के विचारों के लिए छोड़ते है। इधर हमारे विचार, उधर
आपके भारत में अभी उसका चलन शुरू नहीं हुआ है। कारण यह भी है कि पाठक प्रतिक्रिया
व्यक्त नहीं करता। अखबार में सड़क पर, अस्पताल में, बस, ट्रेन
और कहीं भी। इस ठंडेपन का कोई नतीजा तो होगा।
• प्रमोद जोशी
(06 अक्टूबर 1995, स्वतंत्र भारत, लखनऊ)
वाह! अद्भुत लेख और गज़ब की जानकारियां l देश की पिछली सरकारों की करगुज़ारियों के कारण भारत कितना पिछड़ गया था, इसका कच्चा चिटठा खोलता यह लेख l पर अब देश भी बदला है और देश ki👍कार्य संस्कृति भी l
ReplyDeleteसाधुवाद l
🙏🙏
सेम पित्रोदा जी के बारे में जानकर अच्छा लगा।
ReplyDeleteसंवाद हर समय की जरूरत है, कभी कभी इसके परिणाम चौकाने वाले होते हैं।
अतः शिकायत, प्रसंसा, मीमांसा बहुत आवश्यक है।
धन्यवाद, लेख बहुत रोचक थी।
प्रमोद जी आप नौ सौ वर्ष पीछे चले गये। तब न आप रहे होंगे न स्वतंत्र भारत! वैसे लेख उस समय के हिसाब से बहुत सम सामयिक था! सूचना क्रांति न होती तो भारत की विशाल जनसंख्या का क्या होता यह सोच कर पसीना आता है।
ReplyDeleteबहरहाल आपने लेख को आखिरी पंक्ति तक पढ़ा, इसके लिए धन्यवाद। चूंकि मेरे मित्र ने लेख को दुबारा टाइप नहीं इमेज से टेक्स्ट में बदलने वाले टूल का इस्तेमाल किया था, इसलिए 9 को 0 बना दिया। उसे मैंने दुरुस्त कर दिया। गलती तो गलती है। उसकी तरफ ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद।
Deleteएकदम सौ टके की बात। इस मुल्क की फितरत की परत दर परत उघारती हुई। बहुत सुंदर🙏
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