देस-परदेश
भारत की विदेश-नीति के लिहाज से साल की शुरुआत
काफी उत्साहवर्धक है. जी-20 और
शंघाई सहयोग संगठन की अध्यक्षता के कारण इस साल ऐसी गतिविधियाँ चलेंगी, जिनसे देश
का महत्व रेखांकित होगा. इसकी शुरुआत ‘वॉयस ऑफ ग्लोबल-साउथ समिट’ से हुई है, जिससे आने वाले समय की दिशा का पता लगता है.
यह भी सच है कि पिछले
तीन-चार दशक के तेज विकास के बावजूद भारत अभी आर्थिक रूप से अमेरिका या चीन जैसा साधन-संपन्न
नहीं है, फिर भी विकसित और विकासशील देशों के बीच सेतु के रूप में उसकी परंपरागत
छवि काफी अच्छी है. सीमा पर तनाव के बावजूद भारत और चीन के बीच व्यापार 2022 में
बढ़कर 135.98 अरब डॉलर के अबतक के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया. इसमें भारत 100 अरब
डॉलर से ज्यादा के घाटे में है.
चीन का विकल्प
यह घाटा फौरन दूर हो
भी नहीं सकता, क्योंकि वैकल्पिक सप्लाई-चेन अभी तैयार नहीं हैं. कारोबारों को चलाए
रखने के लिए हमें इस आयात की जरूरत है. पिछले चार दशक में विश्व की सप्लाई चेन का
केंद्र चीन बना है. इसे बदलने में समय लगेगा. अब भारत समेत कुछ देश विकल्प बनने का
प्रयास कर रहे हैं. देखते ही देखते दुनिया में मोबाइल फोन का दूसरा सबसे बड़ा
उत्पादन भारत में होने लगा है.
पहले अमेरिका और अब जापान ने चीन को सेमीकंडक्टर सप्लाई पर पाबंदी लगाई है. जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा की पिछले हफ्ते अमेरिका-यात्रा के दौरान चीन को घेरने की रणनीति दिखाई पड़ने लगी है. स्पेस, आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस, इलेक्ट्रिक वेहिकल्स, ऑटोमोबाइल्स, मेडिकल-उपकरणों, कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर शस्त्र-प्रणालियों तक में सेमीकंडक्टर महत्त्वपूर्ण हैं.
समन्वयकारी
ताकत
अमेरिका और चीन दोनों
के बीच आर्थिक और सामरिक सवालों को लेकर जो अदावत पैदा हो गई है, उसे देखते हुए दुनिया
में एक ऐसी ताकत की जरूरत जन्म ले रही है, जो सबको जोड़े. इस भूमिका को निभाने के लिए भी बुनियादी दमखम की जरूरत है.
चीन के साथ प्रतिस्पर्धा का सामना भी हमें करना
है. जिस ‘ग्लोबल-साउथ’ की बात भारत ने की है, उसे अपने साथ जोड़ने
की कोशिश चीन भी कर रहा है. चीन और भारत की पद्धतियों में बुनियादी फर्क है, उसे
भी समझना होगा.
रूस के साथ मिलकर चीन एक ‘पोस्ट-वेस्टर्न विश्व-व्यवस्था’ की बात कर
रहा है. ऐसी व्यवस्था, जिसमें अमेरिका और यूरोप का वर्चस्व नहीं हो. इसका
व्यावहारिक अर्थ है एक नए शीतयुद्ध की तैयारी या दूसरे शब्दों में दो ध्रुवीय
दुनिया की वापसी.
भारतीय-दृष्टि
भारत जिन विकासशील
देशों को अपने साथ लेकर आगे बढ़ना चाहता है, वे पचास के दशक से हमारे साथ जुड़े
हैं. गुट-निरपेक्ष आंदोलन या ‘नैम’ हालांकि आज नाममात्र के लिए बचा है, पर वे देश कहीं चले
नहीं गए हैं और न उनकी समस्याओं का समाधान हुआ है.
हालांकि चीन ‘नैम’ के साथ कभी नहीं जुड़ा,
पर अब वह इन देशों को आकर्षित कर रहा है. उसका यह जुड़ाव मूलतः कारोबारी या
साहूकारी है. अपने बॉर्डर रोड इनीशिएटिव यानी बीआरआई कार्यक्रम
के मार्फत वह विकासशील देशों के इंफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश कर रहा है. उसके दोष भी नजर
आने लगे हैं.
हिंद-प्रशांत
भारत और चीन के तरीकों का फर्क हिंद महासागर
क्षेत्र में देखा जा सकता है. पिछले साल जनवरी में श्रीलंका के दौरे पर आए चीन के तत्कालीन
विदेशमंत्री वांग यी ने हिंद महासागर से जुड़े देशों के लिए एक मंच की स्थापना का
प्रस्ताव रखा था. वांग यी ने कहा था कि इस मंच के ज़रिए ‘साझा विकास को बढ़ावा
दिया जाएगा और आम सहमति और तालमेल’ को बढ़ाया जाएगा.
इसके बाद गत 21 नवंबर को चीन के दक्षिणी पश्चिमी
प्रांत युन्नान के कुनमिंग शहर में, 19 सदस्य देशों
वाले ‘चीन-हिंद महासागर क्षेत्र मंच’ की पहली बैठक बुलाई गई. इसमें भारत को
छोड़कर आसपास के देशों को बुलाया गया था.
इस मंच को भारत की पहल पर बने ‘इंडियन ओशन रिम
एसोसिएशन (आयोरा)’ की जवाबी मुहिम मान सकते हैं, जिसे 1997
में हिंद महासागर से लगे 23 देशों के साथ मिलकर बनाया गया था. हालांकि चीन ने इस
बात को कभी स्पष्ट नहीं किया कि हिंद महासागर से बहुत दूर चीन को एक नए समांतर समूह
की जरूरत क्यों है, पर स्पष्ट है कि वह इस इलाके पर अपना प्रभाव बनाना चाहता है.
भारतीय सहायता
दूसरी तरफ भारत की ‘सागर’
(सिक्योरिटी ऐंड ग्रोथ फ़ॉर ऑल इन द रीजन) पहल है, जिसे
2015 में नरेंद्र मोदी ने मॉरिशस में लॉन्च किया था. कोविड-19 के दौरान भारत ने ‘पड़ोसी
पहले’ सिद्धांत के आधार पर हिंद महासागर से जुड़े देशों तक दवाएं, ऑक्सीजन और
वैक्सीन पहुँचाई थी.
इसके अलावा ‘प्रोजेक्ट मौसम’ और ‘इंटीग्रेटेड
कोस्टल सर्विलांस सिस्टम’ जैसे कार्यक्रम भी हैं, पर ये सभी कार्यक्रम हिंद
महासागर तक सीमित हैं, जबकि चीन लंबी दूरी पार करके इस इलाके
में अपना दबदबा कायम करना चाहता है. दूसरी तरफ भारत के कार्यक्रम इन देशों के
संधारणीय-विकास में सहारा देने के लिए बनाए गए हैं.
ग्लोबल साउथ समिट में शिक्षा, स्वास्थ्य,
ऊर्जा, जलवायु परिवर्तन जैसे मसलों के अलावा आर्थिक-सहयोग जैसी बातें भी शामिल
हैं. कोविड-19 के दौरान भारत के वैक्सीन-वितरण की काफी तारीफ हुई थी. भारत ने
दक्षिण एशिया के देशों के लिए उपग्रह का प्रक्षेपण भी किया था. आने वाले समय में
अंतरिक्ष-विज्ञान की जरूरत विकासशील देशों को भी होगी.
दबाव में चीन
पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम पर नज़र डालें,
तो चीनी रुख में बदलाव भी दिखाई पड़ रहा है. पिछले वर्ष नए साल पर चीनी सेना ने गलवान
घाटी में एक ध्वजारोहण का दावा किया था. यानी भारत को दादागीरी का संदेश दिया गया
था. इस साल किसी ध्वजारोहण की खबर नहीं आई.
इतना ही नहीं राष्ट्रपति शी चिनफिंग का नए साल
की पूर्व-संध्या पर संबोधन बहुत नपा-तुला था. उन्होंने ताइवान के एकीकरण का नाम भी
नहीं लिया, जबकि पिछले साल उन्होंने फौजी कार्रवाई तक की धमकी दी थी.
यह फर्क तीन महीने में आया है. अक्तूबर में
कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस में भी उन्होंने सेना को तैयार रहने का संदेश दिया
था. पर अब 31 दिसंबर, 2022 को उन्होंने अपने संबोधन में कहा, ‘हम शांति और विकास चाहते हैं…किसी एक विषय पर ही अलग-अलग
लोगों की अलग-अलग धारणाएं होती हैं.’
अमेरिका-चीन
अमेरिका को लेकर भी
चीन की शब्दावली में नरमी आई है. अमेरिका में चीन के निवृत्तमान राजदूत और देश के
नव-नियुक्त विदेशमंत्री चिन गांग ने गत 4 जनवरी को वॉशिंगटन पोस्ट में लिखे अपने
ऑप-एड लेख में अमेरिका के दोस्ताना और मेहनती लोगों की तारीफ की.
चिन गांग को ईंट का जवाब पत्थर से देने वाला डिप्लोमैट
माना जाता है. उन्होंने वांग यी का स्थान
लिया है, जो 2013 से देश की विदेश नीति की कमान संभाले
हुए थे. चिन को पिछले साल ही राजदूत बनाकर भेजा गया था और उन्हें अमेरिका साथ
रिश्तों को वापस रास्ते पर लाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी.
उन्हें ‘वुल्फ वॉरियर' के
रूप में जाना जाता है, यानी ऐसा डिप्लोमैट जो चीन की किसी भी
आलोचना पर बेहद सख्त जवाब देता है. यह विशषण उन चीनी राजनयिकों को दिया जाता है जो
पश्चिमी देशों के बारे में कड़ा रवैया रखते हैं. वे कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित
ब्यूरो के सदस्य भी हैं.
कोविड-19 प्रसंग
पिछले तीन साल से चीन दुनिया से कटा रहा है. इस
दौरान ही कोविड-19, ताइवान और हांगकांग-प्रसंगों तथा यूक्रेन मसले पर रूस की
तरफदारी के कारण पश्चिम से उसके रिश्ते और खराब हुए हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के
बार-बार अनुरोध के बावजूद चीन कोविड-19 के वायरस सीक्वेंसिंग की जानकारी देने से
आनाकानी करता रहा है.
गत 7 दिसंबर को उसने अपनी ‘जीरो कोविड’ नीति के तहत लगे
प्रतिबंधों को खत्म किया है और वायरस सीक्वेंसिंग विवरण भी देने शुरू किए हैं. पश्चिमी विशेषज्ञ इस वायरस के मूल की छानबीन करना चाहते हैं. हालांकि
चीन ने जो जानकारी दी है, वह काफी नहीं है, पर उसके रुख में बदलाव नजर आ रहा है.
उसने आधिकारिक रूप से जानकारी दी है कि गत 8
दिसंबर के बाद से 12 जनवरी, 2023 तक देश में करीब 60,000 लोगों की कोरोना से मौत
हुई है. इस बदले हुए रुख का मतलब क्या निकाला जाए? ब्रुकिंग्स
इंस्टीट्यूट के विशेषज्ञ रायन हास का कहना है कि शायद यह माओ जे दुंग की ‘फाइट-फाइट, टॉक-टॉक’ रणनीति है.
भारत का
प्रतिस्पर्धी
भारत की प्रतिस्पर्धा में नरमी-गरमी का माहौल बना
रहेगा. भारत ग्लोबल साउथ के जिन देशों से संपर्क बना रहा है, चीन की भी वहाँ
घुसपैठ हे. उसके नए विदेशमंत्री चिन गांग इस समय इथोपिया, गैबॉन, अंगोला, बेनिन और
मिस्र के दौरे पर निकले हैं. यह उनकी पहली विदेश-यात्रा है.
गत 9 जनवरी को जब वे अचानक आधी रात को
बांग्लादेश के शाह जलाल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरे तो भारत में पर्यवेक्षकों
के भी कान खड़े हो गए. कहा गया कि उनकी फ़्लाइट फ़्यूल लेने के लिए रुकी थी, पर यह
कारण समझ में नहीं आता. इतनी महत्वपूर्ण-यात्रा पर निकलने के पहले क्या फ़्यूल
जैसे मसले पर विचार नहीं हुआ होगा?
इतनी महत्वपूर्ण यात्रा के बीच उनका ढाका में रुकना बताता है कि कोई बात जरूर
थी. सवाल यह भी था कि किसी दूसरे रास्ते से जाने की जगह वह सिर्फ़ बांग्लादेश से
होते हुए अफ़्रीका क्यों जा रहे थे.
लगातार 33वें वर्ष में किसी चीनी विदेशमंत्री ने
अपने वार्षिक विदेश दौरों की शुरुआत अफ़्रीका से की है. भारत की दिलचस्पी भी
अफ्रीका में है. पिछले साल अक्तूबर में गुजरात के गांधीनगर में आयोजित रक्षा
प्रदर्शनी डेफएक्सपो-2022 में भारत-अफ्रीका रक्षा वार्ता और हिंद महासागर क्षेत्र
के रक्षा मंत्रियों के सम्मेलन से भी भारत की रणनीति स्पष्ट थी. अगले कुछ वर्षों
में भारतीय रेलवे और इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियाँ अफ्रीकी देशों में सक्रिय दिखाई
पड़ेंगी.
No comments:
Post a Comment