कतरनें यानी मीडिया में जो इधर-उधर प्रकाशित हो रहा है, उसके बारे में अपने पाठकों को जानकारी देना. ये कतरनें केवल जानकारी नहीं है, बल्कि विचारणीय हैं.
द वायर में अपूर्वानंद का एक आलेख न केवल पठनीय है, बल्कि इसपर चर्चा होनी चाहिए. उन्होंने लिखा है:
‘नए साल में किन चिंताओं, चुनौतियों और उम्मीदों के साथ प्रवेश कर रहे हैं?’, मित्र का प्रश्न था. अमूमन नए साल के इरादों का जिक्र होता है. लेकिन
एक समाज या एक देश के तौर पर हम कुछ इरादे करें और वे कारगर हों, इसके पहले ईमानदारी से अपनी हालत का जायज़ा लेना ज़रूरी होगा.
चिंता सबसे बड़ी क्या है? कुछ
लोग कहते हैं समाज में समुदायों के बीच बढ़ती हुई खाई. मुख्य रूप से हिंदू मुसलमान
के बीच अलगाव. लेकिन ऐसा कहने से भरम होता है कि इसमें दोष दोनों पक्षों का है.
बात यह नहीं है.
असल चिंता का विषय है, भारत
में ऐसे हिंदू दिमाग का निर्माण जो श्रेष्ठतावाद के नशे में चूर है. इसी से बाकी
बातें जुड़ी हुई हैं. एक श्रेष्ठतावादी मस्तिष्क बाहरी प्रभावों से डरा हुआ,
संकुचित और बंद दिमाग होता है. इस वजह से वह कमजोर भी हो जाता है.
स्वीकार करने में बुरा लगता है, लेकिन सच है कि आज का आम हिंदू मन बाहरी, विदेशी
के प्रति द्वेष और घृणा से भरा हुआ है. बाहरी तरह-तरह के हो सकते हैं. वे मुसलमान
हैं और ईसाई भी. उनसे उसका रिश्ता शत्रुता का ही हो सकता है.
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चीन से रिश्ते
विदेश मंत्री एस जयशंकर ने चीन के साथ बने हालात को 'प्रचंड चुनौती' बताया है. हालांकि उन्होंने इस बारे में और कुछ नहीं कहा है कि 'प्रचंड चुनौती' से उनका क्या मतलब है. बीबीसी हिंदी ने कोलकाता से छपने वाले अंग्रेज़ी अख़बार टेलीग्राफ़ की रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखा है कि एस जयशंकर इससे पहले चीन के साथ भारत के द्विपक्षीय संबंधों को 'असामान्य' कहते रहे हैं और इस लिहाज से विदेश मंत्री की ताज़ा टिप्पणी एक क़दम आगे बढ़ने जैसी है.
वस्तुतः जयशंकर ने अंग्रेजी के शब्द ‘intense
challenge’ का इस्तेमाल किया है. बीबीसी के प्रचंड चुनौती
से नेपाल के प्रचंड का भ्रम पैदा होता है. बहरहाल जयशंकर ने काफी कठोर शब्दों का
सहारा लिया है. वियना में रविवार को भारतीय समुदाय को संबोधित करते हुए उन्होंने
कहा कि "प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के दौरान हमारी राष्ट्रीय
सुरक्षा में गंभीर बदलाव हुए हैं."
उन्होंने कहा, "बेशक
इसमें काफ़ी कुछ उस प्रचंड चुनौती पर केंद्रित है जिसका हम चीन से लगने वाली अपनी
उत्तरी सीमाओं पर सामना कर रहे हैं."
ओलिंपिक-दावेदारी
आज के बिजनेस स्टैंडर्ड में टीसीए श्रीनिवास राघवन
का यह
लेख पठनीय है। इसमें केवल खेल के इंफ्रास्ट्रक्चर तक की बात नहीं है, बल्कि
पूरी अर्थव्यवस्था का प्रश्न है। लेख पढ़ें:
केंद्रीय खेल मंत्री अनुराग ठाकुर ने इस सप्ताह
के शुरू में कहा कि सरकार 2036 में ओलिंपिक की मेजबानी के लिए भारतीय ओलिंपिक संघ के
बोली लगाने के प्रस्ताव का समर्थन करेगी और इसके लिए मेजबान शहर अहमदाबाद होने की
संभावना है। सचमुच? या हाल में हिमाचल प्रदेश चुनाव में
हार के बाद खोई हुई जमीन को प्राप्त करने का प्रयास है। भारतीय जनता पार्टी संसद
की जीती हुई सीटों के तहत आने वाले विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव हार गई।
लगता यह है कि ओलिंपिक की मेजबानी करने के लिए
बन रही सर्वसम्मति आर्थिक रूप से फायदे का सौदा साबित नहीं होगी। बोली लगाने में
जीतने वाला देश ओलिंपिक की मेजबानी करता है। मेजबानी करने वाले देश की घोषणा आमतौर
पर सात से 10 साल पहले हो जाती है। लेकिन खर्च तो ओलिंपिक समिति को प्रभावित करने
के प्रयास से ही शुरू हो जाता है। सभी खर्चे शामिल करने पर टोक्यो ओलिंपिक की लागत
35 अरब डॉलर (2.89 लाख करोड़ रुपये से अधिक) आई। हालांकि कोविड 19 के कारण यदि
आंकड़ा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया तो भी रियो गेम्स और लंदन ओलिंपिक में से हरेक की
लागत करीब 13 अरब डॉलर आई। हालांकि पेइचिंग ओलिंपिक की भारी भरकम लागत 52 अरब डॉलर
आई। लिहाजा अनिश्चितता से भरे भविष्य में भारी भरकम खर्च करने के लिए समिति के
समक्ष अपना पक्ष रखने से पहले भारत को कई बार सोचना चाहिए। पूरा
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