देस-परदेश
भारत-पाकिस्तान रिश्तों में किस कदर तेजी से उतार-चढ़ाव आता है, इसका पता पिछले एक हफ्ते के घटनाक्रम में देखा जा सकता है. पहले खबर आई कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने यूएई के चैनल अल अरबिया के साथ एक साक्षात्कार में कहा कि हम कश्मीर समेत सभी मुद्दों पर पीएम नरेंद्र मोदी के साथ गंभीर बातचीत करना चाहते हैं.
उन्होंने यह भी कहा कि भारत के साथ तीन-तीन
युद्ध लड़कर पाकिस्तान ने सबक सीख लिया है. इससे गरीबी,
बेरोजगारी और परेशानी के सिवा हमें कुछ नहीं मिला. अब हम शांति चाहते
हैं. मंगलवार 17 जनवरी को पाकिस्तान के सरकारी टीवी चैनल पर साक्षात्कार के
प्रसारण के फौरन बाद प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से जारी बयान में कहा गया कि
पीएम के बयान को गलत संदर्भ में लिया गया. बातचीत तभी हो सकती है, जब भारत अगस्त 2019
के फैसले को वापस ले.
ईमानदार बातचीत
शरीफ ने अरब चैनल पर सोमवार 16 जनवरी को प्रसारित
बातचीत में कहा था कि दोनों देशों के बीच बातचीत शुरू कराने में संयुक्त अरब
अमीरात महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, जिसके भारत के
साथ बेहतर संबंध हैं. शरीफ ने कहा, भारतीय नेतृत्व व प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी को मेरा संदेश है कि आइए हम टेबल पर बैठें और कश्मीर जैसे ज्वलंत मुद्दों को
सुलझाने के लिए गंभीर व ईमानदार बातचीत करें.
शहबाज़ शरीफ हाल में यूएई की यात्रा पर गए थे और वहाँ उन्होंने 12 जनवरी को राष्ट्रपति मुहम्मद बिन ज़ायेद अल-नाह्यान के साथ मुलाकात की थी. उस मुलाकात का ही ज़िक्र उन्होंने अल अरबिया के इंटरव्यू में किया. इस इंटरव्यू में उन्होंने कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन और अगस्त, 2019 का ज़िक्र भी किया था.
इस पूरे मामले में एक रोचक पहलू पर ध्यान देने
की जरूरत है. पाकिस्तान मानता है कि भारत के साथ बातचीत के मामले में कश्मीर
केंद्रीय-मुद्दा है. बावजूद इसके शहबाज़ शरीफ की यात्रा के बाद जारी संयुक्त
घोषणापत्र में कश्मीर का कोई उल्लेख ही नहीं है. यह बात पाकिस्तान को अच्छी तरह
पता है कि भारत और यूएई के रिश्ते बहुत अच्छे हैं.
यूएई की भूमिका
माना जाता है कि दोनों देशों ने फरवरी 2021 में
नियंत्रण रेखा पर गोलीबारी रोकने के लिए सन 2003 के समझौते को पुख्ता तरीके से
लागू करने की जो घोषणा की थी, उसके पीछे भी यूएई की भूमिका थी. यह बात उन्हीं
दिनों अमीरात के वॉशिंगटन स्थित राजदूत युसुफ अल ओतैबा ने कही थी.
अब कुछ सवाल हैं. शहबाज़ शरीफ ने यूएई से अब यह
अनुरोध क्यों किया कि भारत के साथ बातचीत का रास्ता खोलें, जबकि उनके देश की
बुनियादी शर्त ही अगस्त, 2019 के फैसले को वापस कराने की है? शहबाज़ शरीफ की यात्रा के
ठीक पहले पाकिस्तान के नवनियुक्त सेनाध्यक्ष जनरल आसिम मुनीर भी यूएई की यात्रा पर
गए थे. क्या उन्होंने यूएई के नेतृत्व को यह नहीं बताया था कि भारत से बात की शर्त
ही यही है?
क्या वजह है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्रियों को
बार-बार यू-टर्न लेना पड़ता है? वहाँ
के प्रशासन में कौन सी ऐसी ताकत है, जो अपने प्रधानमंत्रियों से यू-टर्न करवाती है? ऐसा पहला बार नहीं हुआ है. फरवरी 2021 में गोलाबारी तो
रुकी, साथ ही पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष का यह बयान भी सामने आया कि हमें कश्मीर के
मसले को पीछे रखकर भारत से बात करनी चाहिए. इमरान खान की सरकार ने भारत से कपास और
चीनी आयात करने का फैसला किया और फिर अगले दिन ही फैसला रद्द कर दिया.
दुश्मन हमसाया!
सीधी सी बात है कि पाकिस्तान की राजनीति, सेना
और मीडिया हर जगह भारत को ‘दुश्मन हमसाया’ कहा जाता है.
अपनी जनता को इस हद तक भड़काने के बाद वे भारत से बात नहीं कर सकते. दूसरे यदि
उनके यहाँ भारत से बात करने और नहीं करने के पक्ष में दो तरह के लोगो हैं, तो पहले
उन्हें आपस में बैठ कर एक राय बनानी चाहिए कि बात करनी भी है या नहीं.
सच यह है कि भारत और पाकिस्तान के बीच एक अरसे
से बैकरूम बातचीत चलती रहती है. हाल में दो पाकिस्तानी पत्रकारों हामिद मीर और
जावेद चौधरी ने खबरें दी हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अप्रैल 2021 में
हिंगलाज माता के मंदिर की यात्रा पर जाने को तैयार हो गए थे. इसके बाद उनकी इमरान
खान से मुलाकात होती और कश्मीर में यथास्थिति को बनाए रखने की कोई घोषणा होती. इस
सिलसिले में जानकारी देने वाले सूत्रों का कहना है कि बीस साल तक के लिए कश्मीर को
पीछे कर दिया जाता.
इमरान ने हाथ खींचा
बहरहाल इमरान खान ने हाथ खींच लिया और यह
यात्रा नहीं हो पाई. इन दोनों पत्रकारों की बात कितनी सही या गलत है, इसपर टिप्पणी
करने के बजाय केवल इस बात पर गौर करें कि दोनों देशों के बीच रिश्ते सुधारने की
कितनी कोशिशें हुई हैं, तो आप पाएंगे कि कोशिशें तो हुईं, पर उनका अंत नाटकीय हुआ.
यह बात अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा से
लेकर नरेंद्र मोदी की लाहौर यात्रा से समझी जा सकती है. आगरा शिखर सम्मेलन से लेकर
2007 में मनमोहन सिंह और परवेज़ मुशर्रफ के बीच चार सूत्री समझौते की खबरें
निराधार नहीं है. भारत-पाकिस्तान वार्ताएं किस बुनियाद पर संभव हैं, वे कभी होंगी
भी या नहीं होंगी, ऐसी बातों का जवाब देना संभव नहीं है.
शांति और भरोसा
इतना कहा जा सकता है कि सबसे पहले यथास्थिति
बनाते हुए इस इलाके में शांति और भरोसे का माहौल बनाना होगा. पाकिस्तान को यह भी
समझना होगा कि भारत सरकार ने अगस्त, 2019 का जो फैसला किया है, वह वापस नहीं होगा.
ज्यादा से ज्यादा कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्ज बहाल हो सकता है.
पाकिस्तान की तरफ से इस मामले में जितनी देरी
होगी, उतना ही भारत सरकार का रुख कड़ा होता जाएगा. पिछले साल रक्षामंत्री ने
पाक-अधिकृत कश्मीर की वापसी से जुड़ा बयान देकर इसका संकेत दे दिया था. पाकिस्तानी
राज-व्यवस्था भी कट्टरपंथ की आँधियाँ ज्यादा झेल नहीं सकती.
अफगानिस्तान में कट्टरपंथी आँधियों के पीछे भी
पाकिस्तान का हाथ है. इसका परिणाम तहरीके तालिबान पाकिस्तान है, जो भस्मासुर साबित
हो रहा है. पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान ने कश्मीर के लिए जो आतंकी नेटवर्क तैयार
किया है, वह आत्मघाती साबित हो रहा है.
आमराय बनाएं
निजी तौर पर शहबाज़ शरीफ, नवाज़ शरीफ, आसिफ
ज़रदारी या इमरान खान अकेले दम पर आम सहमति नहीं बना सकते. इसके लिए सेना, अदालतों
और देश की व्यवस्था में अहमियत रखने वाले सभी महत्वपूर्ण लोगों को एकसाथ आना होगा.
पहले उन्हें मिलकर तय करना होगा कि वे चाहते क्या हैं.
पाकिस्तानी सत्ता
प्रतिष्ठान को अपनी माली हालत पर भी गौर करना चाहिए. उन्हें श्रीलंका के हालात से
सबक लेना चाहिए. हाल में खबर थी कि सऊदी अरब और यूएई ने कुछ अरब डॉलर से संकट टाला
है, ताकि पाकिस्तान डिफॉल्ट न कर जाए, पर वे कितना बचाएंगे? गिरावट रुक भी गई, तो कर्ज चुकाने के लिए जो कर्ज लिए जा रहे हैं,
उसे चुकाने में बरसों लग जाएंगे. उन्हें समझना चाहिए कि पाकिस्तान बहुत पीछे चला
गया है.
हाल में चेन्नई में हुई एक गोष्ठी में
विदेशमंत्री एस जयशंकर ने कहा, विभाजन न हुआ होता तो भारत दुनिया का सबसे बड़ा देश
होता. यहाँ बात जनसंख्या की नहीं है. आर्थिक-दृष्टि से भी चीन से आगे होते,
क्योंकि लड़ाइयों पर अपनी ऊर्जी नहीं लगाते. बहरहाल विभाजन वास्तविकता है, उसे
स्वीकार करें. अलबत्ता हम सहयोग करें, तब भी काफी आगे जा सकते हैं.
क्या सबक सीखा?
शहबाज़ शरीफ की एक बात में उनकी ईमानदारी जरूर
झलकती है. उन्होंने कहा, ‘भारत के साथ तीन-तीन युद्ध लड़कर पाकिस्तान ने सबक सीख लिया है. इससे गरीबी, बेरोजगारी और परेशानी के सिवा हमें कुछ
नहीं मिला. अब हम शांति चाहते हैं.’ यह बात पाकिस्तान की
जनता और सत्ता-प्रतिष्ठान सबको समझनी चाहिए. वे नहीं समझेंगे, तो समझ लें कि आगे
तबाही का मंज़र ही मिलने वाला है.
दोनों देशों के संबंध
अंधेरे रास्ते की तरह हैं. कई बार समतल जमीन मिलती है और कई बार ठोकरें. हमें न तो
आक्रामक उन्मादी होकर सोचना चाहिए और न खामोशी अख्तियार करनी चाहिए. रिश्तों में
जो सुधार की जो थोड़ी सी संभावनाएं नजर आती हैं, वह व्यापारी
समुदाय के आपसी रिश्तों और दोनों देशों के बीच ‘ट्रैक टू’ के संपर्कों के कारण हैं.
कम से कम इन्हें बढ़ाइए.
अत्यंत सारगर्भित।
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