Wednesday, July 31, 2019

गौरव की प्रतीक भारतीय सेना


गत 25 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय युद्ध-स्मारक का उद्घाटन करके देश की एक बहुत पुरानी माँग को पूरा कर दिया। करीब 40 एकड़ क्षेत्र में फैला यह स्मारक राजधानी दिल्ली में इंडिया गेट के ठीक पीछे स्थित है। इसमें देश के उन 25,942 शहीद सैनिकों को श्रद्धांजलि दी गई है, जिन्होंने सन 1962 के भारत-चीन युद्ध और पाकिस्तान के साथ 1947, 1965, 1971 और 1999 के करगिल तथा आतंकियों के खिलाफ चलाए गए विभिन्न ऑपरेशनों तथा श्रीलंका और संयुक्त राष्ट्र के अनेक शांति-स्थापना अभियानों में अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया।
इस युद्ध-स्मारक की स्थापना को आप एक सामान्य घटना मान सकते हैं, पर एक अर्थ में यह असाधारण स्मारक है। अभी तक देश में कोई राष्ट्रीय युद्ध-स्मारक नहीं था। इंडिया गेट में जो स्मारक है, वह अंग्रेजों ने पहले विश्व-युद्ध (1914-1918) के शहीदों से सम्मान में बनाया था। बेशक भारतीय सैनिकों की कहानी हजारों साल पुरानी है। कम से कम 1947 के काफी पहले की, पर आधुनिक भारत का जन्म 15 अगस्त 1947 को हुआ। विडंबना है कि शुरू से ही हमें अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए युद्ध लड़ने पड़े हैं। आश्चर्य है कि हमारे पास पहले विश्वयुद्ध की स्मृति में स्मारक था, आधुनिक भारत की रक्षा के लिए लड़े गए युद्धों का स्मारक नहीं।
स्वाभिमान के प्रतीक
देशभर में दासता के तमाम अवशेष पड़े हैं, हमें राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीकों को भी स्थापित करना होगा। भारतीय सेना की गौरव गाथाओं के रूप में हमारे पास हजारों-लाखों प्रतीक मौजूद हैं। उन्हें याद करें। हर साल 15 जनवरी को हम सेना दिवस मनाते हैं। सन 1949 में 15 जनवरी को सेना के पहले भारतीय कमांडर-इन-चीफ लेफ्टिनेंट जनरल केएम करियप्पा ने आखिरी ब्रिटिश सी-इन-सी जनरल सर फ्रांसिस बूचर से कार्यभार संभाला था।  सेना दिवस मनाने के पीछे केवल इतनी सी बात नहीं है कि भारतीय जनरल ने अंग्रेज जनरल के हाथों से कमान अपने हाथ में ले ली। देश स्वतंत्र हुआ था, तो यह कमान भी हमें मिलनी थी। महत्वपूर्ण था भारतीय सेना की भूमिका में बदलाव।

अंग्रेजी शासन की सेना और स्वतंत्र भारत की सेना में गुणात्मक अंतर है। सेना केवल देश की रक्षा ही नहीं करती, बल्कि जीवन और समाज में भी उसकी भूमिका है। इस सेना की एक बड़ी विशेषता है, इसकी अ-राजनीतिक प्रकृति। तीसरी दुनिया के ज्यादातर देशों की सेनाओं की राजनीतिक भूमिका रही है। वे सत्ता चाहती हैं। हमारी सेना पूरी तरह अ-राजनीतिक है। अपने आप में यह विविध-विशाल भारत का लघु रूप है। यह देश की धार्मिक, जातीय और भाषागत विविधता का कुशलता और सफलता के साथ समन्वय करती है।
अंग्रेजी राज में भारतीय सेना अंग्रेजी साम्राज्य की रक्षा करती थी। पहले विश्वयुद्ध में दस लाख से ज्यादा भारतीय सैनिकों ने यूरोप, भूमध्य सागर के क्षेत्र और पश्चिम एशिया को मोर्चों पर जाकर अंग्रेजों की लड़ाई लड़ी थी। उस युद्ध में 74,187 भारतीय सैनिकों की जान गई थी और 67,000 घायल हुए थे। दूसरा विश्वयुद्ध शुरू होते वक्त भारतीय सेना के पास करीब दो लाख सैनिक थे। युद्ध खत्म होते-होते उनकी संख्या 25 लाख तक पहुँच चुकी थी। उस युद्ध में 87,000 भारतीयों ने अपनी जान कुर्बान की थी। सन 1942 से 1947 तक भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ रहे फील्ड मार्शल क्लॉड ऑकिलेक का कहना था कि भारतीय सेना नहीं होती तो अंग्रेज दोनों विश्व युद्धों में लड़ाई जीत नहीं पाते।
विरासत में मिले युद्ध
संयोग है कि देश के स्वतंत्र होने के बाद से ही हमारी सेना को युद्धों का सामना करना पड़ रहा है। परतंत्रता और ऐतिहासिक विरासत में हमें कुछ लड़ाइयाँ मिली हैं, जिन्हें हमें लड़ना ही पड़ेगा। पूछा जा सकता है कि भारत शांतिप्रिय देश है, उसे सेना की जरूरत ही क्या है? इतिहास पर नजर डालें तो पता लगेगा कि मानवीय मूल्यों और शांति की रक्षा के लिए लगातार युद्ध होते रहे हैं। चूंकि हम एक नए सिरे से देश का निर्माण कर रहे हैं, इसलिए हमें एक व्यवस्था की जरूरत है। उसकी रक्षा भी करनी होगी। दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुरक्षित रखना हमारी सेना की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। 
दुनिया के सबसे ऊँचे रणक्षेत्र सियाचिन ग्लेशियर की साल्तोरो रिजलाइन पर पिछले 35 साल से हमारी सेना ने अपने पैर जमा रखे हैं और दुश्मन को एक मौका नहीं दिया है। उत्तर में हिमालय के बर्फीले और तेज तूफानों से घिरे पर्वतों से लेकर पूर्वोत्तर के उमस भरे गर्म जंगलों और पश्चिम में थार के तपते रेगिस्तान में कहीं भी उसने अपनी सतर्कता में कमी नहीं आने दी। नियंत्रण रेखा पर वह हर रोज हो रही दुश्मन की गोलाबारी का वह सामना कर रही है।
भारतीय सैनिकों ने ही सन 1947 में पाकिस्तानी रज़ाकारों के हाथों बारामूला के बलात्कार को रोका था और श्रीनगर को दुश्मन के हाथों में जाने से बचाया था। सन 1962 में उसने चीनी हमलावरों का मुकाबला किया, हालांकि उसके पास पुराने किस्म के हथियार थे और कड़ाके की सर्दी में बदन पर पूरे कपड़े भी नहीं थे। लद्दाख के चुशूल में सन 1962 की रेजांग ला की लड़ाई बहादुरी की मिसाल है। यह लड़ाई सैनिक इतिहास में चरम साहस का परिचय देने वाले युद्धों में दर्ज है। इसके बाद 1965 और 1971 की लड़ाइयों में भारतीय सेना ने राष्ट्रीय हितों की रक्षा की और दुनिया ने भी देखा कि भारत को कमतर नहीं आँका जा सकता। सन 1999 के करगिल युद्ध में सेना की बहादुरी फिर स्थापित हुई।
राष्ट्रीय एकता के सूत्र
भारतीय सेना की एक और भूमिका की ओर हम कम ध्यान दे पाते हैं। यह है राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने में उसका योगदान। देश का यह सबसे बड़ा संगठन है, जिसमें देश के हर इलाके के लोग शामिल हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि सेना धर्मनिरपेक्षता की सबसे बड़ी मिसाल है. इसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई अपने उत्सव मिलकर मनाते हैं। सैनिकों को एक-दूसरे के साथ मिलकर रहने की ट्रेनिंग दी जाती है। सन 1947 के बाद से राष्ट्र-निर्माण में सेना की भूमिका अद्वितीय रही है। जूनागढ़ (1947), हैदराबाद (1948) गोवा (1961) और सिक्किम (1975) को भारतीय संघ के साथ जोड़ने के अभियान सेना की मदद से ही पूरे हो पाए. मालदीव और श्रीलंका की सरकारों के निमंत्रण पर वह मदद के लिए गई। उसने इराक़ (2003), लेबनॉन (2006), मिस्र, लीबिया और यमन (2011), यूक्रेन और सीरिया-इराक़ (2014) और यमन (2015) में फँसे भारतीयों को निकालने में मदद की।
बाढ़ राहत के लिए सेना को बुलाया जाता है। उसने लातुर और धारचूला में आए भूकम्पों और केदारनाथ और कुमाऊँ की पहाड़ियों में भूस्खलन के दौरान जमीन के नीचे दबे लोगों के शवों को बाहर निकाला। दिसम्बर 2004 में आई दक्षिण पूर्व एशिया की सुनामी के दौरान वह दृढ़ संकल्प के साथ राहत कार्य में शामिल हुई। उड़ीसा और आंध्र प्रदेश में आए समुद्री तूफानों के दौरान सैनिकों ने अपनी जान की परवाह किए बगैर राहत और बचाव कार्यों में भागीदारी की। हड़तालों के दौरान जरूरी सेवाओं को बनाए रखने के लिए सेना की मदद ली जाती है। सीमावर्ती इलाकों में सेना के डॉक्टर चिकित्सा का काम भी करते हैं। देश के सुदूर इलाकों में सेना ही भारत की ध्वज वाहक होती है।
भविष्य की चुनौतियाँ
भारतीय सैनिक प्रतिष्ठान बड़े परिवर्तन के द्वार पर खड़ा है। कुछ महीने पहले घोषित ‘स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप’ मॉडल ‘मेक इन इंडिया’ पहल के केन्द्र में है। इसपर ही नई पनडुब्बियों, हेलिकॉप्टरों और फाइटर विमानों के कार्यक्रम निर्भर हैं। दो परियोजनाएं ‘स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप’ मॉडल पर शुरू भी हुईं हैं। एक परियोजना पनडुब्बियों की है। नई पीढ़ी की पनडुब्बियों के निर्माण की परियोजना विचाराधीन है। पनडुब्बी एक्शन प्लान सन 1999 में घोषित किया गया था और वह बरसों पीछे चला गया है। इस प्लान के तहत एक भी पनडुब्बी अभी तक नौसेना में शामिल नहीं हुई है।
तीनों सेनाओं को करीब 800 हेलिकॉप्टरों की जरूरत है। इस दिशा में पहला कदम रिक्वेस्ट फॉर इनफॉर्मेशन (आरएफआई) होता है। नौसेना के लिए 234 हेलिकॉप्टरों का आरएफआई जारी हो चुका है। वायुसेना और नौसेना के लिए भारत-रूस संयुक्त उपक्रम के रूप में 197 कामोव 226-टी हेलिकॉप्टरों का उत्पादन शुरू होने वाला है। अगले दस साल में वायुसेना के लिए 400 फाइटर जेट विमानों की जरूरत है। रक्षा मंत्रालय ने विदेशी सहयोग से 100 सिंगल इंजन जेट विमानों के निर्माण को स्वीकार कर लिया है। इसी तरह 120 स्वदेशी फाइटर जेट तेजस के निर्माण पर करोड़ों रुपये खर्च हो चुके हैं।
सेना का फील्ड आर्टिलरी अभिनवीकरण प्लान सन 1999 में तैयार हुआ था। इसके तहत सन 2027 तक हमें 2,800 तोपें हासिल करनी हैं। यह परियोजना अपने समय से बरसों पीछे चल रही है। अभी तक 145 अल्ट्रा लाइट हॉविट्जरों की डिलीवरी शुरू हुई है। इसके अलावा 100 ट्रैक्ड सेल्फ प्रोपेल्ड तोपों के अनुबंध पर दस्तखत हुए हैं। अभी पाइपलाइन में 1,580 टोड तोपों, 814 ट्रक माउंटेड तोपों, 180 पहियों वाले सेल्फ प्रोपेल्ड तोपों की खरीद के प्रस्ताव हैं। पिछले छह महीनों में एटीएजी और धनुष तोपों को सेना में शामिल किया गया है। अब रक्षा मंत्रालय को शेष काम तेजी से करने होंगे।
संगठनात्मक बदलाव
इसके समानांतर सेना के पुनर्गठन का काम हो रहा है। अलग-अलग चरणों में हो रहे इन बदलावों का लक्ष्य है कि वह चुस्त-दुरुस्त बनने के साथ तेजी से कार्रवाई करने वाली 21वीं सदी की सेना के रूप में विकसित हो। सेना के भीतर बहुत से ऐसे काम जो अलग-अलग संगठन कर रहे हैं, उन्हें एक स्थान पर करने के लिए कुछ संगठनों का विलय किया जा रहा है। छोटे और त्वरित गति से होने वाले युद्धों को संचालित करने के लिए सेना का सही आकार रखने और युद्ध से जुड़ी यूनिटों के समन्वय का काम करने की व्यवस्था भी की जा रही है।
सेना के भीतर अब कम उम्र को कमांडरों की नई अवधारणा को स्थापित किया जा रहा है। इससे सेना का वज़न कम होगा और आकार सही होगा। करीब 13 लाख सैनिकों की इस सेना ने अपनी रणनीतियों में बदलाव किया है, पर इसका आकार और उस सीमित बजट से मेल नहीं खाता, जो शासन ने मुकर्रर किया है। चीन ने तीन साल पहले अपनी सेना के पुनर्गठन का काम कर लिया है। इस कार्यक्रम को लागू करने के बारे में पिछले साल अक्तूबर में हुए कमांडरों के सम्मेलन में विचार किया गया था। अब उसकी कुछ चीजें लागू की जा रहीं हैं। उस वक्त करीब दो-दर्जन सिफारिशों पर विचार किया गया था।
यह तय किया गया है कि सिफारिशों के सभी ऑपरेशनल पहलुओं, मसलन एक इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप के गठन का परीक्षण युद्धाभ्यास के दौरान किया जाएगा। छह बटालियनों पर एक इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप में इनफेंट्री, आर्मर्ड और आर्टिलरी की मिली-जुली भूमिका होगी। इसकी कमांड एक मेजर जनरल के पास होगी, जिसे सीधे कोर के अधीन रखा जाएगा।
तकनीकी रूपांतरण
सन 2008 में मुम्बई, फिर 2016 में पठानकोट, उड़ी और इस साल पुलवामा की घटनाओं के कारण देश में राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर जागरूकता काफी बढ़ी है। ऐसा कुछ उसके पहले 1999 में करगिल युद्ध के बाद हुआ था। पिछले दो दशक में युद्ध और रक्षा के तौर-तरीकों में काफी बदलाव आया है। अब लम्बी लड़ाइयों का वक्त नहीं है। ज्यादातर युद्ध छोटे होंगे और उनमें तकनीक की ज्यादा बड़ी भूमिका होगी। सेनाओं का सामना अब छाया-युद्धों से है, जैसा कश्मीर में पाकिस्तानी इशारे पर चल रहा है।
गत 26 फरवरी को बालाकोट में जैश के ट्रेनिंग सेंटर पर हवाई हमला कुछ मिनटों में पूरा हो गया। आने वाले वक्त की लड़ाई में शामिल सारे योद्धा परम्परागत फौजियों जैसे वर्दीधारी नहीं होंगे। काफी लोग कम्प्यूटर कंसोल के पीछे बैठकर काम करेंगे। काफी लोग नागरिकों के भेस में होंगे, पर छापामार सैनिकों की तरह महत्वपूर्ण ठिकानों पर हमला करके नागरिकों के बीच मिल जाएंगे। काफी लोग ऐसे होंगे जो अराजकता का फायदा उठाकर अपने हितों को पूरा करेंगे।
अक्तूबर 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नौसेना, वायुसेना और थलसेना के कमांडरों को सम्बोधित करते हुए कहा कि अब अंतरिक्ष पर नियंत्रण बनाए रखने की जरूरत है। जिस तरह जमीन, हवा और सागर पर नियंत्रण जरूरी है, उसी तरह अब अंतरिक्ष पर नियंत्रण भी अनिवार्य है। अब पूर्ण युद्धों की सम्भावनाएं कम होती जाएंगी और सेना की भूमिका निरोधक (डेटरेंट) और आचरण को प्रभावित करने की हो जाएगी। युद्धों की अवधि कम हो जाएगी।
नेटवर्क-सेंट्रिक वॉरफेयर
इन दिनों तीनों सेनाओं के बीच सबसे ज्यादा प्रचलित शब्द है नेटवर्क-सेंट्रिसिटी।  युद्धपोत हों या पनडुब्बियाँ, टैंक या फाइटर जेट विमान या पैदल सैनिक सब किसी न किसी नेटवर्क से जुड़े हैं या जुड़ रहे हैं। वे सभी संचार और नेवीगेशन उपग्रहों से जुड़े होते हैं। नेटवर्क्ड युद्धक्षेत्र में फैसले तुरत होने चाहिए, इसलिए ऐसे सिस्टम्स जरूरी हैं। सन 2017 के तीनों सेनाओं के संयुक्त डॉक्ट्रिन में भारतीय सेना के विभिन्न निदेशक सिद्धांतों का विवरण दिया गया है। इसमें बदलते युद्धक्षेत्र और एकीकृत सामरिक संरचना की आवश्यकता को साफ तौर पर बताया गया है।
पिछले दसेक साल में भारतीय वायुसेना ने नेटवर्क-सेंट्रिक युद्ध-क्षमता हासिल करने में लम्बी छलांग लगाई है। उसके पास अपना उपग्रह है, विशेष ऑप्टिक फाइबर नेटवर्क है, जिसके कारण अब वह जमीन पर तैनात सैनिकों, विमानों और हेलिकॉप्टरों के पायलटों, समुद्र में विचरण कर रहे युद्धपोतों और पनडुब्बियों के कैप्टनों को रियल टाइम वीडियो और तस्वीरें उपलब्ध कराने में समर्थ है।
नेटवर्क-सेंट्रिक वॉरफेयर सेना को कम्प्यूटरों की प्रोसेसिंग क्षमता और नेटवर्किंग संचार तकनीक की मदद से जानकारियाँ शेयर करने का जरिया है। इस जानकारी से कमांड, कंट्रोल का साझा अनुभव होत है, जिससे निर्णय करने, रणनीतियाँ बनाने, समन्वय करने और सुदूर सम्पर्क रखने और जटिल सैनिक ऑपरेशंस को अंजाम देने में मदद मिलती है। तीनों सेनाओं को इसकी जरूरत है। खासतौर से वायुसेना और नौसेना को नेटवर्क-सेंट्रिसिटी की बहुत ज्यादा जरूरत है। थलसेना को युद्धक्षेत्र के हाल जानने की जरूरत होती है। उसके यूएवी लाइव तस्वीरें प्रेषित करने में समर्थ हैं। वे खासतौर से तोपखाने को अचूक गोलाबारी के लिए भौगोलिक स्थिति का पता बताते हैं। इतना ही नहीं ब्रह्मोस जैसे मिसाइलों को दागने के लिए इस प्रकार की सूचनाओं की जरूरत होती है। यूएवी यह जानकारी देते हैं।
सैनिक उपग्रह
वायुसेना, नौसेना और थलसेना की सामर्थ्य को बढ़ाने के लिए सैनिक उपग्रहों की जरूरत भी है। पिछले वर्ष दिसम्बर में भारत ने अपने दूसरे सैनिक उपग्रह जीसैट-7ए का प्रक्षेपण किया। पहला उपग्रह रुक्मिणी-जीसैट-7-सितम्बर 2013 में प्रक्षेपित किया गया था। इन दो के अलावा एक दर्जन के आसपास ऐसे उपग्रह और हैं, जो सर्विलांस का काम कर रहे हैं और अंतरिक्ष से तस्वीरें भेज रहे हैं। जीसैट-7ए मुख्यतः वायुसेना के लिए और आंशिक रूप से थलसेना के लिए काम करेगा। एक संचार उपग्रह लाइव फीड उपलब्ध कराता है और सैकड़ों किलोमीटर दूर उड़ान भर रहे विमान के साथ सम्पर्क बनाए रखने में मददगार होता है।
रुक्मिणी का इस्तेमाल नौसेना करती है। यह उपग्रह अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और मलक्का जलडमरूमध्य के संकरे मार्ग पर नजर रखता है। जीसैट-7ए वायुसेना के विभिन्न ग्राउंड रेडार स्टेशनों, ग्राउंड एयरबेस आकाश में उड़ान भर रहे एयरबोर्न अर्ली वॉर्निंग एंट कंट्रोल (अवॉक्स) विमानों को जोड़कर रखता है। 
भारत का अपना ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम (जीपीएस) देश के सामरिक हितों से जुड़े क्षेत्र को कवर करता है। यानी कि पश्चिम में होर्मुज की खाड़ी से लेकर मलक्का की खाड़ी के पूर्व तक। आईआरएनएसएस नाम से सात उपग्रहों का समुच्चय अंतरिक्ष में काम कर रहा है और एस-बैंड पर इसके सिग्नल अचूक नेवीगेशन की सुविधा प्रदान कर रहे हैं।
अगले एक दशक में भारतीय सेनाओं को करीब 3,000 अनमैंड एरियल प्लेटफॉर्म्स की जरूरत होगी। इनमें सशस्त्र और निःशस्त्र दोनों प्रकार के यूएवी होंगे। जैसे-जैसे इनकी नई भूमिकाएं तय होती जाएंगी और भारतीय सेनाओं की भूमिका बढ़ेगी, यूएवी के काम का दायरा भी बढ़ता जाएगा। ये यूएवी सटीक इंटेलिजेंस और अचूक प्रहार-क्षमता की क्षमता प्रदान करेंगे।
गंभीर समाचार में प्रकाशित

2 comments:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस - पुरुषोत्तम दास टंडन और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  2. सौजन्य से दी गई सुंदर जानकारी।

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