पाकिस्तान के चुनाव
परिणामों से यह बात साफ हुई कि मुकाबला इतना काँटे का नहीं था, जितना समझा जा रहा था। साथ ही इमरान खान की कोई आँधी भी
नहीं थी। उन्हें नए होने का फायदा मिला, जैसे दिल्ली में आम आदमी पार्टी को मिला था। जनता नए को यह सोचकर मौका
देती है कि सबको देख लिया, एकबार इन्हें भी देख लेते
हैं। ईमानदारी और न्याय की आदर्श कल्पनाओं को लेकर जब कोई सामने आता है तो मन कहता
है कि क्या पता इसके पास जादू हो। इमरान की सफलता में जनता की इस भावना के अलावा
सेना का समर्थन भी शामिल है।
हरिभूमि में प्रकाशित
पाकिस्तान के धर्म-राज्य
की प्रतीक वहाँ की सेना है, जो जनता को यह बताती है कि हमारी बदौलत आप बचे हैं।
सेना ने नवाज शरीफ के खिलाफ माहौल बनाया। यह काम पिछले तीन-चार साल से चल रहा था। पाकिस्तान
के इतिहास में यह पहला मौका था, जब सेना ने खुलकर चुनाव में हिस्सा लिया और नवाज
शरीफ का विरोध और इमरान खान का समर्थन किया। वह खुद पार्टी नहीं थी, पर इमरान खान
उसकी पार्टी थे। देश के मीडिया का काफी बड़ा हिस्सा उसके प्रभाव में है। नवाज शरीफ
ने देश के सत्ता प्रतिष्ठान से पंगा ले लिया था, जिसमें अब न्यायपालिका भी शामिल है।
सकारात्मक बात यह है कि
पहली बार लगातार देश में दस साल से असैनिक सरकार है और लगातार तीसरी बार सरकार
चुनकर आई है। हरेक लोकतंत्र की ताकत उसमें भाग लेने वाली जनता
होती है। पाकिस्तानी जनता का फैसला ज्यादा महत्वपूर्ण है। जनता के अनुभव को वक्त ही पुख्ता करेगा और लोकतांत्रिक संस्थाओं को
बनाएगा। वहाँ का कारोबारी समुदाय ताकतवर हुआ तो वह अपने हितों को भी देखेगा, जिसकी
वजह से पाकिस्तान भारत के साथ रिश्ते सुधारने की कोशिश करेगा। पर यह भी तय है कि सेना
इस लोकतंत्र को निर्देश देती रहेगी। यह दो अलग-अलग किस्म की बातें हैं। इनमें
टकराव होगा और संभव है आने वाले दशकों में
इस जबरिया नेतृत्व से भी मुक्ति मिले, पर सब कुछ जनता की समझदारी और राजनीतिक नेतृत्व पर निर्भर करेगा।
इक्कीसवीं सदी का दूसरा
दशक खत्म होने वाला है। दुनिया के सामने कई तरह की चुनौतियाँ हैं। देखना होगा कि
इमरान खान का ‘नया पाकिस्तान’ इन चुनौतियों का सामना करने में कितना मददगार होगा। अब तीन
बातों पर हमारा ध्यान जाएगा। एक, इमरान किस प्रकार
का गवर्नेंस देंगे, दो, वैश्विक आतंकवाद में पाकिस्तान की क्या भूमिका होगी और
तीसरे भारत के साथ रिश्तों की
दिशा क्या होगी। कुछ निष्कर्ष इमरान के
पहले टीवी प्रसारण से निकाले जा सकते हैं, पर वास्तव में कुछ बातों
का इंतजार करना होगा।
इमरान खान पहला बयान वैसा
ही है, जैसा नए नेता को होता है। वे सादगी और ईमानदारी के जिन आदर्शों की बात कर
रहे हैं, उन्हें व्यावहारिक जमीन
पर देखना होगा। भारत बेशक इमरान खान से
सम्पर्क रखेगा, पर तुरत बड़े परिणामों की उम्मीद नहीं। फिलहाल इमरानउन्हें पाकिस्तानी
की माली हालत पर ध्यान देना है। इसमें सेना भी उनकी मदद नहीं कर पाएगी। यों भी वहाँ
के संसाधनों का बड़ा हिस्सा सेना खा जाती है। उसे कम करेंगे, तो मारे जाएंगे। देश
में अराजकता का बोलबाला है। देखना होगा कि सेना की कठपुतली सरकार इसे कैसे रोकेगी।
इणरान को अच्छे परिणाम भी देने हैं और सेना की जीहुजूरी भी करनी है। सवाल है कि वे
अपने कंधे पर कब तक सेना का जुआ ढो पाएंगे?
सबसे बड़ी चुनौती
अर्थव्यवस्था को रास्ते पर लाने की है। विदेशी मुद्रा भंडार का गम्भीर संकट है। जनवरी
में पाकिस्तान मुद्रा भंडार 18.9 अरब डॉलर था, जो मई में 15.9 अरब डॉलर हो गया और अब 9 अरब डॉलर है। गिरावट जारी है। उसे अपने संकट को
टालने के लिए 11 अरब डॉलर की जरूरत है। वह चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपीईसी)
के नाम पर चीन से भारी कर्ज लेता रहा है, इस वजह से भी उसकी देनदारी बढ़ी है।
मुद्रा-संकट से बचने के लिए उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की मदद लेनी होगी, जिसे आश्वस्त
करने के लिए सीपीईसी की कई परियोजनाओं को रोकना पड़ेगा। अमेरिका की चिरौरी भी करनी
होगी। चीन भी उसे संकट से बचाने की
स्थति में नहीं है। यों भी चीन किसी की मुफ्त में
सहायता नहीं करता।
इमरान ने कहा, हम चाहते
हैं कि पड़ोसी देशों से हमारे रिश्ते अच्छे हों। पड़ोसी देशों में उन्होंने पहला नाम
चीन का लिया, फिर अफगानिस्तान, फिर ईरान और सउदी अरब का। इसके बाद भारत का। अगर हिंदुस्तान और पाकिस्तान के रिश्ते अच्छे हों तो
यह दोनों के लिए बेहतर होगा। हमारे व्यापारिक संबंध और बेहतर हों, इससे दोनों देशों को फायदा होगा। हम बातचीत के लिए पूरी तरह
तैयार हैं। अगर भारत एक कदम आगे बढ़ाता है
तो हम दो कदम आगे बढ़ाएंगे। नया नेता यही कहता है। नवाज शरीफ भी तो यही चाहते थे, पर उन्हें भारत का पिट्ठू किसने साबत किया?
नवाज शरीफ को भ्रष्ट घोषित करने में न्यायपालिका ने भी सेना का साथ दिया। पनामा लीक के बाद जिस तरह से केस बनाया
गया, उससे यह बात साफ हुई। चुनाव
के ठीक पहले इस्लामाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शौकत सिद्दीकी ने रावलपिंडी बार
एसोसिएशन की एक सभा में कहा था कि देश की
सेना नवाज शरीफ परिवार के खिलाफ फैसले करने के लिए न्यायपालिका पर दबाव डाल रही
है। उन्होंने आरोप लगाया कि सेना के प्रतिनिधि अदालतों मर्जी की बेंच गठित करने के
लिए दबाव डाल रहे हैं।
शरीफ और उनकी पार्टी इस
राजनीतिक भँवर से किस तरह बाहर
निकलेंगे, यह अलग सवाल है। पर इमरान
इस जंजाल में नहीं फँसेंगे, इसकी गारंटी नहीं। सन 2013 के चुनाव में
जीत के पहले नवाज शरीफ ने घोषणा की थी कि हम भारत के साथ रिश्ते बेहतर करने की कोशिश करंगे। उन्हें समझ
में आ गया था कि भारत विरोधी भावनाओं का मुँह मोड़े बगैर सेना का वर्चस्व तोड़ा नहीं जा
सकता। सेना को रिश्ते सामान्य करने की कोशिशें पसंद नहीं आईं। दिसम्बर, 2015 में
नरेन्द्र मोदी अफगानिस्तान की यात्रा से वापस लौटते समय अचानक लाहौर में उतरे, तो
यह बात सेना को पसंद नहीं आई। उसके अगले हफ्ते ही पठानकोट पर हमला हो गया। बहुत सी
बातें अभी सामने आएंगी। बहरहाल इमरान ने ताज पहन जरूर लिया है, पर इसमें काँटे ही
काँटे हैं।
हरिभूमि में प्रकाशित
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (30-07-2018) को "झड़ी लगी बरसात की" (चर्चा अंक-3048) (चर्चा अंक-3034) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी