अविश्वास प्रस्ताव ने
देश की राजनीति में अचानक करेंट पैदा कर दिया। बहरहाल उसकी औपचारिकता पूरी हो गई, अब इसके
निहितार्थ के बारे में सोचिए। पहला सवाल है कि इसे लाया ही क्यों गया? लोकसभा चुनाव के पहले विरोधी-एकता
की यह पहली बड़ी कोशिश है। सरकार के खिलाफ पिछले चार साल से पैदा हो रही शिकायतों
को मुखर करने और बीजेपी के अंतर्विरोधों पर प्रहार करने का यह अच्छा मौका था। इस
प्रस्ताव के सहारे इन पार्टियों को आपसी समन्वय स्थापित करने में सफलता मिलेगी।
कांग्रेस इस मुहिम के साथ है, इसलिए उसे भी इसका राजनीतिक लाभ मिलना चाहिए।
सवाल है कि क्या ऐसा हुआ? इस मुहिम लाभ किसे मिला? कांग्रेस को, शेष विपक्ष को या बीजेपी को? जवाब फौरन देने में दिक्कतें हैं, पर इतना साफ
है कि इसके परिणाम का पता सबको पहले से था। सबकी दिलचस्पी इस बात में थी कि माहौल
कैसा बनता है। यह भी कि शेष सत्र में सत्तारूढ़ दल और विपक्ष की रणनीति क्या होगी।
कहीं लोकसभा चुनाव वक्त से पहले न हो जाएं। उधर साल के अंत में राजस्थान, मध्य
प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में चुनाव हैं। सत्रावसान के बाद नेताओं और विश्लेषकों
की निगाहें इधर मुड़ जाएंगी। इस लिहाज से मॉनसून सत्र और खासतौर से अविश्वास
प्रस्ताव की बहस देर तक और दूरतक याद रखी जाएगी।
बजट सत्र में जब तेदेपा और वाईएसआर
कांग्रेस ने लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाने की कोशिश की थी तो अध्यक्ष ने उसे
यह कहकर स्वीकार नहीं किया कि सदन में अराजकता है। तब सरकार नहीं चाहती थी कि
अविश्वास प्रस्ताव पर बहस हो। उसे बहुमत साबित करने में दिक्कत नहीं थी, पर नहीं
चाहती थी कि उसकी आलोचना के बहाने विपक्ष एक हो जाए। कर्नाटक के चुनाव भी सिर पर
थे। बीजेपी नहीं चाहती थी कि केन्द्र की आलोचना के स्वर दूर तक जाएं। नरेन्द्र
मोदी की व्यक्तिगत आलोचना से भी पार्टी बचना चाहती थी। बहरहाल कर्नाटक के परिणामों
ने विपक्ष को एकसाथ आने का मौका दिया।
कर्नाटक में जेडीएस और
कांग्रेस की साझा सरकार बन गई। लोकसभा में अब रखा गया अविश्वास प्रस्ताव उसी एकता
का प्रतीक है, जिसे रोकने की कोशिश बीजेपी अब तक करती आई थी। पर इस बार लोकसभा
अध्यक्ष ने तेदेपा के अविश्वास प्रस्ताव को न केवल फौरन स्वीकार किया, बल्कि उसकी तारीख
भी फौरन तय कर दी। इसके मतलब दो हैं। पहला यह कि बीजेपी ने बजाय रक्षात्मक होने के
आक्रामक होने का फैसला किया है। दूसरे उसे विरोधी एकता में सूराख नजर आने लगे हैं।
संसदीय कार्य मंत्री अनंत
कुमार ने कहा, विरोधी कहते हैं कि सरकार बहस से भागती है। ऐसा नहीं है। आओ कर लो बहस।
तुम्हारी झूठी बातों का पर्दाफाश किए देते हैं। बीजेपी ने भी इसी दौर में अपने सम्भावित
सहयोगी दलों को चिह्नित किया है। विरोधी दलों के संशय भी खुलकर सामने आए हैं। सच
यह है कि अविश्वास प्रस्ताव के बहाने सरकार ने भी लोकसभा चुनाव का शंख बजा दिया
है। अंदेशा है कि लोकसभा चुनाव समय से पहले हो सकते है। क्या मालूम यह 16वीं
लोकसभा का अंतिम अधिवेशन हो।
एकता के अंतर्विरोध
मार्च के मुकाबले इस बार
विरोधी-स्वर भी बदले हुए हैं। तब कांग्रेस इस मुहिम के प्रति ज्यादा उत्साहित नहीं
थी। इस बार कांग्रेस न केवल ज्यादा उत्साहित है, बल्कि प्रकारांतर से इसका नेतृत्व
कर रही है। इस वजह से भी बीजेपी ने मोर्चा पूरी तरह संभालने का फैसला किया। शेष
विरोधी दलों पर हमले करने के बजाय बीजेपी कांग्रेस को निशाना बनाएगी। बीजेपी के
नेतृत्व को यह भरोसा भी था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने की जोरदार वक्तृता
कांग्रेस पर भारी पड़ेगी। उसे लगता है कि यह अच्छा मौका है।
स्पीकर ने जिस तेजी से
अविश्वास प्रस्ताव को स्वीकार किया, उससे संदेह पैद होता है कि कहीं विरोधी दलों
ने अनजाने में बाजी बीजेपी के हाथ में तो नहीं दे दी है। लगता है कि कांग्रेस
पार्टी जल्द बहस के लिए तैयार नहीं थी। मल्लिकार्जुन खड़गे और तृणमूल कांग्रेस के
सौगत राय ने लोकसभा अध्यक्ष से कहा था कि दस दिन के भीतर की कोई तारीख तय कर दें।
बीजेपी चाहती है कि लोकसभा
चुनाव ‘कांग्रेस बनाम बीजेपी’ और ‘राहुल गांधी बनाम
नरेन्द्र मोदी’ के आधार पर लड़ा जाए। क्षेत्रीय दल चाहते हैं
कि लड़ाई को अलग-अलग राज्यों की जमीन पर अलग-अलग रणनीति के साथ लड़ा जाए और इसे ‘साम्प्रदायिकता बनाम धर्म निरपेक्षता’ और ‘निरंकुशता बनाम क्षेत्रीय
आकांक्षाओं’ जैसे मुद्दों पर लड़ा जाए। क्षेत्रीय दल इस
एकता के केन्द्र में रहना चाहते हैं।
मोदी को चुनौती
कांग्रेस को इस एकता के
केन्द्र में रहना है तो उसे मोदी के नेतृत्व को सीधी चुनौती देनी होगी। अप्रेल में
राहुल गांधी ने कहीं कहा था कि मुझे संसद में 15 मिनट का समय दीजिए मोदी खड़े नहीं
रह पाएंगे। पिछले कुछ वर्षों में बीजेपी ने राहुल को निशाना बनाया है और उनकी छवि
को बिगाड़ने की कोशिश की है। इसके विपरीत कांग्रेस को मोदी की छवि को खंडित करने
का मौका नहीं मिल पाया है।
बहरहाल राहुल की चुनौती के
जवाब में बीजेपी ने अविश्वास प्रस्ताव के मौके को भुनाने का फैसला किया। कांग्रेस
को भी अंततः राहुल गांधी को ही मुख्य वक्ता के रूप में पेश करना है। राहुल इसमें
सफल हुए या नहीं, यह वोटर तय करेगा। पर इतना तय है कि अविश्वास प्रस्ताव पर बहस को
लोकसभा चुनाव का प्रस्थान बिन्दु है। पर यह भी लगता है कि इस बहस की योजना विपक्ष
ने बनाई नहीं थी। संख्याबल वगैरह को सामने न भी रखें, तो सभी दलों ने उन मुद्दों
पर आमराय नहीं बनाई थी, जिनपर उनका मतैक्य था।
यह सत्र शुरू होने के ठीक
पहले राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर संसद के मॉनसून सत्र में महिला आरक्षण
बिल लाने की मांग की है। राहुल ने कहा कि कांग्रेस संसद में इस बिल का समर्थन
करेगी। इसके जवाब में रविशंकर प्रसाद ने राहुल गांधी के नाम पत्र लिखा, जिसमें
विरोधी दलों के अंतर्विरोधो को उभारने की कोशिश की गई। रविशंकर प्रसाद ने पत्र में
पूछा कि क्या राहुल गांधी ने इस मसले पर सहयोगी दलों से बात की है? कांग्रेस के अनेक सहयोगी
दल वर्तमान रूप में इस विधेयक के विरोध में हैं।
कांग्रेस पीछे रह
गई
ज्यादा बड़ा सवाल
यह भी है कि कांग्रेस ने इस अविश्वास प्रस्ताव की खुद पहल क्यों नहीं की? उसके पास मौका था कि
राष्ट्रीय सवालों को लेकर वह सीधे मैदान में उतरती। क्या उसने तेदेपा समेत दूसरे
दलों से इस विषय पर विमर्श नहीं किया था? या उसे उम्मीद नहीं थी
कि बीजेपी इतनी तेजी से इसपर विचार करने के लिए सहमत हो जाएगी। सरकार पर आरोप
लगाने की पहली जिम्मेदारी तेदेपा पर आ गई, जो पिछले सत्र तक बीजेपी का सहयोगी दल
था और जिसके बारे में विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता कि वह भविष्य में बीजेपी के
साथ नहीं जाएगा।
अविश्वास
प्रस्ताव का नोटिस देने वाले आठ नेताओं में कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम
भी था, पर तेदेपा ने बढ़त ली और स्पीकर ने उसे फौरन स्वीकार कर लिया। आठ अलग-अलग
नेताओं के नोटिसों से यह भी स्थापित होता है कि विरोधी खेमे में एका नहीं है।
विरोधी दलों के बीच जो असमंजस था, वह इस अविश्वास प्रस्ताव के बाद खुलकर सामने आया
भी है। अन्नाद्रमुक जैसे बड़े दल ने पहले ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वह अविश्वास
प्रस्ताव के पक्ष में मतदान नहीं करेगा।
किसको क्या मिला?
बीजेपी की यह
तेजी बताती है कि उसने इसके निहितार्थ पर विचार कर लिया था। इस मसले पर फौरन बहस
होने से सत्ताधारी दल को यह कहने का मौका भी मिल गया कि अब सदन में व्यवधान
उपस्थित करने की कोई वजह नहीं बची। साथ ही सरकार अपनी विजय को देश के सामने
लोकतांत्रिक भावना की जीत के रूप में पेश करेगी। एक मायने में सन 2009 के चुनाव के
ठीक 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने विश्वास मत जीतकर लगभग यही बात साबित करने की
कोशिश की थी।
अविश्वास
प्रस्ताव की मुहिम ने विपक्ष को एकसाथ आने के मौके दिए हैं, साथ ही उसके
अंतर्विरोध भी सामने आए हैं। अंतर्विरोध बीजेपी के भी हैं। शिवसेना के साथ उसके
रिश्ते फिलहाल बदस्तूर हैं। बीजेपी के काफी सासंदों को दुबारा टिकट नहीं मिलेगा। इससे
पार्टी के अंदर असंतोष के बादल हैं। बीजेपी दक्षिण भारत और दूसरे इलाकों में
सहयोगी दलों की तलाश कर रही है। उनके साथ तालमेल को लेकर बातचीत अब तेजी पकड़ेगी। अविश्वास
प्रस्ताव ने सत्ता और विपक्ष दोनों को सबक दिए हैं। उन्हें समझने की जरूरत है।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन राष्ट्रीय झण्डा अंगीकरण दिवस ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-07-2018) को "अज्ञानी को ज्ञान नहीं" (चर्चा अंक-3042) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'