असम में राष्ट्रीय नागरिकता
रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर तीन तरह की प्रतिक्रियाएं हैं. इनमें दो प्रतिक्रियाएं
राजनीतिक हैं. तीसरी इस समस्या के
समाधान को लेकर चिंतित नागरिकों की है. हालांकि गृहमंत्री राजनाथ सिंह और असम के
मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने स्पष्ट किया है कि जिन 40 लाख लोगों के नाम इस सूची में
नहीं हैं, उन्हें चिंतित होने की जरूरत नहीं है, पर राजनीतिक स्तर पर हो रही बयानबाजी के कारण बेवजह का तनाव फैल रहा है. यह सब 2019 के चुनाव की पृष्ठपीठिका है. इससे ज़ाहिर यह हो रहा है कि राष्ट्रीय महत्व के सवालों पर भी राजनीति कितने निचले स्तर पर जा सकती है. अब तक की आधिकारिक स्थिति यह है कि सूची में नाम नहीं होने के कारण किसी
को विदेशी नागरिक या घुसपैठिया नहीं माना जाएगा. सम्भव है कि आने वाले समय में कुछ नाम अलग हो जाएं, तब हम क्या करेंगे, इसपर विचार करना चाहिए. दिक्कत इस मसले के राजनीतिकरण के कारण खड़ी हो रही है. आग में में घी डालने का काम अमित शाह और ममता बनर्जी दोनों ने किया है.
अभी तक किसी भी स्तर पर यह तय नहीं हुआ है कि असम में कितने अवैध नागरिक हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह
है कि यह प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के निर्देशन में चल रही है. मंगलवार को अदालत ने
एनआरसी से बाहर रह गए 40 लाख से ज्यादा लोगों से कहा है कि उन्हें चिंता करने की
जरूरत नहीं है. अदालत ने केंद्र को निर्देश दिया है इन लोगों के खिलाफ कोई
कार्रवाई नहीं होनी चाहिए. बाहर रह गए लोगों की आपत्तियां निष्पक्ष रूप से दर्ज करें
और इसके लिए मानक परिचालन प्रक्रिया (एसओपी) का पालन किया जाना चाहिए. अदालत के
सामने 16 अगस्त तक एसओपी की रूपरेखा पेश कर दी जाएगी. सांविधानिक दायरे में और
मानवीय प्रश्नों को सामने रखकर ही अंततः कोई फैसला होगा.
बेशक इस सूची के जारी
होने के बाद इन 40 लाख लोगों के मन में चिंताएं हैं, पर उन्हें और भड़काने की
जरूरत नहीं है. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की प्रतिक्रिया इस लिहाज से
अनुचित है. एक वैध प्रक्रिया को राजनीतिक रंग देने की जरूरत नहीं है. ममता बनर्जी
ने कहा है कि इसके कारण ‘सिविल वॉर’ हो जाएगी. क्यों हो जाएगी? उन्हें गृहमंत्री के
बयान पर भी ध्यान देना चाहिए. यह कहना गलत है कि 40 लाख लोग अवैध नागरिक साबित हो
गए हैं. 31 दिसम्बर और 1 जनवरी को जारी एनआरसी पहले ड्राफ्ट में 1.9 करोड़ नाम थे
और दूसरे ड्राफ्ट में 2.89 करोड़ नाम हैं. कुल 3.29 करोड़ लोगों ने इसमें नाम दर्ज
करने की अर्जी दी थी. एनआरसी में उन सभी भारतीय नागरिकों के नामों को शामिल किया
जायेगा जो 25 मार्च, 1971 से पहले से
असम में रह रहे हैं.
इस सूची में हिन्दू और
मुसलमान दोनों हैं. इसे साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिशों की भी निंदा होनी चाहिए.
असम में सत्तर और अस्सी के दशक में चले छात्र आंदोलन की यह तार्किक परिणति है. यहाँ
राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाने की जरूरत इसीलिए पड़ी, क्योंकि आंदोलन के बाद 1985
में हुए समझौते को लागू करने के लिए यह आवश्यक है. पर यह रजिस्टर भी समस्या का
अंतिम समाधान नहीं है. अभी यह काम पूरा हुआ भी नहीं है.
तमाम सवाल अभी उठेंगे.
अंतिम रूप से नाम तय हो भी जाएंगे, तो क्या इतने लोगों को बांग्लादेश वापस भेजा जा
सकेगा? इसमें बांग्लादेश की सहमति की जरूरत भी होगी. इनकी दो से तीन पीढ़ियाँ असम
में रह रहीं हैं. समस्या से जुड़े तमाम मानवीय पहलू हैं. समाधान के रास्ते निकालने
होंगे. जैसे भारत और पाकिस्तान का विभाजन दुनिया की अपने किस्म की सबसे बड़ी
परिघटना थी, उसी तरह नागरिकों की
पड़ताल की यह अपने किस्म की सबसे बड़ी परिघटना है. इसकी तार्किक परिणति क्या है, अभी कहना मुश्किल है. फिलहाल हालात को काबू में रखने की
जरूरत है.
सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर
असम नागरिकों के सत्यापन का काम 2015 में शुरू हुआ
था. इसके लिए रजिस्ट्रार जनरल ने समूचे राज्य में कई एनआरसी केंद्र खोले. तय हुआ
कि उन्हें भारतीय नागरिक माना जाएगा जिनके पूर्वजों के नाम 1951 के एनआरसी में या 24 मार्च 1971 तक की किसी वोटर लिस्ट
में मौजूद हों. इसके अलावा 12 दूसरे तरह के
सर्टिफिकेट या कागजात जैसे जन्म प्रमाण पत्र, जमीन के कागज, स्कूल-कॉलेज के सर्टिफिकेट, पासपोर्ट, अदालत के पेपर्स
भी अपनी नागरिकता प्रमाणित करने के लिए पेश किए जा सकते हैं.
इस मामले की छाया 2019 के चुनावों पर पड़ेगी. जनवरी में जब पहला ड्राफ्ट जारी हुआ
था, तब भी ममता बनर्जी की एक टिप्पणी ने आग में घी का काम किया था. ममता बनर्जी ने
आरोप लगाया था कि केंद्र सरकार असम से बंगालियों को बाहर निकालने की साजिश रच रही
है. ममता बनर्जी के बयान में बंगालियों की तरफदारी से ज्यादा मुसलमानों की पीड़ा थी.
उस वक्त बीजेपी की बंगाल शाखा ने ममता पर यह कहकर हमला बोला था कि वे पश्चिम बंगाल
को जिहादियों की पनाहगाह बना रही हैं. और इधर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा है
कि अभी तक नागरिकता रजिस्टर बनाने की कोशिश राजनीतिक कारणों से नहीं की गई. दोनों
बातें अपने वोट बैंक तक संदेश देने के लिए कही गई हैं.
जम्मू-कश्मीर के बाद असम
ऐसा प्रदेश है, जहाँ मुस्लिम आबादी का
अनुपात काफी बड़ा है. यह अनुपात पिछले सौ साल में तेजी से बढ़ा है. विभाजन के बाद
इसमें काफी इज़ाफा हुई है. सन 2011 की जनगणना के अनुसार
यहाँ की आबादी में 34.24 प्रतिशत लोग मुसलमान
हैं. राज्य के नौ जिलों में बहुसंख्यक मुसलमान हैं. असम में मुसलमान 13वीं सदी के शुरू में आए,
जब मुहम्मद बिन
बख्तियार खिलजी की सेना ने पूर्वी भारत में प्रवेश किया और बोडो जनजाति के एक
मुखिया ने इस्लाम कबूल किया. ईस्ट इंडिया कम्पनी के दौर में चायबागान में पूर्वी
बंगाल से बड़ी संख्या में मुसलमान यहाँ आए. मारवाड़ी व्यापारी भी बड़ी संख्या में
मजदूर लाए, जिनमें बड़ी संख्या
मुसलमानों की थी.
सन 1979 से 1985 के बीच चले असम आंदोलन
का निशाना बंगाली मुसलमान थे और आज भी उन्हें लेकर ही विवाद है. 15 अगस्त 1985 को आंदोलनकारियों और
केंद्र के बीच जो समझौता हुआ था, उसकी मूल भावना थी कि 1971 के बाद भारत आए बांग्लादेशियों को वापस भेजा जाएगा. एक
एनजीओ की अपील पर सन 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने
सरकार को एनआरसी की प्रक्रिया शुरू करने का निर्देश दिया था, जो अब अपनी तार्किक परिणति पर पहुँच रही है.
inext में प्रकाशित
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