लोकतांत्रिक व्यवस्था की पारदर्शिता को लेकर हाल में दो खबरों से दो तरह के निष्कर्ष निकलते हैं। पिछले हफ्ते तरह केन्द्र ने उच्चतम न्यायालय को बताया कि देश भर में अदालती कार्यवाही का सीधा प्रसारण किया जा सकता है। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने सभी पक्षकारों से कहा कि वे अदालत की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के लिए दिशा निर्देश तैयार करने के बारे में अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल को अपने सुझाव दें। अटार्नी जनरल ने इससे पहले न्यायालय से कहा था कि अदालती कार्यवाही का सीधा प्रसारण दुनिया के अनेक देशों में एक स्वीकार्य परंपरा है। शीर्ष अदालत ने न्यायिक कार्यवाही में पारदर्शिता लाने के इरादे से पिछले साल प्रत्येक राज्य की निचली अदालतों और न्यायाधिकरणों में सीसीटीवी लगाने का निर्देश दिया था।
इस खबर के विपरीत राज्यसभा के निवृत्तमान उप-सभापति पीजे कुरियन ने कहा कि संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण बंद कर देना चाहिए, क्योंकि इससे सदन की छवि खराब होती है। कुरियन का कहना था कि सदन की कार्यवाही के दौरान भले ही पीठासीन अध्यक्ष असंसदीय शब्दों को रिकॉर्ड के बाहर कर देते हों, लेकिन डिजिटल मीडिया के इस दौर में ये बातें आसानी से जनता तक पहुंच जाती हैं। इस वजह से सदन में शालीनता और व्यवस्था कायम रखने की कोशिशें बेमतलब हो जाती हैं। उपरोक्त दोनों बातों को मिलाकर पढ़ें, तो क्या निष्कर्ष निकलता है?
कुरियन की यह चिंता अपनी जगह वाजिब है, पर संसदीय कार्यवाही के जीवंत प्रसारण के पक्ष में भी वाजिब तर्क हैं। लोकतंत्र जनता की भागीदारी से चलने वाली व्यवस्था है। संसद और अन्य लोकतांत्रिक संस्थाएं साध्य नहीं, साधन हैं। जन-प्रतिनिधित्व की व्यवस्था इसलिए है, क्योंकि व्यावहारिक रूप से जनता की सीधी भागीदारी सम्भव नहीं है। तकनीक ने इतना तो किया है कि जनता देख सकती है कि उसके प्रतिनिधि क्या कर रहे हैं। आने वाले समय में तकनीक सीधी भागीदारी के रास्ते भी खोलेगी। लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं भी समय के साथ बदलती हैं। पीजे कुरियन की संसदीय व्यवहार में गिरावट को लेकर चिंता वाजिब है, पर इस गिरावट की वजह टीवी प्रसारण में निहित नहीं है, बल्कि कहीं और है।
वस्तुतः चर्चा टीवी प्रसारण पर नहीं, लोकतांत्रिक अंतर्विरोधों पर होनी चाहिए। इकबाल की मशहूर पंक्तियाँ हैं, ‘जम्हूरियत एक तर्जे हुकूमत है कि जिसमें/बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं करते।’ ये पंक्तियाँ लोकतंत्र की गुणवत्ता पर चोट करती हैं, लोकतंत्र का मजाक उड़ाती हैं। पर क्या आप जम्हूरियत को ख़ारिज कर सकते हैं? सच यह है कि ख़राबियाँ समाज की हैं, बदनाम लोकतंत्र है। सन 2009 में प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना बजरंगी का बयान अखबारों में छपा था, ‘ मैं राजनीति में आना चाहता हूँ।’ उनकी माँ को यकीन था कि बेटा राजनीति में आकर मंत्री बनेगा। मुन्ना बजरंगी का अंत दुखद हुआ, पर सवाल अपनी जगह है कि वे जब ऐसा बयान दे रहे थे, तब क्या राजनीति में शामिल नहीं थे? उन्होंने समय रहते गियर बदल लिया होता , तो मंत्री भी बनते। लोकतांत्रिक दुनिया में कई तरह के कीर्तिमान हैं। वे जन-प्रतिनिधि नहीं बने, पर क्या बन नहीं सकते थे? मधु कोड़ा अपनी पार्टी के अकेले विधायक थे। फिर भी मुख्यमंत्री बने। कोई जादू तो था उनमें।
इन सवालों का जवाब आपको देना है। लोकतंत्र से भागने की जरूरत नहीं है। अलबत्ता इतना लगता है कि या तो हम लोकतंत्र के लायक नहीं हैं, या लोकतंत्र हमारे लायक नहीं है। या लोकतंत्र को हम जितना पाक-साफ समझते हैं, वह कभी हो नहीं सकता। उसकी व्यावहारिक दिक्कतें हैं। वह जिस समाज में है, वह खुद पाक-साफ नहीं है। इसके लिए बड़े स्तर पर सामाजिक बदलाव की जरूरत है। सामाजिक बदलाव सिर्फ ख़याली पुलाव पकाने से होने वाला नहीं। हमारा लोकतंत्र पश्चिमी देशों से आया है, वहाँ भी पिछले तीन सौ साल में वह पनपा है। तीन सौ साल पहले वहाँ की दशा भी हमारे लोकतंत्र जैसी थी।
कुछ साल पहले एक नारा चला था, ‘सौ में 98 बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान।’ इस नारे में तकनीकी दोष है। सच यह है कि सौ में 98 बेईमान हैं ही नहीं। सौ में 98 नहीं तो 90 ईमानदार हैं। वे ईमानदार व्यवस्था चाहते हैं। पर वे व्यवस्था के संचालक नहीं हैं, दर्शक हैं। इन दर्शकों को भागीदार बनाने के पहले, उनकी समझदारी को भी विकसित होना चाहिए। उसमें समय लगेगा। दुनिया के विकसित लोकतंत्र भी कभी इन्हीं स्थितियों से गुजरे हैं। पर इस बात पर जरूर गौर करें कि हम सड़कों पर पुलिस वालों को वसूली करते, गुंडों-लफंगो को उत्पात मचाते, दफ्तरों में कामचोरी होते देखते हैं। हम सोचते हैं कि इनपर काबू पाने की जिम्मेदारी किसी और की है। हमने खुद को बेईमान मान लिया है, तो शिकायत किससे करेंगे? यह व्यवस्था आपकी है।
बहरहाल पीजे कुरियन की बात पर वापस आएं। उनकी बात काफी हद तक सही है। पर इस खामी के लिए प्रसारण जिम्मेदार नहीं है। वह तो जनता तक संदेश पहुँचा रहा है। संसदीय कर्म की गरिमा में गिरावट के लिए हमारी राजनीतिक संस्कृति जिम्मेदार है। सदन में अमर्यादित व्यवहार के लिए कार्यवाही के जीवंत प्रसारण को जिम्मेदार ठहराया जाता है। कहा जाता है कि कैमरे सांसदों को तार्किक बहस के बजाय बयानबाजी और खुद आगे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के लिए उकसाते हैं। फरवरी 2014 में तेलंगाना विधेयक पास करते वक्त लोकसभा चैनल का जीवंत प्रसारण रोका गया था। आधिकारिक रूप से कहा गया कि ऐसा तकनीकी दिक्कतों के कारण हुआ, पर वास्तविकता यह थी कि उस दिन सदन में हो रही अव्यवस्था को जनता से छिपाया गया।
राजनीति वही करती है, जो उसकी समझ से जनता को पसंद है। जनता को शालीन व्यवहार पसंद होगा, तो राजनीति को मजबूरन शालीन बनना होगा। दोष कहाँ है, इसे लेकर चर्चा नहीं होती। मीडिया भी ऐसे सवालों पर विचार नहीं करता। संसद का मॉनसून सत्र सामने है। इस सवाल पर विचार के लिए यह उपयुक्त समय भी है। संसद को उसकी भूमिका में वापस आना चाहिए। सत्रावसान के बाद खबरें आती हैं कि इस सत्र में कितने समय का सदुपयोग किया गया, कितना समय खराब हुआ वगैरह। तमाम राष्ट्रीय महत्व के प्रश्नों पर बहस हो ही नहीं पाती। तमाम विधेयक पड़े रह जाते हैं। लोकतांत्रिक गतिविधियों में दो सबसे महत्वपूर्ण कार्य हैं। एक, चुनाव और दूसरे संसदीय कर्म। कृपया दोनों में आए भटकाव की वज़हों पर विचार करें।
इस खबर के विपरीत राज्यसभा के निवृत्तमान उप-सभापति पीजे कुरियन ने कहा कि संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण बंद कर देना चाहिए, क्योंकि इससे सदन की छवि खराब होती है। कुरियन का कहना था कि सदन की कार्यवाही के दौरान भले ही पीठासीन अध्यक्ष असंसदीय शब्दों को रिकॉर्ड के बाहर कर देते हों, लेकिन डिजिटल मीडिया के इस दौर में ये बातें आसानी से जनता तक पहुंच जाती हैं। इस वजह से सदन में शालीनता और व्यवस्था कायम रखने की कोशिशें बेमतलब हो जाती हैं। उपरोक्त दोनों बातों को मिलाकर पढ़ें, तो क्या निष्कर्ष निकलता है?
कुरियन की यह चिंता अपनी जगह वाजिब है, पर संसदीय कार्यवाही के जीवंत प्रसारण के पक्ष में भी वाजिब तर्क हैं। लोकतंत्र जनता की भागीदारी से चलने वाली व्यवस्था है। संसद और अन्य लोकतांत्रिक संस्थाएं साध्य नहीं, साधन हैं। जन-प्रतिनिधित्व की व्यवस्था इसलिए है, क्योंकि व्यावहारिक रूप से जनता की सीधी भागीदारी सम्भव नहीं है। तकनीक ने इतना तो किया है कि जनता देख सकती है कि उसके प्रतिनिधि क्या कर रहे हैं। आने वाले समय में तकनीक सीधी भागीदारी के रास्ते भी खोलेगी। लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं भी समय के साथ बदलती हैं। पीजे कुरियन की संसदीय व्यवहार में गिरावट को लेकर चिंता वाजिब है, पर इस गिरावट की वजह टीवी प्रसारण में निहित नहीं है, बल्कि कहीं और है।
वस्तुतः चर्चा टीवी प्रसारण पर नहीं, लोकतांत्रिक अंतर्विरोधों पर होनी चाहिए। इकबाल की मशहूर पंक्तियाँ हैं, ‘जम्हूरियत एक तर्जे हुकूमत है कि जिसमें/बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं करते।’ ये पंक्तियाँ लोकतंत्र की गुणवत्ता पर चोट करती हैं, लोकतंत्र का मजाक उड़ाती हैं। पर क्या आप जम्हूरियत को ख़ारिज कर सकते हैं? सच यह है कि ख़राबियाँ समाज की हैं, बदनाम लोकतंत्र है। सन 2009 में प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना बजरंगी का बयान अखबारों में छपा था, ‘ मैं राजनीति में आना चाहता हूँ।’ उनकी माँ को यकीन था कि बेटा राजनीति में आकर मंत्री बनेगा। मुन्ना बजरंगी का अंत दुखद हुआ, पर सवाल अपनी जगह है कि वे जब ऐसा बयान दे रहे थे, तब क्या राजनीति में शामिल नहीं थे? उन्होंने समय रहते गियर बदल लिया होता , तो मंत्री भी बनते। लोकतांत्रिक दुनिया में कई तरह के कीर्तिमान हैं। वे जन-प्रतिनिधि नहीं बने, पर क्या बन नहीं सकते थे? मधु कोड़ा अपनी पार्टी के अकेले विधायक थे। फिर भी मुख्यमंत्री बने। कोई जादू तो था उनमें।
इन सवालों का जवाब आपको देना है। लोकतंत्र से भागने की जरूरत नहीं है। अलबत्ता इतना लगता है कि या तो हम लोकतंत्र के लायक नहीं हैं, या लोकतंत्र हमारे लायक नहीं है। या लोकतंत्र को हम जितना पाक-साफ समझते हैं, वह कभी हो नहीं सकता। उसकी व्यावहारिक दिक्कतें हैं। वह जिस समाज में है, वह खुद पाक-साफ नहीं है। इसके लिए बड़े स्तर पर सामाजिक बदलाव की जरूरत है। सामाजिक बदलाव सिर्फ ख़याली पुलाव पकाने से होने वाला नहीं। हमारा लोकतंत्र पश्चिमी देशों से आया है, वहाँ भी पिछले तीन सौ साल में वह पनपा है। तीन सौ साल पहले वहाँ की दशा भी हमारे लोकतंत्र जैसी थी।
कुछ साल पहले एक नारा चला था, ‘सौ में 98 बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान।’ इस नारे में तकनीकी दोष है। सच यह है कि सौ में 98 बेईमान हैं ही नहीं। सौ में 98 नहीं तो 90 ईमानदार हैं। वे ईमानदार व्यवस्था चाहते हैं। पर वे व्यवस्था के संचालक नहीं हैं, दर्शक हैं। इन दर्शकों को भागीदार बनाने के पहले, उनकी समझदारी को भी विकसित होना चाहिए। उसमें समय लगेगा। दुनिया के विकसित लोकतंत्र भी कभी इन्हीं स्थितियों से गुजरे हैं। पर इस बात पर जरूर गौर करें कि हम सड़कों पर पुलिस वालों को वसूली करते, गुंडों-लफंगो को उत्पात मचाते, दफ्तरों में कामचोरी होते देखते हैं। हम सोचते हैं कि इनपर काबू पाने की जिम्मेदारी किसी और की है। हमने खुद को बेईमान मान लिया है, तो शिकायत किससे करेंगे? यह व्यवस्था आपकी है।
बहरहाल पीजे कुरियन की बात पर वापस आएं। उनकी बात काफी हद तक सही है। पर इस खामी के लिए प्रसारण जिम्मेदार नहीं है। वह तो जनता तक संदेश पहुँचा रहा है। संसदीय कर्म की गरिमा में गिरावट के लिए हमारी राजनीतिक संस्कृति जिम्मेदार है। सदन में अमर्यादित व्यवहार के लिए कार्यवाही के जीवंत प्रसारण को जिम्मेदार ठहराया जाता है। कहा जाता है कि कैमरे सांसदों को तार्किक बहस के बजाय बयानबाजी और खुद आगे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के लिए उकसाते हैं। फरवरी 2014 में तेलंगाना विधेयक पास करते वक्त लोकसभा चैनल का जीवंत प्रसारण रोका गया था। आधिकारिक रूप से कहा गया कि ऐसा तकनीकी दिक्कतों के कारण हुआ, पर वास्तविकता यह थी कि उस दिन सदन में हो रही अव्यवस्था को जनता से छिपाया गया।
राजनीति वही करती है, जो उसकी समझ से जनता को पसंद है। जनता को शालीन व्यवहार पसंद होगा, तो राजनीति को मजबूरन शालीन बनना होगा। दोष कहाँ है, इसे लेकर चर्चा नहीं होती। मीडिया भी ऐसे सवालों पर विचार नहीं करता। संसद का मॉनसून सत्र सामने है। इस सवाल पर विचार के लिए यह उपयुक्त समय भी है। संसद को उसकी भूमिका में वापस आना चाहिए। सत्रावसान के बाद खबरें आती हैं कि इस सत्र में कितने समय का सदुपयोग किया गया, कितना समय खराब हुआ वगैरह। तमाम राष्ट्रीय महत्व के प्रश्नों पर बहस हो ही नहीं पाती। तमाम विधेयक पड़े रह जाते हैं। लोकतांत्रिक गतिविधियों में दो सबसे महत्वपूर्ण कार्य हैं। एक, चुनाव और दूसरे संसदीय कर्म। कृपया दोनों में आए भटकाव की वज़हों पर विचार करें।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (17-07-2018) को "हरेला उत्तराखण्ड का प्रमुख त्यौहार" (चर्चा अंक-3035) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन इमोजी का संसार और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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