मोदी सरकार के
खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का गिरना खबर नहीं है, क्योंकि इसे पेश करने वाले भी
जानते थे कि पास होने वाला नहीं. से लेकर तीन किस्म की जिज्ञासाएं थीं. एक, एनडीए
के पक्ष में कितने वोट पड़ेंगे, दूसरे विरोधी दलों की एकता कितनी मजबूती से खड़ी
दिखाई पड़ेगी और तीसरे, क्या लोकसभा चुनाव के लिए कोई मूमेंटम इससे बनेगा? शुक्रवार को इस बहस के
लिए सात घंटे का समय रखा गया था, पर चर्चा 12 घंटे चली.
पूरी बहस का उल्लेखनीय
पहलू है, दोनों तरफ की जबर्दस्त नाटकीयता और शोर. लगता है कि 2019 के चुनाव का
अभियान शुरू हो गया है. यह अविश्वास प्रस्ताव तेलगु देशम की ओर से आंध्र को लेकर
था, पर ज्यादातर वक्ताओं ने इस पर ध्यान नहीं दिया. सारा ध्यान बीजेपी और कांग्रेस
पर रहा. राहुल गांधी का निशाना मोदी पर था और मोदी का राहुल पर.
प्रधानमंत्री ने
राहुल गांधी के उठाए सवालों के जवाबों पर ज्यादा जोर दिया. हालांकि उन्होंने
तेदेपा के प्रश्नों का उत्तर भी दिया, पर उनके तीरों का रुख कांग्रेस की ओर ही था.
उन्होंने बताने का प्रयास किया कि आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा नहीं दिया
जा सकता, क्योंकि 14वें वित्त आयोग की व्यवस्थाओं के तहत अब ऐसा करना सम्भव नहीं
है, पर पुनर्गठन के कारण आंध्र को वे सारी सुविधाएं दी जा रहीं हैं, जो विशेष राज्य
का दर्ज होने पर मिलतीं.
बहरहाल आंध्र का
सवाल बहस के केंद्र में नहीं था, परिधि में था. उम्मीद थी कि इस बहस से बीजेपी के
खिलाफ बन रही विरोधी दलों की एकता को बल मिलेगा और वह कोई निर्णायक शक्ल लेगी. ऐसा
होता हुआ नजर नहीं आया, बल्कि विरोधी-एकता के अंतर्विरोध बढ़े हैं. अन्ना द्रमुक
ने प्रस्ताव का विरोध करके अपनी राजनीति साफ कर दी है. वहीं बीजू जनता दल ने पूरी
बहस का बहिष्कार करके खुद को फिलहाल विरोधी-एकता के दायरे से अलग कर लिया है.
एनडीए के
सहयोगियों में सबसे महत्वपूर्ण सवाल शिवसेना को लेकर हैं. शिवसेना ने मतदान से अलग
रहकर इतना तो जताया कि वह बीजेपी से नाखुश है, पर यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह
विरोधी दलों की मुहिम के साथ नहीं है. कमोबेश हालात वैसे ही हैं, जैसे कुछ समय
पहले तक थे. कुल मिलाकर एक बात कही जा सकती है कि इस अविश्वास प्रस्ताव से
राजनीतिक स्थितियों में कोई बुनियादी बदलाव आने वाला नहीं है. जैसा था, वैसा ही
चलेगा. कांग्रेस मानती है कि विपक्षी एकता ने बीजेपी की नींद उड़ा दी है और मोदी
सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो गई है, पर लगता है कि पार्टी अविश्वास प्रस्ताव के
मौके का पूरा इस्तेमाल कर नहीं पाई.
एक बात उभर कर आ
रही है कि विरोधी दलों के बीच आवश्यक समन्वय नहीं है. और यह भी कि अविश्वास
प्रस्ताव जल्दबाजी में रखा गया. यह बात भी समझ में नहीं आई कि कांग्रेस ने इसमें
पहल क्यों नहीं ली. अविश्वास प्रस्ताव के आठ नोटिस थे. इनमें कांग्रेस का नोटिस भी
था. तेदेपा का नोटिस फौरन स्वीकार होने के कारण बहस का प्रस्थान बिन्दु आंध्र बना,
न कि मॉब लिंचिंग या बिगड़ती अर्थ-व्यवस्था.
कांग्रेस और उसके
सहयोगी दल मिलकर कोई पेशकश करते तो उसका मतलब दूसरा होता. हुआ यह कि बीजेपी ने इस
मौके का फायदा उठाते हुए उल्टे कांग्रेस पर जमकर निशाना लगाया. प्रधानमंत्री के
भाषण का तीन चौथाई से भी ज्यादा हिस्सा कांग्रेस को समर्पित था. कांग्रेस यदि इस
अविश्वास प्रस्ताव पर बहस का नेतृत्व करती तो उसके राजनीतिक मायने दूसरे होते.
राहुल गांधी की
संसदीय उपस्थिति के लिहाज से शुक्रवार का दिन जरूर उल्लेखनीय था. पहली बार वे काफी
आक्रामक और प्रभावशाली नजर आए. भाषण की समाप्ति पर मोदी जी के पास जाकर उनकी झप्पी
से तात्कालिक प्रचार में जरूर मदद मिली, पर इसके दूरगामी प्रभाव के बारे में कहना
मुश्किल है. पर इस परिघटना ने नरेन्द्र मोदी को उकसाया और उनके जवाब में तल्खी साफ
नजर आई. मोदी के भाषण के दौरान लगातार होता शोर भी संसदीय शिष्टाचार के लिहाज से अच्छी बात नहीं थी.
अब अविश्वास प्रस्ताव के
राजनीतिक निहितार्थ पर विचार करें. साल के अंत में राजस्थान, मध्य प्रदेश,
छत्तीसगढ़ और मिजोरम में चुनाव हैं. सत्रावसान के बाद नेताओं और विश्लेषकों की
निगाहें इधर मुड़ जाएंगी. इस लिहाज से मॉनसून सत्र और खासतौर से अविश्वास प्रस्ताव
की बहस देर तक और दूरतक याद रखी जाएगी. बजट सत्र में जब तेदेपा और वाईएसआर
कांग्रेस ने लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाने की कोशिश की थी तो अध्यक्ष ने उसे
यह कहकर स्वीकार नहीं किया कि सदन में अराजकता है. तब सरकार नहीं चाहती थी कि
अविश्वास प्रस्ताव पर बहस हो.
इस बार लोकसभा अध्यक्ष ने
तेदेपा के अविश्वास प्रस्ताव को न केवल फौरन स्वीकार किया, बल्कि उसकी तारीख भी
फौरन तय कर दी. इसके मतलब दो हैं. पहला यह कि बीजेपी ने बजाय रक्षात्मक होने के
आक्रामक होने का फैसला किया. दूसरे उसे विरोधी एकता में सूराख नजर आने लगे हैं.
संसदीय कार्य मंत्री अनंत
कुमार ने कहा, विरोधी कहते हैं कि सरकार बहस से भागती है. ऐसा नहीं है. आओ कर लो
बहस. तुम्हारी झूठी बातों का पर्दाफाश किए देते हैं. बीजेपी ने भी इसी दौर में
अपने सम्भावित सहयोगी दलों को चिह्नित किया है. अविश्वास प्रस्ताव के बहाने सरकार
ने भी लोकसभा चुनाव का शंख बजा दिया है. बीजेपी के नेतृत्व को भरोसा था कि मोदी की
वक्तृता कांग्रेस पर भारी पड़ेगी.
बीजेपी चाहती है कि लोकसभा
चुनाव ‘कांग्रेस बनाम बीजेपी’ और ‘राहुल गांधी बनाम
नरेन्द्र मोदी’ के आधार पर लड़ा जाए. कांग्रेस को विरोधी-एकता
के केन्द्र में रहना है तो उसे मोदी के नेतृत्व को सीधी चुनौती देनी होगी. ऐसा है
तो उसने इस अविश्वास
प्रस्ताव की खुद पहल क्यों नहीं की? उसके पास मौका था कि
राष्ट्रीय सवालों को लेकर वह सीधे मैदान में उतरती. फिलहाल सरकार इस बाधा को पार
करके आगे निकल गई है.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (25-07-2018) को "कुछ और ही है पेट में" (चर्चा अंक-3343) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक और शिक्षाविद प्रोफ़ेसर यशपाल की प्रथम पुण्यतिथि : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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