लोकसभा चुनाव समय से हुए तो संसद के तीन सत्र
उसके पहले हो जाएंगे. इन तीनों सत्रों में सत्तापक्ष और विपक्ष की जोर-आजमाइश अपने
पूरे उभार पर देखने को मिलेगी. इसका पहला संकेत बुधवार से शुरु हुए मॉनसून सत्र
में देखने को मिल रहा है और अभी मिलेगा. इसकी शुरुआत मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास
प्रस्ताव के नोटिस से हुई है. राज्यसभा में नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद और लोकसभा
में कांग्रेस के सदन के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने पार्टी के फैसले का ऐलान करते
हुए कहा था कि 15 पार्टियां हमारे
साथ हैं. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने इसे विचार के लिए स्वीकार कर लिया है. प्रस्ताव पर चर्चा शुक्रवार 20 जुलाई को होगी. लगता
है कि यह सत्र ही नहीं अगले चुनाव तक देश की राजनीति इस प्रस्ताव के इर्द-गर्द
रहेगी.
इस पहल की केंद्रीय राजनीति जरूर विचारणीय है. यह
नोटिस तेदेपा की ओर से दिया गया है और इसके पीछे आंध्र को विशेष राज्य के दर्जे से
वंचित किए जाने को महत्वपूर्ण कारण बताया गया है. अविश्वास प्रस्ताव एक
लोकतांत्रिक प्रक्रिया है और इसके बहाने देश के सामने खड़े महत्वपूर्ण सवालों पर
चर्चा भी होती है. यह नोटिस क्षेत्रीय राजनीति की ओर से दिया गया है. बेहतर होता
कि यह राष्ट्रीय सवालों को लेकर आता और कांग्रेस इसे लाती. बेशक सवाल राष्ट्रीय
उठेंगे, पर इसकी प्रेरणा क्षेत्रीय राजनीति से आई है. आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा देने से ज्यादा बड़े सवाल हैं अर्थव्यवस्था, सामाजिक जीवन में बढ़ती कटुता और मॉब लिंचिंग जैसी अराजकता. बहरहाल इसके पीछे की जो भी राजनीति हो, हमें अच्छी संसदीय बहस का इंतजार करना चाहिए.
पिछले सत्र में भी वाईएसआर कांग्रेस ने ऐसा
नोटिस दिया था, जिसे मंजूर नहीं किया गया था. बजट सत्र के अंतिम दिनों में सदन की
कार्यवाही पूरी तरह ठप रही थी. पिछला सबजट सत्र सन 2000 के बाद से अब तक सबसे
निष्क्रिय सत्र साबित हुआ. वित्त विधेयक बगैर चर्चा के पास हो गया. ज्यादातर समय
समय शोर-गुल का शिकार हुआ. विडंबना है क इतना होने के बावजूद संसद को ठीक से
संचालित करने के सवाल पर राष्ट्रीय स्तर पर कोई चर्चा ही नहीं होती. आंध्र प्रदेश
को विशेष दर्जा देने की माँग और कावेरी नदी के पानी का विवाद अब भी अनसुलझा पड़ा
है. इन दोनों का असर इस सत्र में देखने को मिले तो आश्चर्य नहीं.
अंदेशा है कि इस सत्र में भी संसदीय कार्य
प्रभावित होगा. संसदीय कर्म के शोध से जुड़ी संस्था पीआरएस के अनुसार इस
सत्र में 25 विधेयकों को विचार के लिए सूचीबद्ध किया गया है. 18 नए विधेयक पेश
करने, विचार करने और पास करने के लिए प्रस्तावित हैं. कुल मिलाकर 68 विधेयक लम्बित
हैं. छह विधेयक अध्यादेशों के
स्थान पर लाए जाएंगे, जिन्हें पास कराना जरूरी है. तीन विधेयक वापस भी लिए जाएंगे.
24 दिन के इस सत्र के दौरान 18 बैंठकें होंगी.
राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है मुस्लिम महिला
संरक्षण विधेयक, जो लोकसभा से पास हो चुका है और उसे राज्यसभा से पास कराने की
चुनौती सरकार के सामने है. बीजेपी इसे चुनाव का मुद्दा भी बनाने जा रही है. वहीं
कांग्रेस ने महिला आरक्षण विधेयक को पास कराने की चुनौती फेंककर एक नई बहस की
शुरुआत कर दी है. पिछले दो दशक से महिला आरक्षण विधेयक पर राजनीति के मैदान में
फुटबॉल की तरह किक लगाए जा रहे हैं, पर कुछ हो नहीं पा रहा है. हर सत्र में इसकी
बात उठती है, पर इसे पास कराने की
कोशिश नहीं होती. इस विधेयक के तहत लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए
33 फीसदी सीटों पर आरक्षण का प्रावधान है. पिछले 22 साल में इसे पास होने से बार-बार
रोका गया है. कहना मुश्किल है कि यह कभी पास हो भी पाएगा या नहीं.
इस सत्र में और इसके बाद शीत और बजट सत्र में भी
विरोधी दलों की एकता की परीक्षा भी होगी. हाल में कर्नाटक विधानसभा चुनाव और उत्तर
प्रदेश में गोरखपुर, फूलपुर और कैराना उपचुनावों में नजर आई विरोधी एकता किस हद तक
कायम है, यह भी संसद में नजर आएगा. विरोधी दल बीजेपी के अंतर्विरोधों को भी उभारना
चाहते हैं. इन दिनों खबरें चल रहीं हैं कि भाजपा नेतृत्व अपने कई सांसदों को
लोकसभा चुनाव का टिकट नहीं देगा और नए प्रत्याशियों को उतारेगा. ऐसे में विरोधी दल
बीजेपी सांसदों की बेचैनी का फायदा भी उठाना चाहते हैं. संख्याबल को देखते हुए
सरकार गिरने की कोई सम्भावना नहीं है, पर दोनों तरफ से एक-दूसरे के अंतर्विरोधों
को उभारने की कोशिशें खूब होंगी और होने लगी हैं. इसलिए सदन में हंगामों और गतिरोध
की खबरें आएं, तो आश्चर्य नहीं होगा.
अविश्वास प्रस्ताव के अलावा विरोधी एकता की एक और परीक्षा
राज्यसभा के उपसभापति पद के लिए चुनाव में भी होगी. पिछले उपसभापति पीजे कुरियन का
कार्यकाल खत्म होने के बाद से यह पद खाली पड़ा है. कहा जा रहा है कि शायद यह चुनाव
टल जाए. सरकारी पक्ष ने इस मामले में अभी अपना मन नहीं बनाया है कि अपना प्रत्याशी
उतारे या नहीं. यह चुनाव कुछ समय तक टलने के पुराने कुछ उदाहरण भी हैं. बेशक
विरोधी एकता काफी हद तक सुस्थापित है, पर तेलंगाना राष्ट्र समिति, अन्नाद्रमुक,
बीजू जनता दल और वाईएसआर कांग्रेस जैसे दलों का रुख अभी बहुत स्पष्ट नहीं है.
पता नहीं इस सत्र में जरूरी
विधायी कार्य हो पाएंगे नहीं? सरकार जिन अध्यादेशों
के स्थान पर विधेयक लाएगी, उनमें भगोड़ा आर्थिक अपराध अध्यादेश 2018, आपराधिक कानून संशोधन अध्यादेश 2018, उच्च न्यायालयों की कॉमर्शियल
अदालतें, कमर्शियल डिविजन्स और कमर्शियल अपीलीय डिविजन्स (संशोधन)
अध्यादेश, 2018,होम्योपैथी सेंट्रल
काउंसिल (संशोधन) अध्यादेश, 2018, राष्ट्रीय खेल
विश्वविद्यालय अध्यादेश, 2018, इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्सी
संहिता (संशोधन) अध्यादेश, 2018 शामिल हैं.
नीरव मोदी प्रकरण और बैंकों की फँसी रकम वापस
लाने के लिए इनमें से कुछ अधिनियम बेहद जरूरी हैं. सामान्यतः ऐसे विधेयकों को पास
कराने में विपक्ष सहयोग करता है. दिक्कत ऐसे विधेयकों के साथ होती है, जिनके
राजनीतिक निहितार्थ अपेक्षाकृत कम होते हैं, पर वे भी जरूरी होते हैं. किसी न किसी
क्षेत्र में उनकी उपयोगिता होती है. ऐसे मसले राजनीतिक वरीयताओं की भेंट चढ़ते
हैं. राजनीतिक दल किस महत्वपूर्ण मसलों के साथ कैसा खेल खेलते हैं, इसे महिला विधेयक
के संदर्भ में देख सकते हैं. संसद सत्रों का धुलते जाना सिर्फ
खबर बनकर रह गया है. ऐसा क्यों? इस पर संसद के भीतर और बाहर दोनों सतहों पर विचार होना
चाहिए. सामाजिक जीवन के संकटों की गूँज संसद में सुनाई भी नहीं देती. हाल में मॉब
लिंचिंग का सवाल बड़ी समस्या के रूप में उभरा है. देश की सर्वोच्च अदालत ने इस
विषय पर कानून बनाने का सुझाव दिया है. पता नहीं कानून
बनाने वालों ने इसे सुना भी या नहीं?
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (20-07-2018) को "दिशाहीन राजनीति" (चर्चा अंक-3038) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'