अगले साल कर्नाटक विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं. उसकी
तैयारी में राज्य की कांग्रेस सरकार कई तरह के लोक-लुभावन कार्यक्रमों की घोषणाएं
कर रही है. 15 अगस्त से नागरिकों को सस्ता भोजन देने की इंदिरा गांधी कैंटीन योजना
शुरू होने वाली है, जिसका उद्घाटन करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी
खासतौर से बेंगलुरु आएंगी. यह कार्यक्रम तमिलनाडु की अम्मा कैंटीन से प्रभावित है.
लोक-लुभावन कार्यक्रम राजनीति का हिस्सा हैं. उन्हें स्वीकार कर लिया गया है. पर
कर्नाटक की हाल की कुछ घटनाओं से लगता है कि वहाँ लोगों की भावनाओं से खेलने की
कोशिश की जा रही है.
राज्य में इस बहस के समांतर हिंदी-विरोधी आंदोलन खड़ा किया जा रहा, जिसकी कोई वजह समझ में नहीं आती. इतना लगता है कि चुनाव के पहले कन्नड़ राष्ट्रवाद को चुनाव के पहले हवा देने की कोशिशें की जा रहीं हैं. यह स्पष्ट नहीं है कि इसके पीछे कांग्रेस है या कोई दूसरी ताकत. कांग्रेस यदि हिंदी-विरोधी आंदोलन को हवा देगी तो इसका खामियाजा उसे उत्तर भारत में चुकाना पड़ेगा. यों भी देश में तीन भाषा सूत्र केंद्र की कांग्रेस सरकारों की देन है.
मुख्यमंत्री एस सिद्धरमैया ने पिछले सोमवार को राज्य का
अलग से ध्वज डिजाइन करने के लिए नौ सदस्यों की समिति बनाने की घोषणा की है. उसके
बाद यह बहस शुरू हो गई है कि किसी राज्य का अपना अलग ध्वज होना चाहिए या नहीं. यह
बहस चल ही रही है. सन 2004 में कर्नाटक राज्य ने अपना राज्य-गान भी स्वीकार किया
था. राज्य के संगीतकार सी अश्वथ ने उसकी धुन तैयार की थी, पर उस धुन के मानक
स्वरूप को अभी स्वीकार नहीं किया गया है. महाराष्ट्र के साथ राज्य की सीमा को लेकर
भी विवाद हैं.
राज्य में इस बहस के समांतर हिंदी-विरोधी आंदोलन खड़ा किया जा रहा, जिसकी कोई वजह समझ में नहीं आती. इतना लगता है कि चुनाव के पहले कन्नड़ राष्ट्रवाद को चुनाव के पहले हवा देने की कोशिशें की जा रहीं हैं. यह स्पष्ट नहीं है कि इसके पीछे कांग्रेस है या कोई दूसरी ताकत. कांग्रेस यदि हिंदी-विरोधी आंदोलन को हवा देगी तो इसका खामियाजा उसे उत्तर भारत में चुकाना पड़ेगा. यों भी देश में तीन भाषा सूत्र केंद्र की कांग्रेस सरकारों की देन है.
संविधान सभा ने 22 जुलाई 1947 को जब राष्ट्रीय ध्वज को
स्वीकार किया तब राज्यों के लिए ध्वज की कोई बात नहीं हुई थी. सन 2002 की
राष्ट्रीय ध्वज संहिता में भी राज्यों के अलग ध्वज की कोई बात नहीं कही गई है. सिद्धरमैया
कहते हैं कि संविधान में यह भी नहीं कहा गया कि कोई राज्य अपना अलग ध्वज नहीं बना
सकता. अलबत्ता संविधान के अनुच्छेद 370 में जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा
देते हुए उसे अपना अलग झंडा अपनाने की अनुमति दी गई थी. इससे यह अर्थ भी निकलता है
कि अलग ध्वज राज्य भारतीय संग में राज्य की विशेष स्थिति को दर्शाता है, इसीलिए
दूसरे किसी राज्य ने इस व्यवस्था के बारे में सोचा भी नहीं.
संयोग से कर्नाटक के पास अपना एक ध्वज है, जो सरकारी तौर
पर मान्यता प्राप्त नहीं है, पर अक्सर सरकारी कार्यक्रमों में भी वह दिखाई पड़ता
है. खासतौर से कर्नाटक राज्य के स्थापना दिवस 1 नवंबर को होने वाले राज्योत्सव में
पीले और लाल रंग का यह ध्वज फहराया जाता है. कर्नाटक के इस ध्वज की परिकल्पना एक
लेखक मा राममूर्ति ने साठ के दशक में की थी. उन्होंने कन्नड़ राष्ट्रवाद के आधार
पर राजनीतिक दल कन्नड़ पक्ष का गठन किया था, जिसके लिए यह पीले और लाल रंग का ध्वज
बनाया था.
उस ध्वज के बीच में कर्नाटक का नक्शा और कुछ अन्य निशान
बने थे. बाद में उसमें से सारे निशान हटाकर इसे सरल रूप दे दिया गया और यह
अनौपचारिक रूप से कर्नाटक की जनता का ध्वज बन गया है. सवाल यह है कि राज्य की जनता
के पास अपना ध्वज भी है तो सरकार अपना अलग ध्वज क्यों बनाना चाहती है? इस सवाल का जवाब देने के पहले बेंगलुरु के
हिंदी-विरोधी आंदोलन पर नजर डालें. पिछले कुछ दिनों से बेंगलुरु मेट्रो के सूचना-पटों में अंग्रेजी और
कन्नड़ के साथ हिंदी के प्रयोग को लेकर आंदोलन शुरू हो गया है. इसके पीछे कुछ
नागरिक संगठन हैं, पर जिस तरह ये संगठन हिंदी नाम-पटों पर लिखी हिंदी पर कालिख पोत
रहे हैं, उससे जाहिर होता है कि पुलिस और प्रशासन की मंशा उसे रोकने की नहीं
है.
बेंगलुरु
मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन लिमिटेड ने तीन-भाषा नीति का पालन करते हुए स्टेशनों के नाम-पटों
को कन्नड़, हिंदी
और अंग्रेजी में लिखवाए हैं. इस कॉरपोरेशन में केंद्र सरकार की 50 फीसदी की
हिस्सेदारी है. अंग्रेजी और कन्नड़ के साथ हिंदी को शामिल करने को ‘हिंदी थोपना’ साबित किया जा रहा है. इस मुहिम के पीछे की राजनीति पिछले हफ्ते और
साफ हुई, जब बेंगलुरु में एक हिंदी विरोधी सम्मेलन हुआ, जिसमें महाराष्ट्र से राज
ठाकरे की महाराष्ट्र नव-निर्माण सेना और तमिलनाडु से डीएमके के प्रतिनिधि भी शामिल
हुए.
दावा
किया गया कि बेंगलुरु की सभा में ओडिशा, गुजरात और केरल के संगठनों के हिंदी-विरोधी
प्रतिनिधि भी शामिल हुए हैं. इस बैठक में माँग की गई कि संविधान में संशोधन करके
आठवीं अनुसूची की सभी भाषाओं को हिंदी के बराबर किया जाए. उनके अनुसार अनुच्छेद
344 और 351 के कारण हिंदी का प्रसार बढ़ा है, जिसके कारण क्षेत्रीय भाषाओं की
हत्या हुई है. हालांकि इस सम्मेलन में कुछ बातें भारतीय भाषाओं को लेकर भी कही
गईं. संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षाएं सभी भारतीय भाषाओं में कराने की चर्चा भी किसी
ने की, पर उसपर ज्यादा कुछ पढ़ने को नहीं मिला.
साफ
तौर पर इस सम्मेलन का उद्देश्य राजनीतिक था. एक वक्ता ने कहा कि भारत ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ के नारे से नहीं चलेगा. कहा यह भी गया कि
राजनीतिक दल उत्तर भारत के पिछड़े राज्यों के लोगों को दूसरे राज्यों में भेज रहे
हैं, जिससे हिंदी बोलने वालों की संख्या इन राज्यों में बढ़ रही है. यह सच है कि
बेंगलुरु शहर में व्यावसायिक गतिविधियाँ बढ़ने के कारण बाहर से आकर रोजगार ढूँढने
वालों की संख्या बढ़ी है. ऐसा दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद और चेन्नई सब जगह हुआ है.
ऐसी स्थिति में भी जनता के बीच संवाद की भाषा और संस्कृति के सवाल उठना विस्मय की
बात नहीं. दिक्कत राजनीति से है, जो इनके समाधान खोजने के बजाय समस्याएं बढ़ाती
है.
inext में प्रकाशित
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 18वां कारगिल विजय दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteसत्ता के लिए कुछ भी होने लगा है !
ReplyDeleteकांग्रेस सत्तामें बने रहने के लिए एक बार फिर अलगाववाद का कार्ड खेल रही है , लेकिन वह यह नहीं सोच रही कि देश में इसका अंजाम क्या होगा , पहले भाषाई आंदोलनों की आग कितनी मुश्किल से शांत हुई थी वह यह बात भूल गयी लगती है , त्रि भाषा फार्मूला भी उसी का परिणाम है ,इस के माध्यम से उत्तर भारत में वह अपनी कब्र तैयार कर रही है , जिसमें दफ़न होने की हालत में वह पहले से ही पांव लटकाये बैठी है
ReplyDeleteअब यह तय हो गया है कि हमारे राजनैतिक दल विशेष कर कांग्रेस किसी भी हद तक गिर सकते हैं