एक सामान्य कारोबारी को लखपति से करोड़पति बनने में दस साल लगते हैं, पर आप राजनीति में हों तो यह चमत्कार इससे भी कम समय में संभव है। वह भी बगैर किसी कारोबार में हाथ लगाए। बीजेपी के नेता सुशील कुमार मोदी का दावा है कि लालू प्रसाद का परिवार 2000 करोड़ रुपये की संपत्ति का मालिक है। इस दावे को अतिरंजित मान लें, पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनकी मिल्कियत करोड़ों में है। कई शहरों में उनके परिवार के नाम लिखी अचल संपत्ति के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है।
यह कहानी केवल लालू यादव की नहीं, समूची राजनीति की है। पश्चिम बंगाल में करोड़ों का शारदा चिटफंड घोटाला एक और उदाहरण है। इस मामले में दो सांसद, एक मंत्री और पुलिस के एक डीजी को जेल की हवा खानी पड़ी। अभी इसके तार पूरी तरह खुले नहीं हैं। राजनीति ऐसा कारोबार बन गई है, जिसमें बगैर पैसा लगाए और बिना किसी जोखिम के वारे-न्यारे होने में देर नहीं लगती। सन 1962 में संथानम कमेटी ने इस बात की ओर इशारा किया था कि देश में भ्रष्टाचार का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत राजनीति है। तबसे अबतक यह धंधा दिन दूना, रात चौगुना बढ़ा है। राजनेताओं पर आरोप लगते रहे हैं, पर उनका बाल बांका नहीं होता। पर पिछले एक दशक से इस कहानी में मोड़ आया है।
राजनीति ने सामाजिक-सांस्कृतिक पहचानों के सहारे अपनी जड़ें जमाई हैं। जैसे ही उसपर कार्रवाई होती है, वह उसे बदले की कार्रवाई साबित करने लगती है। भ्रष्टाचार का यह कीड़ा समूची राजनीति में लगा है, पर क्षेत्रीय दलों में उसका असर बहुत ज्यादा है। मुफलिसों और दबे-कुचले लोगों के सपनों को पूरा करने का दावा करने वाली यह राजनीति उस सामंती व्यवस्था को और ताकतवर बना रही है, जिसके विरोध में उसका जन्म हुआ है।
लालू यादव मुफलिसी से जूझते हुए राजनीति की अगली कतार में आए हैं। उनके पीछे जनता की ताकत ने उन्हें सत्ता के शिखर पर बैठाया। विडंबना है कि सत्ता ने उन्हें सुख-सुविधाओं से परिचित कराया। जरूरतें बढ़ती गईं और रास्ते बनते गए। उनके परिवार की संपत्ति को लेकर जो मामले सामने आए हैं, वे आरोप के स्तर पर हैं।
लालू प्रसाद के परिवार के पास इन आरोपों को अदालत में गलत साबित करने का मौका है। वक्त बताएगा कि उनपर लगाए जा रहे आरोप सही हैं या नहीं, पर कुछ बातें साफ और साबित हैं। वे व्यक्तिगत रूप से एक मामले में सजायाफ्ता हैं। इसके कारण वे सक्रिय राजनीति में भाग नहीं ले सकते। पहली बार जब वे जेल गए थे, तब उन्होंने अपनी पत्नी को बिहार की मुख्यमंत्री बनाया था। अब जब वे सक्रिय राजनीति में भाग लेने से वंचित हैं, तब उन्होंने अपने बेटे को उप-मुख्यमंत्री बनाया है। उनकी यह राजनीति बिहार के महागठबंधन में दरारें पैदा कर रही है।
लालू यादव की राजनीति के नैतिक पक्ष का फैसला उनके वोटर और समर्थक करेंगे, पर कानूनी फैसला अदालत में ही होगा। सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग के छापों को उन्होंने बदले की कार्रवाई बताया है। यह एक राजनीतिक वक्तव्य है। उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हो रहा है, तो उन्हें अदालत में जाना चाहिए। लालू प्रकरण के मार्फत भारतीय राजनीति का जो रूप सामने आ रहा है वह निराशाजनक है। यह राजनीतिक विद्रूप केवल इसी परिवार तक सीमित नहीं है, पर यह एक उदाहरण जरूर है।
हाल के वर्षों में हमारे सामने मधु कोड़ा, ओम प्रकाश चौटाला और तमिलनाडु का शशिकला प्रकरण का उदाहरण है। जयललिता अब हमारे बीच नहीं हैं, पर शशिकला को जयललिता के कारण जेल में जाना पड़ा। हाल के वर्षों में कई क्षेत्रीय क्षत्रप भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं। यह सब तब संभव हो पाया जब पिछले कुछ वर्षों में मनी लाउंडरिंग, काले धन और बेनामी संपत्ति से जुड़े कानूनों में बदलाव किया गया है। कानूनी सुधार की जिम्मेदारी इसी राजनीतिक वर्ग की है। हमारा वोटर संकीर्ण भावनाओं में बहकर फैसले करता है, जिससे राजनीतिक रोटियाँ सेंकी जाती हैं।
नब्बे के दशक में जब लालू यादव पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तब उन्होंने कहा, ‘नून भात खाना है, बिहार को बनाना है।’ उनका उत्साह इतना ज्यादा था कि वे मुख्यमंत्री के विशिष्ट आवास में रहने को तैयार नहीं हुए। काफी अनुरोध के बाद वे वहाँ रहने को राज़ी हुए। उनके बातों को जनता का समर्थन मिला। लोगों को लगा कि हमारे बीच का कोई आदमी मुख्यमंत्री बना है। अब सब बदल जाएगा। पर लगता है कि कुछ समय बाद ही लालू प्रसाद को सत्ता की राजनीति का असली मतलब समझ में आ गया। राजनीति का मतलब उनके लिए चुनाव जीतने के अलावा कुछ नहीं रहा। इस सफलता के लिए उन्होंने सामाजिक समीकरण भी गढ़े, जो उन्हें शिखर पर बनाए रखने में मददगार बने।
नब्बे के दशक में उनके खिलाफ चारा घोटाले का आरोप लगा। निचली अदालत से सज़ा होने के बाद वे जेल में रहे। अब सुप्रीम कोर्ट में केस है। जल्द उसका फैसला भी आएगा। ऐसा नहीं कि देश में केवल चारा घोटाला ही अकेला घोटाला था। पर यह ऐसा मामला था जो अपनी तार्किक परिणति तक पहुँचा। इसमें किसी की साजिश नहीं थी। अब जो मामले सामने आ रहे हैं वे बेनामी सम्पत्ति के हैं। उनपर आरोप है कि रेलवे का होटल लीज पर देकर बदले में उन्होंने पटना में ऐसी जमीन अपने परिवार के नाम ली, जिसकी कीमत अब सैकड़ों करोड़ है।
लालू पहली बार मनी लाउंडरिंग रोकथाम कानून का सामना कर रहे हैं। चारा घोटाले की जांच के समय मनी लाउंडरिंग का कानून था ही नहीं। उस समय सीबीआई ने उनके खिलाफ सिर्फ भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत जांच की थी। इसके साथ ही आयकर विभाग उनकी बेटी मीसा भारती और उनके पति शैलेश कुमार, राबड़ी देवी और उनके बेटे तेजस्वी प्रसाद को संपत्ति जब्त करने का नोटिस भी भेज चुका है। दिल्ली और पटना की अचल संपत्तियों को लेकर कार्रवाई की जा रही है। उनके कई रिश्तेदार भी बेनामी संपत्ति के अंतर्गत संदेह के घेरे में हैं।
लालू के खिलाफ छापा-मारी के राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। कांग्रेस का कहना है कि सीबीआई के छापे सिलेक्टिव हैं। पर भ्रष्टाचार के आरोप हवाई नहीं हैं। यह समूची राजनीति का सवाल है। सवाल यह है कि राजनीति जनसेवा से धंधा क्यों बन गई?
लालू यादव मुफलिसी से जूझते हुए राजनीति की अगली कतार में आए हैं। उनके पीछे जनता की ताकत ने उन्हें सत्ता के शिखर पर बैठाया। विडंबना है कि सत्ता ने उन्हें सुख-सुविधाओं से परिचित कराया। जरूरतें बढ़ती गईं और रास्ते बनते गए। उनके परिवार की संपत्ति को लेकर जो मामले सामने आए हैं, वे आरोप के स्तर पर हैं।
लालू प्रसाद के परिवार के पास इन आरोपों को अदालत में गलत साबित करने का मौका है। वक्त बताएगा कि उनपर लगाए जा रहे आरोप सही हैं या नहीं, पर कुछ बातें साफ और साबित हैं। वे व्यक्तिगत रूप से एक मामले में सजायाफ्ता हैं। इसके कारण वे सक्रिय राजनीति में भाग नहीं ले सकते। पहली बार जब वे जेल गए थे, तब उन्होंने अपनी पत्नी को बिहार की मुख्यमंत्री बनाया था। अब जब वे सक्रिय राजनीति में भाग लेने से वंचित हैं, तब उन्होंने अपने बेटे को उप-मुख्यमंत्री बनाया है। उनकी यह राजनीति बिहार के महागठबंधन में दरारें पैदा कर रही है।
लालू यादव की राजनीति के नैतिक पक्ष का फैसला उनके वोटर और समर्थक करेंगे, पर कानूनी फैसला अदालत में ही होगा। सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग के छापों को उन्होंने बदले की कार्रवाई बताया है। यह एक राजनीतिक वक्तव्य है। उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हो रहा है, तो उन्हें अदालत में जाना चाहिए। लालू प्रकरण के मार्फत भारतीय राजनीति का जो रूप सामने आ रहा है वह निराशाजनक है। यह राजनीतिक विद्रूप केवल इसी परिवार तक सीमित नहीं है, पर यह एक उदाहरण जरूर है।
हाल के वर्षों में हमारे सामने मधु कोड़ा, ओम प्रकाश चौटाला और तमिलनाडु का शशिकला प्रकरण का उदाहरण है। जयललिता अब हमारे बीच नहीं हैं, पर शशिकला को जयललिता के कारण जेल में जाना पड़ा। हाल के वर्षों में कई क्षेत्रीय क्षत्रप भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं। यह सब तब संभव हो पाया जब पिछले कुछ वर्षों में मनी लाउंडरिंग, काले धन और बेनामी संपत्ति से जुड़े कानूनों में बदलाव किया गया है। कानूनी सुधार की जिम्मेदारी इसी राजनीतिक वर्ग की है। हमारा वोटर संकीर्ण भावनाओं में बहकर फैसले करता है, जिससे राजनीतिक रोटियाँ सेंकी जाती हैं।
नब्बे के दशक में जब लालू यादव पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तब उन्होंने कहा, ‘नून भात खाना है, बिहार को बनाना है।’ उनका उत्साह इतना ज्यादा था कि वे मुख्यमंत्री के विशिष्ट आवास में रहने को तैयार नहीं हुए। काफी अनुरोध के बाद वे वहाँ रहने को राज़ी हुए। उनके बातों को जनता का समर्थन मिला। लोगों को लगा कि हमारे बीच का कोई आदमी मुख्यमंत्री बना है। अब सब बदल जाएगा। पर लगता है कि कुछ समय बाद ही लालू प्रसाद को सत्ता की राजनीति का असली मतलब समझ में आ गया। राजनीति का मतलब उनके लिए चुनाव जीतने के अलावा कुछ नहीं रहा। इस सफलता के लिए उन्होंने सामाजिक समीकरण भी गढ़े, जो उन्हें शिखर पर बनाए रखने में मददगार बने।
नब्बे के दशक में उनके खिलाफ चारा घोटाले का आरोप लगा। निचली अदालत से सज़ा होने के बाद वे जेल में रहे। अब सुप्रीम कोर्ट में केस है। जल्द उसका फैसला भी आएगा। ऐसा नहीं कि देश में केवल चारा घोटाला ही अकेला घोटाला था। पर यह ऐसा मामला था जो अपनी तार्किक परिणति तक पहुँचा। इसमें किसी की साजिश नहीं थी। अब जो मामले सामने आ रहे हैं वे बेनामी सम्पत्ति के हैं। उनपर आरोप है कि रेलवे का होटल लीज पर देकर बदले में उन्होंने पटना में ऐसी जमीन अपने परिवार के नाम ली, जिसकी कीमत अब सैकड़ों करोड़ है।
लालू पहली बार मनी लाउंडरिंग रोकथाम कानून का सामना कर रहे हैं। चारा घोटाले की जांच के समय मनी लाउंडरिंग का कानून था ही नहीं। उस समय सीबीआई ने उनके खिलाफ सिर्फ भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत जांच की थी। इसके साथ ही आयकर विभाग उनकी बेटी मीसा भारती और उनके पति शैलेश कुमार, राबड़ी देवी और उनके बेटे तेजस्वी प्रसाद को संपत्ति जब्त करने का नोटिस भी भेज चुका है। दिल्ली और पटना की अचल संपत्तियों को लेकर कार्रवाई की जा रही है। उनके कई रिश्तेदार भी बेनामी संपत्ति के अंतर्गत संदेह के घेरे में हैं।
लालू के खिलाफ छापा-मारी के राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। कांग्रेस का कहना है कि सीबीआई के छापे सिलेक्टिव हैं। पर भ्रष्टाचार के आरोप हवाई नहीं हैं। यह समूची राजनीति का सवाल है। सवाल यह है कि राजनीति जनसेवा से धंधा क्यों बन गई?
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