बंगाल में जड़ें जमाने की कोशिश में भारतीय जनता पार्टी साम्प्रदायिक सवालों को उठा रही है. उसके लिए परिस्थितियाँ अच्छी हैं, क्योंकि ममता बनर्जी ने इस किस्म की राजनीति के दूसरे छोर पर कब्जा कर रखा है. भावनाओं की खेती के अर्थशास्त्र को समझना है तो वोट की राजनीति पढ़ना चाहिए. ऐसी ही खेती का जरिया भाषाएं हैं. कर्नाटक में अगले साल चुनाव होने वाले हैं. उसके पहले वहाँ भाषा को लेकर एक अभियान शुरू हुआ है. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस तीन भाषा सूत्र की समर्थक है, पर बेंगलुरु मेट्रो में हिंदी विरोध की वह समर्थक है. साम्प्रदायिक राजनीति का यह एक और रूप है, इसमें सम्प्रदाय की जगह भाषा ले लेती है. भाषा सामूहिक पहचान से जुड़ी है. इस आंदोलन के पीछे अंग्रेजी-परस्त लोग भी शामिल हैं, क्योंकि अंग्रेजी उन्हें 'साहब' की पहचान देने में मददगार है.
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इन
दिनों बेंगलुरु मेट्रो के सूचना-पटों में अंग्रेजी और कन्नड़ के साथ हिंदी के
प्रयोग को लेकर एक आंदोलन चलाया जा रहा है. इस आंदोलन को अंग्रेजी मीडिया ने हवा
भी दी है. शहर के कुछ मेट्रो स्टेशनों में हिंदी में लिखे नाम ढक दिए गए हैं. ऐसा
ही एक आंदोलन कुछ समय पहले दक्षिण भारत में राष्ट्रीय राजमार्गों के नाम-पटों में
हिंदी को शामिल करने के विरोध में खड़ा हुआ था. हाल में राम गुहा और शशि थरूर जैसे
लोगों ने बेंगलुरु मेट्रो-प्रसंग में हिंदी थोपे जाने का विरोध किया है. एक तरह से
यह भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ाने की कोशिश है. साथ ही अंग्रेजी के ध्वस्त होते
किले को बचाने का प्रयास भी.
बेंगलुरु
मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन लिमिटेड ने तीन-भाषा नीति का पालन करते हुए स्टेशनों के नाम-पटों
को कन्नड़, हिंदी
और अंग्रेजी में लिखवाया तो कुछ अंग्रेजी-परस्त लोगों को अखरा. दक्षिण भारत में
बेंगलुरु और हैदराबाद दो ऐसे शहर हैं, जहाँ हाल में हिंदी-भाषियों की संख्या में
काफी वृद्धि हुई है. बड़ी संख्या में दक्षिण के लोग भी काम के लिए उत्तर भारत जा
रहे हैं. पर संपर्क भाषा के रूप में हिंदी अपनी भूमिका आज से नहीं कई सौ साल पहले से
निभा रही है. हैदराबाद की दखनी हिंदी तो विकसित ही वहीं हुई.
बेंगलुरु
मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन लिमिटेड में केंद्र और राज्य की बराबरी की भागीदारी है. देश
की राजभाषा हिंदी है. ऐसे में इसे थोपना कैसे कहेंगे? यह सुविधा है, जिसका लाभ उन्हें मिलेगा, जो
अंग्रेजी और कन्नड़ के नाम-पट पढ़ने में असमर्थ हैं. तर्क यह है कि हिंदी ही
क्यों, तमिल-तेलुगु या मलयालम क्यों नहीं? चेन्नई मेट्रो में केवल तमिल एवं अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया गया
है. वैसे ही बेंगलुरु मेट्रो में भी होना चाहिए. राजभाषा नियम, 1976 के तहत कुछ उपबंधों में तमिलनाडु
को छूट दी गई है. यह छूट कर्नाटक में नहीं है. कर्नाटक ने हिंदी का विरोध भी नहीं
किया.
शशि थरूर ने अपने ट्वीट में लिखा है कि हिंदी देश की
राष्ट्रभाषा नहीं है. बेशक हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है, पर वह देश की राजभाषा जरूर
है. सांविधानिक व्यवस्था के अनुसार पहले 15 साल तक हिंदी के साथ अंग्रेजी को भी
राजभाषा बने रहना था, पर हिंदी-विरोधी आंदोलन के कारण सन 1963 में राजभाषा अधिनियम
पास किया गया. हिंदी के साथ अंग्रेजी तबतक काम करेगी, जबतक हिंदी स्वतंत्र रूप से
राजभाषा नहीं बन जाती. राजनीति ने भारतीय भाषाओं को पीछे धकेल दिया है. साथ ही अंग्रेजी-परस्त
तबका हमें लड़ाने की कोशिश करता है.
हिंदी के सार्वदेशिक महत्व को महात्मा गांधी ने पहचाना
था. बीसवीं सदी के दूसरे दशक में राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर जब उन्होंने संभाली
तब उस आंदोलन की कोई भाषा नहीं थी. ज्यादातर भाषण अंग्रेजी में होते थे. गांधी ने
हिंदुस्तानी या हिंदी को आंदोलन की भाषा बनाया. उनके प्रयास से ही दक्षिण भारत
हिंदी प्रचार सभा का गठन हुआ था. आज मीडिया में अंग्रेजी चैनलों की समस्त टीआरपी
के मुकाबले हिंदी के एक चैनल की टीआरपी भारी पड़ेगी. टाइम्स नाउ का नवीनतम प्रयोग
है खबरों की हैडलाइंस हिंदी में देना. रात के शो की बहस में हिंदी का इस्तेमाल खुलकर
होता है. किसी को आपत्ति?
मनमोहन
सिंह अंग्रेजी में बोलते थे और नरेंद्र मोदी हिंदी में बोलते हैं. दोनों की
लोकप्रियता का अंतर देख लीजिए. मनमोहन सिंह की विद्वत्ता को लेकर संदेह नहीं, पर जनता को बातें अपनी भाषा में ही समझ में आती
हैं. सन 2014 में नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह के मौके पर दक्षिण एशिया के
सभी देशों के शासन प्रमुख भारत आए. उस मौके पर बीबीसी हिंदी की वैबसाइट पर प्रकाशित
एक आलेख में कहा गया, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ
ग्रहण समारोह के समय की एक तस्वीर में प्रधानमंत्री के साथ राष्ट्रपति प्रणब
मुखर्जी, अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ और भूटान
के राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक एक साथ एक गोल मेज़ के इर्द-गिर्द बैठे हैं. आलेख
में लेखक ने पूछा, वे आपस में किस भाषा में बात कर रहे थे? अंग्रेज़ी में नहीं, हिंदी में.
हिंदी
का देश की किसी क्षेत्रीय भाषा से बैर नहीं है, बल्कि
भारतीय भाषाएं एक-दूसरे की बहनें हैं. राष्ट्रीय महत्व के सवालों पर जनता की भाषा
में बात होगी तो व्यवस्था पारदर्शी बनेगी. जनता से जुड़ने के लिए किस भाषा में
संवाद करेंगे? यह संवाद अंग्रेजी में नहीं हो सकता.
वह तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, बांग्ला, मराठी, गुजराती, असमिया और ओडिया सहित किसी भी भारतीय
भाषा में होगा तो जनता को बेहतर समझ में आएगा. देश में बड़ी संख्या में ऐसे
गैर-हिंदी भाषी हैं जो अंग्रेजी नहीं समझते, हिंदी
समझ लेते हैं.
अंग्रेजी
भी सूचना और संवाद की भाषा रहे इसमें किसी को आपत्ति नहीं. पर हिंदी में न करे, इसपर हमें आपत्ति है. हिंदी देश की राजभाषा है
और काफी बड़े इलाके के लोगों की समझ में आने वाली भाषा है. बेशक तमिल समेत आठवीं
अनुसूची में शामिल सभी भाषाएं महत्वपूर्ण हैं. उनके इस्तेमाल पर भी किसी को आपत्ति
नहीं. पर हिंदी का इस्तेमाल हिंदी थोपना कैसे माना जा सकता है? पिछले दिनों एक अंग्रेजी अखबार ने लिखा कि भारत
में हिंदी मीडियम टाइप (एचएमटी) लोगों के अच्छे दिन आ रहे हैं. यानी हिंदी मीडियम
पढ़ाई करने वालों की इज्जत बढ़ने वाली है. इसमें गलत क्या है?
यह
वह नया युवा वर्ग है जो गाँवों और कस्बों से बाहर आ रहा है. उसके मन में उम्मीदें
और सपने हैं. अब केवल एक या दो भाषाओं का समय नहीं है. यूरोप में भी केवल एक भाषा
से कम नहीं चलता. अंग्रेजी बेशक दुनिया भर में प्रचलित भाषा है, पर अब केवल अंग्रेजी में भी काम नहीं चलेगा.
हमें कम से कम तीन भाषाओं को पढ़ने के लिए
तैयार रहना चाहिए. उत्तर भारत के लोगों को हिंदी और अंग्रेजी के साथ एक भारतीय
भाषा को पढ़ना चाहिए. हो सके तो दक्षिण भारतीय भाषा को पढ़ें.
यह चिंता की बात है...
ReplyDeleteबहुत ही सटीक और सामयिक आलेख है सर | बहुत ही विडम्बनापूर्ण स्थति है और दुखद बात ये है कि राजनीति से प्रेरित ऐसे प्रयास अत्यंत ही आत्मघाती साबित होते हैं |
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