राजनीतिक
गलियारों में डेढ़-दो महीने की अपेक्षाकृत चुप्पी के बाद आज दो बड़ी राजनीतिक
घटनाएं होने जा रहीं हैं, जिनका राजनीति पर असर देखने को मिलेगा. देश के चौदहवें
राष्ट्रपति के चुनाव के अलावा संसद का मॉनसून सत्र आज शुरू हो रहा है. सोलहवीं
लोकसभा के तीन साल गुजर जाने के बाद यह पहला मौका है, जब 18 विरोधी दल एक सामूहिक
रणनीति के साथ संसद में उतर रहे हैं. पिछले मंगलवार को इन दलों ने उप-राष्ट्रपति
पद के प्रत्याशी का नाम तय करने के साथ अपनी भावी रणनीति का खाका भी तय किया है. ये
दल अब महीने में कम से कम एक बार बैठक करेंगे. ये बैठकें दिल्ली में ही नहीं
अलग-अलग राज्यों में होंगी. ज्यादा महत्वपूर्ण है संसदीय गतिविधियों में इनका समन्वय.
राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया अब क्रमशः तेज होगी.
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विरोधी
दलों के बीच कम से कम पाँच मसलों पर आम सहमति है. ये हैं नोटबंदी के दुष्प्रभाव,
जीएसटी लागू करने में जल्दबाजी, किसानों की बदहाली और आत्महत्याएं, राजनीतिक बदले
की भावना से सरकारी कार्रवाई और देश की संघीय व्यवस्था पर प्रहार. गोरक्षा के नाम
पर हत्याओं और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तथा असहिष्णुता से जुड़े मसले इसके साथ
जुड़े हैं. सम्भावना यह भी है कि अमरनाथ यात्रा पर हुए हमले को केंद्र में रखकर कश्मीर
में अराजकता का मसला भी संसद में उठे.
कांग्रेस
और तृणमूल कांग्रेस चाहते हैं कि जीएसटी के सहारे सरकार-विरोधी माहौल को गरम रखा
जाए. सरकार भी मानती है कि जीएसटी के कार्यान्वयन में खामियाँ अभी कम से कम एक साल
तक नजर आएंगी. इन दिक्कतों का राजनीतिक लाभ उठाने की योजना विरोधी दलों ने तैयार
की है. व्यापारी अपेक्षाकृत संगठित वर्ग है और उसकी आवाज दूर तक जाती है. कांग्रेस
की दिल्ली इकाई ने जीएसटी के विरोध में 18 जुलाई
को संसद के घेराव का पहले से एलान कर रखा है.
संसद
के इस सत्र के दौरान ही वर्तमान राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति का कार्यकाल पूरा
हो जाएगा. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल 25 जुलाई को और उप-राष्ट्रपति
हामिद अंसारी का कार्यकाल 10 अगस्त को खत्म हो रहा है. हालांकि राष्ट्रपति की
संसदीय कर्म में सीधी भूमिका नहीं है, पर उप-राष्ट्रपति की भूमिका राज्यसभा के
संचालन में है. दोनों पदों पर अब बीजेपी समर्थित प्रत्याशियों के जीतकर आने की आशा
है. आने वाले समय की राजनीति के लिहाज से यह परिघटना महत्वपूर्ण साबित होगी.
भारत में राष्ट्रपति पद को राजनीतिक लिहाज से बहुत
महत्वपूर्ण नहीं माना जाता, पर वह केवल ‘रबर स्टांप’ भी नहीं है. खासतौर से जब त्रिशंकु संसद
होने पर राष्ट्रपति की भूमिका बढ़ेगी. सन 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी को पहले
सरकार बनाने का मौका राष्ट्रपति के विवेक के आधार पर ही मिला. जैसा कि अंदेशा था, सन 2014 में त्रिशंकु संसद होती तब शायद
प्रणब मुखर्जी की समझदारी की होती. ऐसा हुआ नहीं, पर 2019 के चुनाव परिणामों के
बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता. राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी की जीत उसे एक
पायदान आगे कर देती है.
प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के वरिष्ठतम नेताओं में से एक
थे. वे चाहते तो पिछले तीन साल में मोदी सरकार को असमंजस में डाल सकते थे, पर उन्होंने
कोई ऐसा फैसला नहीं किया, जिससे उन्हें
विवादास्पद कहा जाए. उनकी सहृदयता के कारण ही हाल में नरेंद्र मोदी ने उन्हें
कृतज्ञता में पिता-तुल्य माना. हाल में राष्ट्रपति भवन में हुए एक पुस्तक-विमोचन समारोह में नरेंद्र
मोदी ने कहा, ‘जब
मैं दिल्ली आया, तो
मुझे गाइड करने के लिए मेरे पास प्रणब दा मौजूद थे. मेरे जीवन का बहुत बड़ा
सौभाग्य रहा कि मुझे प्रणब दा की उँगली पकड़ कर दिल्ली की जिंदगी में खुद को
स्थापित करने का मौका मिला.’
मोदी
की बातों से लगता है कि प्रणब मुखर्जी ने कई मौकों पर उन्हें रास्ता दिखाया. प्रणब
मुखर्जी चाहते तो नरेंद्र मोदी की परेशानियाँ बढ़ा सकते थे. मसलन भूमि अधिग्रहण
अध्यादेश को बार-बार जारी करने पर वे कुछ देर के लिए ही सही हाथ खींच सकते थे.
उत्तराखंड और अरुणाचल में राष्ट्रपति शासन लागू करने के मौकों पर वे कई तरह की
आपत्तियाँ दर्ज करा सकते थे. जब असहिष्णुता को लेकर ‘पुरस्कार वापसी’ का दौर चल
रहा था, उन्होंने कहा, ‘राष्ट्रीय पुरस्कारों का सम्मान किया जाना चाहिए और उन्हें संरक्षण
देना चाहिए.’ एक तरह से यह पुरस्कार वापसी के समर्थकों की भर्त्सना ही थी. इसी तरह
संसद में शोर मचाने वाले विपक्ष की भी उन्होंने खबर ली. उन्होंने कहा, लोकतंत्र की हमारी संस्थाएं दबाव में
हैं. संसद परिचर्चा के बजाय टकराव के अखाड़े में बदल चुकी है. यह बात उन्होंने तब
कही, जब
कांग्रेस पार्टी संसद में आक्रामक हो रही है.
पिछले 67 साल में देश की संसदीय व्यवस्था में कई तरह के
मोड़ आए हैं और भविष्य में भी आएंगे. बेशक राष्ट्रपति की भूमिका टकराव की नहीं है,
सन 1951 में हिन्दू कोड बिल को लेकर डॉ राजेन्द्र प्रसाद और जवाहर लाल नेहरू के
बीच पत्राचार हुआ था. वह पहला मौका था, जब राष्ट्रपति
के अधिकारों को लेकर सवाल उठाया गया था. अंततः सहमति इस बात पर हुई कि राष्ट्रपति
और सरकार के बीच अंतर दिखाई नहीं पड़ना चाहिए. प्रधानमंत्री राजीव गांधी और
तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के बीच सन 1985 में इतनी कटुता पैदा हो गई थी
कि ज्ञानी जी सरकार को बर्खास्त करने पर विचार करने लगे थे.
राष्ट्रपति
पद के चुनाव के कुछ समय बाद 5 अगस्त को उप-राष्ट्रपति पद का चुनाव भी होना है. कल
यानी 18 जुलाई को इस पद के लिए नामांकन होना है. उसका मतदाता मंडल छोटा होता है, पर इस पद के लिए संसदीय कर्म का अनुभव बड़ी
शर्त है. उप-राष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं. उन्हें सदन का संचालन
करना होता है. भाजपा राज्यसभा में अभी कमजोर है. वह किसी ऐसे व्यक्ति को इस पद पर
लाना चाहेगी, जो संसदीय कर्म में अनुभवी हो और
राजनीतिक दृष्टि से परिपक्व भी. इस लिहाज से यह हफ़्ता काफी महत्वपूर्ण है.
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