हिंदू में केशव का कार्टून |
इधर जवाहर लाल नेहरू की 125वीं जयंती के सहारे कांग्रेस ने जरूर धर्म निरपेक्ष छतरी के रूप में अपनी बैनर भी ऊँचा कर दिया है। सवाल है कि धर्म निरपेक्षता की ध्वजवाहक कांग्रेस को माना जाए या जनता परिवार से जुड़ी उन पार्टियों को जो गाहे-बगाहे एक साथ आती हैं और फिर अलग हो जाती हैं? पर जैसा कि जनता परिवार के कुछ नेता कह रहे हैं कि इस मुहिम का मोदी और भाजपा से कुछ भी लेना-देना नहीं है। हम तो नई राजनीति की शुरूआत करना चाहते हैं, तब सवाल पैदा होगा कि इस नई राजनीति में नया क्या है? मुलायम सिंह यादव और लालू यादव की राजनीति के मुकाबले नीतीश कुमार की राजनीति में नई बात विकास और सुशासन वगैरह की थी, पर वह नारा तो भाजपा के साथ गया। क्या वह अब भी नीतीश कुमार का नारा है?
इस नई राजनीति की झलक उत्तर प्रदेश और बिहार में हुए उप चुनावों में देखी जा चुकी है, जिसका सीधा मतलब है मझोली जातियों के सामाजिक आधार की राजनीति। इन जातियों का नेतृत्व बँटा होने के कारण वोट बँट जाता है, जिसे रोका जाना चाहिए। इस नई राजनीति का गणित इतना ही है, तब उसके दीर्घकालीन होने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। आखिर इनके बँटने के कारण भी तो कहीं होंगे। बहरहाल उधर लोकसभा चुनाव में मिली पराजय से उबर रही कांग्रेस की कोशिश नेहरू के बहाने गैर भाजपा दलों के केंद्र के रूप में खड़े होने की है। नेहरू को लेकर दिल्ली में 17, 18 नवंबर के अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में गैर राजग दलों को बुलाकर कांग्रेस ने अपनी इस पहल के राजनीतिक निहितार्थ को प्रकट कर भी दिया है। सवाल है कि क्या बिखरा हुआ जनता कुनबा नेहरू के झंडे तले आने को तैयार होगा? बिहार में कांग्रेस ने लालू और नीतीश के साथ मेल-मिलाप करके भी देखा है। पर क्या वह पूरे देश में कर पाएगी?
फिलहाल कांग्रेस की मंशा भी भाजपा के खिलाफ विपक्ष की एकता को बिखरने से रोकने की है। किसी दूसरे धर्मनिरपेक्ष मोर्चे का बनना उसके हित में भी नहीं है। एक जमाने में गैर कांग्रेसवाद के नाम पर एक हुए जनता परिवार को भाजपा के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश में जुटे समाजवादी नेताओं के लिए कांग्रेस के पीछे खड़ा होना भी आत्मघात जैसा होगा। इसी वजह से बीजू जनता दल ने शुरू से ही हाथ खींच रखे हैं। दिल्ली में मुलायम सिंह के घर पर जनता परिवार की बैठक में नीतीश कुमार ने संसद के आगामी सत्र के लिए अलग रणनीति तय करने की बात कहकर कांग्रेस के साथ गठजोड़ की सम्भावना को खुला रखा था। पर केंद्र सरकार के साथ रिश्ते बनाए रखने की खातिर मुलायम सिंह यादव अपने ही मित्रों के बीच अविश्वसनीय हैं। यूपीए के पास कोई जड़ी तो जरूर थी जो सपा और बसपा दोनों ने उसका समर्थन किया।
बहरहाल दिल्ली की बैठक के बाद नीतीश ने कहा कि हम संसद में एक संयुक्त मोर्चे का गठन करेंगे। कई मुद्दों पर हमारे विचार समान हैं और समान विचारधारा वाली पार्टियों को हम एकजुट करेंगे। वाम दलों को बैठक में नहीं बुलाया गया था, पर नीतीश ने वाम दलों से बातचीत की संभावना से इंकार नहीं किया। यानी कुल मिलाकर यह बात उस तीसरे मोर्चे की लाइन पर ही है, जो पिछले तीन दशक से भारतीय राजनीति में उपस्थित तो है पर कायदे से बन नहीं पा रहा है।
कांग्रेस का विकल्प?
तमाम पेचो-खम के बावजूद यह पहल व्यावहारिक और प्रभावशाली हो सकती है, तब जब यह कांग्रेस के पराभव के बाद उसकी जगह को भरने की कोशिश के रूप में सामने आए। फिलहाल भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय राजनीति को एक-ध्रुवीय बना दिया है। उसके गठबंधन सहयोगी भी बौने हो रहे हैं। ऐसे में क्षेत्रीय राजनीति को भी मंच की तलाश है। जनता परिवार से जुड़ी पार्टियाँ क्षेत्रीय आकांक्षाओं को व्यक्त करतीं हैं। पर यह काम तभी सम्भव होगा जब ये पार्टियाँ कुछ सिद्धांतों पर सहमत हों। अनुभव यह रहा है कि मुलायम सिंह, लालू यादव और नीतीश कुमार अपने-अपने हितों को पूरा करने के चक्कर में एकता को भूल जाते हैं। सवाल यह है कि लालू, मुलायम, नीतीश पर केंद्रित यह पहल क्षेत्रीय राजनीति को मजबूत करने के वास्ते है भी या नहीं? इसे केवल अस्तित्व रक्षा तक सीमित क्यों न माना जाए?
शाब्दिक बाजीगरी और जनता को पसंद आने वाले मुहावरों के मामले में लालू लाजवाब हैं। वे जमीन से जुड़े राजनेता हैं। इसी तरह राजनीति को चुनाव जीतने की कला माना जाए तो मुलायम सिंह यादव सफल राजनेता हैं। पर समय बदल रहा है। इन राजनेताओं के समर्थक भी प्रशासनिक कौशल और गवर्नेंस चाहते हैं। भारतीय राजनीति में वोटर के दबाव का नया दौर शुरू हो रहा है। ऐसा नहीं कि भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी को वोट देने वाला मतदाता हमेशा उनका साथ देगा। उसे भी विकल्प की तलाश रहेगी। पर वह परम्परागत राजनीतिक जमावड़ों में विकल्प खोजेगा, इसमें संदेह है। सवाल है कि लालू, मुलायम, नीतीश की त्रिमूर्ति क्या क्षेत्रीय राजनीति को नया रूप देने वाले हैं? सवाल उनकी साख का है।
पिता-पुत्र पार्टियाँ
जनता परिवार से जुड़ी ज्यादातर मुहिम बेंगलुरु या हैदराबाद से शुरू होती रहीं हैं। पर इस बार उत्तर प्रदेश और बिहार ने पहल की है। इस कोशिश में एचडी देवेगौडा भी शामिल हैं, पर केवल इतने भर से इसे राष्ट्रीय पहल कहना जल्दबाज़ी होगी। एक प्रस्ताव इन पार्टियों के एकीकरण से जुड़ा है। दिल्ली में हुई बैठक का एजेंडा लोकसभा चुनावों के पहले किए गए एकता-प्रयासों से अलग था। यानी कि इस बार एक गठबंधन या मोर्चे को बनाने की कामना भर नहीं थी, बल्कि एक नए एकीकृत दल के गठन का प्रस्ताव भी था। हालांकि इस प्रस्ताव पर आम सहमति नहीं है, पर इससे जुड़े व्यवहारिक सवाल जरूर खड़े हैं। अस्सी के दशक के मुकाबले आज परिस्थितियाँ काफी बदली हुईं हैं। जेडीयू को छोड़ दें तो जनता परिवार से जुड़ी ज्यादातर पार्टियाँ पिता-पुत्र पार्टियाँ बन चुकी हैं। जनता परिवार की परिभाषा में ‘परिवार’ का रंग ज्यादा गहरा रच चुका है।
इन सभी संगठनों के बनने-बिगड़ने और टूटने की लम्बी कहानियाँ इतिहास में दर्ज है। इनके टूटने की नौबत ही क्यों आई? एक-जुट होकर काम करने की इनकी साख का सवाल भी है। यह स्पष्ट नहीं है कि ये पार्टियाँ किसी बड़े राजनीतिक एजेंडा को लेकर जनता के सामने जाना चाहती हैं या अपने सफाए को टालने के फेर में हैं। इनके पीछे की असली ताकतें उत्तर प्रदेश और बिहार से वास्ता रखती हैं, जहाँ हाल में हुए उप चुनावों में जनता परिवार की एकता ने सफलता का रास्ता साफ किया। इस एकता का आयाम कितना बड़ा है, यह भी अभी स्पष्ट नहीं है। उड़ीसा के बीजू जनता दल ने इसमें खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है। टीडीपी फिलहाल एनडीए में है। बहरहाल इस कोशिश का वामपंथी दलों ने समर्थन किया है। इसके कारण ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को अपनी और खींच पाने में भी दिक्कतें हैं। राष्ट्रपति चुनाव में ममता बनर्जी और मुलायम सिंह यादव के अंतर्विरोध स्पष्ट हो गए थे।
क्या वामपंथी शामिल होंगे?
यह भी कहा जा रहा है कि यह तीसरे मोर्चे की ही पहल है। अंततः इसमें वामपंथी दल भी आ जाएंगे। अभी उन्हें इसलिए अलग रखा है ताकि ममता बनर्जी को आने में दिक्कत न हो। यह बात बचकाना लगती है। न तो ममता बनर्जी और न वामपंथी इतने नासमझ हैं कि बातों का मतलब न समझें। पर उसके पहले समझना यह होगा कि ‘जनता परिवार’ माने क्या। जनता परिवार से जुड़ी सभी ताकतें क्या इस बैठक में शामिल थीं? देश में पहली गैर-कांग्रेस सरकार सन 1977 में जनता परिवार की सरकार ही थी। जनसंघ भी उसका हिस्सा थी। जनसंघ ही उसका पहला अंतर्विरोध था। सन 1989 की दूसरी सरकार को भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टी दोनों का समर्थन हासिल था। सन 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद जनता परिवार की राजनीति में साम्प्रदायिकता का विरोध एक महत्वपूर्ण कारक बन गया। इसीलिए 1996 और 1997 में गैर-भाजपा सरकार बनाने में उन्होंने कांग्रेस का बाहरी समर्थन लेना मंजूर किया। तब से 2014 के लोकसभा चुनाव तक ‘जनता परिवार’ की राजनीति कांग्रेस के साथ आँख-मिचौनी खेलती रही। चुनाव के ठीक पहले एक नई राजनीतिक अभिव्यक्ति के रूप में ‘भाजपा विरोधी मोर्चा’ भी खड़ा किया गया। वह मोर्चा सफल नहीं हुआ, पर यह राजनीति उसी दिशा की और है। देश की मुख्यधारा की पार्टी के रूप में कांग्रेस की जगह भाजपा ने जगह बनानी शुरू कर दी है।
तीसरे मोर्चे की सम्भावना जब भी बनी, मुलायम सिंह यादव और वाम मोर्चा उसके पीछे नजर आए हैं। इन दोनों की कांग्रेस को लेकर जो अवधारणाएं हैं, उनमें भी अंतर्विरोध हैं। सीपीएम में इन दिनों प्रकाश करत और सीताराम येचुरी के बीच असहमति उसी अंतर्विरोध की ओर इशारा कर रही है। सन 2004 में यूपीए सरकार को बनाने में वाम मोर्चा का समर्थन सबसे अहम था। उसी दौरान युनाइटेड नेशनल प्रोग्रेसिव अलायंस नाम से गठबंधन बना जो न्यूक्लियर डील की राजनीति आते-आते तबाह हो गया। वाम मोर्चा का यूपीए को मिला समर्थन पाँच साल भी नहीं चला। सन 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले वाम मोर्चे ने बसपा, बीजद, तेदेपा, अद्रमुक, जेडीएस, हजकां, पीएमके और एमडीएमके के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील मोर्चा बनाया, पर उसका परिणाम अच्छा नहीं रहा।
यूपी-बिहार का संकट
क्या यह यूपी-बिहार के संकट के कारण उपजी एकता है? ऐसा है तो जनता-राजनीति का इसे अंतिम अध्याय मान लीजिए। यह राजनीति देश की वास्तविकताओं को देख नहीं पा रही है। इसमें दो राय नहीं कि उत्तर प्रदेश और बिहार में जनता परिवार का सामाजिक आधार है, पर वह किसी एक दल की शक्ल ले पाएगा, यह कहना मुश्किल है। भविष्य की राजनीति अनिवार्य रूप से जाति केंद्रित नहीं होगी। चूंकि राजनीतिक संरचनाएं जातीय क्षत्रपों के इर्द-गिर्द स्थापित हुईं हैं इसलिए उनके पाला बदलते ही स्थितियाँ बदल जाती हैं। विधान सभा उप चुनावों में बिहार और उत्तर प्रदेश का अनुभव पूरी तरह एक सा नहीं रहा। बिहार में राजद, जेडीयू और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा। वहीं उत्तर प्रदेश में बसपा ने चुनाव न लड़ने का निश्चय किया। पर 2017 के विधानसभा चुनाव में यह स्थिति नहीं होगी। लालू यादव और नीतीश कुमार के साथ आ जाने से भी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की स्थिति में कोई बड़ा गुणात्मक अंतर नहीं आने वाला। यही बात बिहार के बारे में कही जा सकती है। बिहार के 2015 के चुनाव के पहले इस साल के झारखंड के चुनाव में इस एकता की झलक देखने को मिलेगी।
अभी तो नेतृत्व का झगड़ा खड़ा होगा। क्या इस प्रकार के जमावड़े को एक दल के रूप में संगठित किया जा सकता है? इसका नेतृत्व किसके हाथों में रहेगा? क्या ऐसे संगठन को लोकतांत्रिक तरीके से संचालित किया जा सकेगा? क्या यह केवल भाजपा के बढ़ते विजय रथ के मुकाबले खड़ा होने की कोशिश है या किसी बड़ी राजनीति का संकेत है? ऐसे सवालों का जवाब देने की कोशिश करें तो बातें साफ होती जाएंगी। जनता परिवार से जुड़े राजनेताओं को अतीत में सरकारें बनाने और चलाने के मौके मिले हैं। पर वे विफल रहे। व्यक्तिगत टकराव के कारण ये एक-साथ काम नहीं कर पाए। सम्भव है फौरी तौर पर किसी को नेता बनाकर यह संगठन बन जाए, पर चुनाव आते ही टकराव सामने आएंगे। ये पार्टियाँ चुनाव-केंद्रित पार्टियाँ हैं और सत्ता के शेयर पर जीवित रहती हैं। इनकी समझ में कोई बुनियादी बदलाव दिखाई दे तभी कुछ कहना बेहतर होगा।
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