काले धन का मसला राजनीति नहीं गवर्नेंस से जुड़ा है। भारतीय
जनता पार्टी ने इसे चुनाव का मसला बनाया था, पर अब उसे इस मामले में प्रशासनिक कौशल
का परिचय देना होगा। सवाल केवल काले धन का पता लगाने और उसे वापस लाने का नहीं है,
बल्कि बुनियाद पर प्रहार करने का है। काला धन जन्म क्यों लेता है और इस चक्र को
किस तरह रोका जाए? कुछ लोगों का अनुमान है कि भारत में काले धन की व्यवस्था सकल राष्ट्रीय
उत्पाद की 60 से 65 फीसदी है। यानी लगभग 60 से 65 लाख करोड़ रुपए के कारोबार का
हिसाब-किताब नहीं है। इससे एक ओर सरकारी राजस्व को घाटा होता है दूसरे
मुद्रास्फीति बढ़ती है। पर इसे रोकने के लिए आप क्या करते हैं?
सामान्य नागरिक के रूप में क्या आपके सामने ऐसे मौके नहीं
आए हैं जब किसी जेवर विक्रेता ने आपसे कहा हो कि रसीद लेने पर इस अँगूठी की कीमत
इतनी होगी और रसीद न लेने पर इतनी होगी। क्या यह सच नहीं है कि मकानों की
खरीद-फरोख्त में काफी बड़ी रकम काले धन के रूप में होती है? हम निवेश के रूप सोना खरीदना पसंद करते
हैं, जो प्रायः नकद और बगैर पक्की रसीद के खरीदा-बेचा जाता है। क्या यह सच नहीं है
कि लगभग सारे के सारे राजनीतिक दल कॉरपोरेट हाउसों से चंदा नकदी में लेते हैं? सारी घूसखोरी इसी नकदी से होती है। और क्या यह सच नहीं है कि चुनाव के
वक्त लगभग सभी राजनीतिक दलों का ज्यादातर खर्च काले पैसे से होता है?
अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद इसी काले धन की मदद से चलता है। अपहरण-फिरौती,
गुंडा-टैक्स और डाकाजनी का सीधा रिश्ता इससे है। काला धन व्यवस्था की अकुशलता का
परिचायक है। अर्थ-व्यवस्था का काफी बड़ा हिस्सा बैंकिग प्रणाली के बाहर है। निवेश
करने वालों का सिस्टम पर नहीं सोने पर विश्वास है। सोने पर निवेश सुरक्षित होगा,
पर वह राष्ट्रीय निर्माण में मददगार नहीं होता। खनन क्षेत्र में भी काला कारोबार
होता है। कर्नाटक और गोवा के घोटालों से पता चला है कि खनिजों का काफी खेल बिना
हिसाब किताब के होता है। खेती की अर्थ-व्यवस्था का काफी कारोबार बगैर औपचारिक हिसाब-किताब के होता है।
काले धन की व्यवस्था का मतलब यह नहीं कि दुनिया को केवल
अपराधी चलाते हैं। सच यह है कि हम व्यवस्था के अंदर काम करने के आदी नहीं हैं।
काला पैसा माने व्यवस्था की अनुपस्थिति। चूंकि हम दिनों-दिन वैश्विक रूप लेती
व्यवस्था में प्रवेश करते जा रहे हैं इसलिए इसे वैश्विक आधार पर ही समझना होगा। दुनिया
अब इस मामले में पहले से ज्यादा जागरूक हो रही है। व्यापार की सीमाएं वैश्विक होते
जाने से वैध और अवैध तरीकों का द्वंद्व बढ़ रहा है। इस हफ्ते भारत सरकार ने जिस
रोज एचएसबीसी बैंक, जिनीवा में 627 भारतीयों खातेदारों के नामों की सूची सुप्रीम
कोर्ट को सौंपी उसके अगले रोज़ ही बर्लिन में मल्टीलेटरल कॉम्पीटेंट अथॉरिटी से
सम्बद्ध उस समझौते से हाथ खींच लिए, जो कर-दाताओं की विदेशी सम्पदा के बारे में
स्वतः जानकारी देने के लिए बनाई जा रही है। इस समझौते पर 65 देशों ने दस्तखत किए
हैं और भारत ने इसी महीने ब्रिसबेन में होने वाले ग्रुप-20 देशों के शिखर सम्मेलन
में इसके समर्थन का निश्चय किया है।
काले धन के मसले को हमें राजनीतिक धरातल से ऊपर लेकर जाना
होगा। भारत की दुविधा यह थी कि वह इस समझौते के गोपनीयता उपबंध का पालन कर पाएगा
या नहीं। भारत के सामने अभी स्विट्ज़रलैंड और अमेरिका के साथ टैक्स कम्प्लायंस के
समझौते पड़े हैं। अमेरिका के साथ समझौते पर 31 दिसम्बर तक दस्तखत करने हैं नहीं तो
भारतीय नागरिक अपनी जो कमाई भारत भेजते हैं उसपर टैक्स लगने लगेगा। वैश्विक
समझौतों और तकनीक के बेहतर इस्तेमाल से हम इसे नियंत्रित कर सकेंगे, पर उसमें समय
लगेगा।
काला धन पिछले चुनाव का बड़ा मुद्दा था। पिछले पाँच साल से
भारतीय जनता पार्टी ने इस मसले को जोरदार तरीके से उठाया। स्वाभाविक रूप से उसपर
दबाव है। पर मामला केवल विदेशी बैंकों में रखे काले धन का नहीं है, बल्कि देश के
भीतर बढ़ती जा रही समांतर अर्थ-व्यवस्था का है। सीबीआई के एक पूर्व निदेशक ने विदेशी
बैंकों में 500 अरब डॉलर के काले धन का अनुमान लगाया था। भारतीय जनता पार्टी की सन
2011 की एक रिपोर्ट में 500 अरब से 1400 अरब डॉलर के बीच का अनुमान था। वॉशिंगटन
स्थित गैर-लाभकारी शोध संस्था और एडवोकेसी संगठन ‘ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रिटी’ का अनुमान है कि सन 1948 से 2008 के बीच भारत से 462 अरब डॉलर के आसपास
पूँजी गैर-कानूनी तरीके से बाहर गई। एक समय तक हमारी आयकर व्यवस्था इतनी
अव्यावहारिक थी कि टैक्स चोरी आम बात बन गई थी।
ज्यादा बड़ा सवाल देश के भीतर बैठे काले धन का है। वही काला
धन बाहर जाता है और फिर किसी न किसी रूप में देश में आता है। जिसे हम एफडीआई कहते
हैं अक्सर उसमें भी स्वदेशी काला धन मिला होता है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस
एंड पॉलिसी, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फाइनेंशियल मैनेजमेंट, और नेशनल काउंसिल ऑफ
अप्लाएड इकोनॉमिक रिसर्च को देश में मौजूद काले धन के बारे में अनुमान लगाने की
जिम्मेदारी सौंपी गई थी। तीनों ने अलग-अलग आकलन दिए हैं। अलबत्ता विश्व बैंक के
शोध समूह के मुताबिक भारत में काले धन का जाल दूसरे विकासशील देशों के मुकाबले कम
खतरनाक है। स्विस अर्थशास्त्री फ्रेडरिक श्नाइडर के नेतृत्व में किए गए अध्ययन ‘शैडो इकोनॉमीज ऑल ओवर द वर्ल्ड : न्यू एस्टीमेट फॉर 162 कंट्रीज फ्रॉम 1999 टू 2007’ के अनुसार भारत में काले कारोबार का औसत सकल उत्पाद का 23
से 26 फीसदी है जबकि पूरे एशिया में यह 28 से 30 फीसदी है। अफ्रीका और लैटिन
अमेरिका में यह 41-44 फीसदी है।
बैंक ऑफ अमेरिका मेरिल लिंच की एक रपट में इसी हफ्ते जारी
की गई रपट में कहा गया है कि स्विस बैंकों में भारतीयों की जमा राशि दो अरब डॉलर
से 2000 अरब डॉलर के बीच हो सकती है। एक मोटा अनुमान है कि देश को तकरीबन 100 अरब
डॉलर के आसपास काले धन का पता लग जाए और इसपर 30-35 फीसदी की दर से टैक्स लगाया
जाए तो इससे देश के राजस्व में 30-35 अरब डॉलर का इज़ाफा होगा। सवाल है कि क्या
ऐसा सम्भव है? इन
दिनों सोशल मीडिया काले धन को लेकर चीत्कार कर रहा है। शायद लोगों के पास 627 से
दुगने नामों की सूची है। जागरूकता अच्छी बात है, पर ज्यादा जरूरी है व्यवस्था को
समझना और अपने आचरण को सुधारना। सामाजिक कल्याण के तमाम कार्यक्रम तभी चल सकेंगे
जब हम काले धन को काबू में करेंगे।
काले धन के निर्माण में हमारा खुद का भी बहुत योगदान है, सरकार के अपर्याप्त कानून,शासक दल की ऐसे क़ानून न बनाने की मनोवृति इसके जिम्मेदार है , अगर यह सब न हो तो विदेशों में यह धन जमा होने की नौबत ही न आये. बाकि अब इन विदेशी खातों में अब कुछ नहीं मिलना है, यह तय शुदा है. अब तक इतने वर्षों में हंगामे के बाद ये खाते कहीं के कहीं पहुँच गए या अब इनकी रकम निकाल कर दूसरी जगह जमा करा दी गयी है , कितने कहते तो बेनामी हैं , तो कुछ उसे अपना मानने से इंकार कर देंगे इस कवायद पर तो नाहक ही पैसा व मानव श्रम शक्ति. व्यय हो रही है और होगी। जिन लोगों के खाते दूसरे देशों के बैंकों में हैं वे इतने नासमझ तो नहीं है। जनता को इस से कुछ ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए
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