दिल्ली के प्रगति मैदान
में साल भर कोई न कोई नुमाइश लगी रहती है, पर दिल्ली वाले ट्रेड फेयर और पुस्तक मेले का इंतज़ार करते हैं। आमतौर पर
ट्रेड फेयर में शनिवार और रविवार को जबर्दस्त भीड़ टूटती है। इस साल बुधवार से ही
जनता टूट पड़ी है। पहले रोज ही 80 हजार से ज्यादा लोग जा
पहुँचे। मेले में इस साल दर्शकों की संख्या 20 लाख से कहीं ज्यादा हो तो आश्चर्य नहीं होगा। इसकी वजह उपभोक्ताओं की संख्या
और दूसरे देशों के उत्पादों में दिलचस्पी का बढ़ना है। चीन के उत्पादों की तलाश
में भीड़ पहुंची, जहाँ उन्हें निराशा हाथ
लगी। पर पाकिस्तानी स्टॉल जाकर संतोष मिला, जहाँ महिलाओं के डिज़ाइनर परिधान आए
हैं। इस साल थाई परिधानों, केश सज्जा, रत्न-जेवरात वगैरह पर फोकस है।
ट्रेड फेयर उत्पादक, व्यापारी, ग्राहक और उपभोक्ता को आमने-सामने लाता है। बड़ी संख्या में नौजवानों को अपना
कारोबार शुरू करने के विकल्प भी उपलब्ध कराता है। तकनीकी नवोन्मेष या इनोवेशन की
कहानी सुनाता है, जो किसी समाज की समृद्धि
का बुनियादी आधार होती है। ये मेले हमें कुछ नया करने और दुनिया के बाजार में जगह
बनाने का हौसला देते हैं। पर क्या हम इसके इस पहलू को देखते हैं? हमारी समझ में यह विशाल पैंठ या नुमाइश है, जिसकी पृष्ठभूमि वैश्विक है। इंटीग्रेटेड बिग बाज़ार।
जिस रोज ट्रेड फेयर आम
जनता के लिए खुला उसी रोज फेसबुक पर युवा पत्रकार दिलनवाज़ पाशा की एक पोस्ट पढ़ने
को मिली। उन्होंने लिखा, “अरविंद उत्तर प्रदेश के
बदायूँ से है। कनॉट प्लेस पर चाय बेचता है...अपनी कमाई में से रोजाना बीस, तीस और कभी पचास रुपए 'कमेटी वालों' तक पहुँचाता है। फिर भी कमेटी वाले जब चाहें उसकी चाय फेंक देते हैं और केतली
जब्त कर लेते हैं। कई सौ रुपए की चाय के साथ साढ़े चार सौ की केतली भी चली जाती
है। ...वो फिर केतली ख़रीदता है, चाय बेचता है और अपनी
गाढ़ी मेहनत की कमाई में से नियमित रूप से पैसा 'एक दलाल' के ज़रिए कमेटी तक
पहुँचाता है। पिछले सोमवार को उसकी केतली छीनी गई थी और इस मंगलवार को उसके भाई
की। वो मजबूरी में शिक्षा से दूर है और इस कमी को पूरा करने के लिए प्राइवेट
फ़ार्म भी भर दिया है और इस बार दसवीं के इम्तहान देगा।”
ट्रेड फेयर और अरविंद की
केतलियों में क्या आपको कोई रिश्ता नज़र आता है? अरविंद एक कारोबारी
है। बेहद छोटा, पर कारोबारी तो है। वह
अपने ग्राहकों की सेवा करता है, उसके पास ट्रेड फेयर में
स्टॉल लगाने का दम नहीं है। पर उसे भी कारोबार का हक है। उसके जैसे छोटे उद्यमी
प्रगति मैदान के बाहर चाट, फल और पकौड़ी के ठेले
लगाते हैं। धंधे को चलाए रखने के लिए वे कमेटियों, गुंडों-लफंगों और पुलिस वालों
तक को हफ़्ता देते हैं। पिछली यूपीए सरकार ने लोकपाल कानून पास करने की हड़बड़ी
में स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट भी पास किया था। यह कानून 1 मई 2014 से लागू हो गया है। क्या यह कानून अरविंद को या उसके जैसे रेहड़ी, ठेला, खोमचा लगाने वालों को संरक्षण देता है?
अभिजित बनर्जी और एस्थर
ड्यूफ्लो की पुस्तक ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ में गरीबों की दशा सुधारने के बाबत उनकी
उद्यमिता के बारे में एक अध्याय है। दुनिया के ज्यादातर देशों में छोटे उद्यमियों
की संख्या सबसे बड़ी होती है। व्यापारियों को सुविधाएं देने के मामले में भारत दुनिया
के फिसड्डी देशों में है। सोशल मीडिया पर जाएं तो आपको बाजार को कोसते लोग दिखाई
पड़ेंगे। उनकी नजर में सारा दोष बाजार का है। बात पूरी तरह गलत नहीं है। हारवर्ड
के अर्थशास्त्री माइकेल सैंडेल ने अपनी किताब ‘ह्वाट मनी कांट बाय’ में बाजार की
नैतिक सीमाओं का सवाल उठाते हुए कुछ रोचक उदाहरण दिए हैं। बाजार के जबर्दस्त
अंतर्विरोध हैं, पर यहां इरादा उनके बजाय
बाजार की मदद से अपने समाज और गरीबी को दूर करने में उसकी भूमिका को समझना है।
ट्रेड फेयर और पुस्तक
मेले महज पिकनिक नहीं होते। बल्कि उद्यमिता और नवोन्मेष को बढ़ावा देते हैं। यही
प्रगति है। इसलिए अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो पर वापस आते हैं। उन्होंने लिखा, ‘कई साल पहले एक हवाई यात्रा में हमारे
बराबर बैठे एक बिजनेसमैन ने बताया कि 1970 के दशक-मध्य में अमेरिका में एमबीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद जब वह भारत
वापस आए तो उनके अंकल वास्तविक उद्यमिता का पाठ पढ़ाने के लिए उन्हें घर से बाहर
ले गए।…अंकल चाहते थे कि सड़क के साइडवॉक पर बैठी चार स्त्रियों को गौर से देखूँ।
वे स्त्रियाँ कुछ कर नहीं रही थीं। अलबत्ता बीच-बीच में जब ट्रैफिक रुकता वे उठकर
जातीं और सड़क से कोई चीज़ खुरचकर उठातीं और अपने पास रखे प्लास्टिक बैग में रखकर
फिर अपनी जगह बैठ जातीं। ऐसा कई बार होने पर अंकल ने पूछा, इनका बिजनेस मॉडल समझ में आया? अंकल ने समझाया, भोर होने से पहले ये स्त्रियाँ समुद्र किनारे जाकर गीली समुद्री रेत उठाती
हैं। सड़क पर ट्रैफिक शुरू होने के पहले वे इस रेत को समान रूप से बिछा देती हैं।
जब कारें इसके ऊपर से गुजरती हैं तो रेत उनके पहियों की गर्मी से सूख जाती है। वे
बीच-बीच में सूखी हुई रेत की परत खुरच कर अपने बैग में रखती जाती हैं। नौ-दस बजे
तक उनके पास काफी रेत हो जाती है। इसे वे पुराने अखबारों के लिफाफों में रखकर
बेचती हैं। स्थानीय गृहणियों को बर्तन माँजने के लिए इसकी ज़रूरत होती है।’
आपने दिल्ली में देखा
होगा उन महिलाओं और बच्चों को जो एक डंडे के आगे चुम्बक लगाकर कूड़े में से लोहे
के टुकड़े बटोरते हैं। यह भी उद्यमिता है। दुनिया की सबसे बड़ी माइक्रोफाइनेंस
कम्पनियों में से एक एफआईएनसीए (फिनका) के सीईओ जॉन हैच के शब्दों में, “गरीब समुदायों को अवसर दीजिए और उनके
रास्ते से हट जाइए।” पर हम अवसर देने की बात छोड़ उनकी केतलियाँ छीन लेते हैं। विश्व
प्रसिद्ध ग्रामीण बैंक के संस्थापक मोहम्मद युनुस अक्सर गरीबों को स्वाभाविक
उद्यमी कहते हैं। मार्केट गुरु स्वर्गीय सीके प्रह्लाद कारोबारियों से कहते थे कि
वे ‘बॉटम ऑफ पिरैमिड’ पर फोकस करें।
दो खास कारणों से गरीबों
को मिलने वाला अवसर विलक्षण साबित होगा। एक तो यह कि उन्हें कभी अवसर दिया नहीं
गया। उनके विचार नए होंगे और पहले परखे नहीं गए होंगे। दूसरे आमतौर पर बाजार ने
अभी तक पिरैमिड की तली की उपेक्षा की है। गरीबों के उद्यमी बनने के खिलाफ कमेटी
वाला, पुलिस वाला, हफ़्ता वसूलने वाला वगैरह तमाम लोग हैं। दिल्ली में व्यवस्था भीख मँगवाने के
संगठित कारोबार को चलने देती है, पर ईमानदारी से चाय बेचने
पर केतली छीन लेती है। गरीबों की अपनी पूँजी बहुत कम होती है। इंश्योरेंस, बैंकों और सस्ते फायनेंस तक उनकी पहुँच होती ही नहीं।
वे सूदखोरों से 4 फीसदी प्रति माह या इससे
ज्यादा के ब्याज पर उधार लेते हैं। बिजनेस के दूसरे जोखिमों का खतरा हमेशा उनपर
रहता है। बावजूद इसके वे अमीर उद्यमियों की तरह बिजनेस में उतरते हैं तो इसका मतलब
यही है कि उनके भीतर उद्यम-भावना है। चमत्कार यह कि वे बेहद ऊँची दरों पर ब्याज
देकर भी कर्ज चुकाने लायक पैसा बचा लेते हैं। वे बहुत कम डिफॉल्ट करते हैं। मतलब
यह कि वे निवेश किए गए प्रति रुपए पर ज्यादा कमाई करते हैं। अन्यथा वे उधार न
लेते। इसका मतलब है कि उनके कारोबार में लगाए गए कैश का रिटर्न विलक्षण रूप से
ऊँचा है। एक साल में पचास फीसदी वे ब्याज देते हैं, जो शेयर बाजार में लगाए गए आपके पैसे के रिटर्न से
कहीं ज्यादा है।
प्रगति मैदान में
मुजफ्फरनगर की एक कम्पनी बेकरी के उत्पाद यानी बिस्कुट, ब्रेड, बन वगैरह बनाने वाली मशीनरी का प्रदर्शन कर रही है। ऐसा उद्योग पाँच लाख से
बीस पच्चीस लाख तक की पूँजी माँगता है। दिल्ली में रेडियो टैक्सी चलाने वाले इससे
कम के निवेश पर काफी अच्छी कमाई कर लेते हैं। ऑटो और ई-रिक्शा ने भी एक नया रास्ता
खोला है। इलेक्ट्रीशियन, रेफ्रिजरेशन, ऑटोमोबाइल सर्विसिंग, टेलरिंग, कारपेंटरी,
गाँवों में परचूनी की दुकान यानी छोटा रिटेल जैसे तमाम धंधे नौजवानों की उद्यमिता
का फायदा उठा सकते हैं। नरेंद्र मोदी कहते हैं कि हमें हुनर सिखाने पर जोर देना
चाहिए। पर गाँव से आने वाले बड़ी संख्या में नौजवान मानते हैं कि पाँच लाख देकर
पुलिस में सिपाही बनना आसान है। इसमें कई बार धोखा होता है, पर सिपाही बनने के फायदे कितने हैं? घूस देकर
सिपाही बनने वाला हफ़्ता वसूलना अपना अधिकार मान लेता है। पाँच लाख इनवेस्ट किया
है तो उसका रिटर्न भी लेगा। मेहनत की कमाई हमें ईमानदार बनाती है। व्यापार मेले हमारी
उद्यमिता को प्रेरित करेंगे, बशर्ते हम इच्छुक हों।
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