एक
साल पहले 6 नवम्बर दिन अखबारों में मंगलयान के प्रक्षेपण की खबर छपी थी। 5 नवम्बर के उस प्रक्षेपण
के बाद पिछली 24 सितम्बर को जब
भारत के मंगलयान ने जब सफलता हासिल की थी तब पश्चिमी मीडिया ने इस बात को खासतौर
से रेखांकित किया कि भारत और चीन के बीच अब अंतरिक्ष में होड़ शुरू होने वाली है।
ऐसी ही होड़ साठ के दशक में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच चली थी। स्पेस रेस शब्द
तभी गढ़ा गया था, जो अब भारत-चीन
के संदर्भों में इस्तेमाल हो रहा है। भारत के संदर्भ में जब भी बात होती है तो
उसकी तुलना चीन से की जाती है। माना जा रहा है कि इक्कीसवीं सदी इन दोनों देशों की
है।
अंतरिक्ष
कार्यक्रमों के मामले में चीन हमसे कहीं आगे है। उसका बजट भी हमसे कहीं बड़ा है।
हाल में ऑर्गनाइज़ेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) की एक
रिपोर्ट के अनुसार सन 2013 में अमेरिका ने
अंतरिक्ष अनुसंधान पर 40 अरब डॉलर की रकम
लगाई, वहीं चीन ने 11 अरब डॉलर। तीसरे नम्बर
पर रूस था जिसने 8.6 अरब डॉलर का
खर्च किया और चौथा नम्बर भारत का था जिसने 4.3 अरब डॉलर की राशि अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम पर खर्च की।
केवल पैसा ही
सफलता का आधार नहीं है। हाल के दिनों में चीन और भारत की उपलब्धियाँ इस बात को
साबित करती हैं। चीन का अंतरिक्ष कार्यक्रम एक ओर युद्ध-तकनीक से जुड़ा है वहीं वह
असैनिक तकनीक का विकास भी कर रहा है। भारत के मुकाबले चीन के पास ज्यादा भार ले
जाने वाले रॉकेट हैं और उसका अपना स्पेस स्टेशन तैयार हो रहा है। वह अंतरिक्ष में
समानव उड़ान सफलता पूर्वक संचालित कर चुका है और सम्भवतः सन 2020 तक चंद्रमा की सतह पर
अपना यात्री उतार देगा। अंतरिक्ष में उपग्रहों को नष्ट करने की तकनीक का परीक्षण
करके उसने सैनिक इस्तेमाल में महारत भी हासिल कर ली है।
अक्तूबर के अंतिम
सप्ताह में चीन ने अपना मानव रहित यान चंद्रमा की और भेजा था जो पिछले शनिवार 1 नवम्बर को धरती पर
सफलतापूर्वक वापस आ गया। इस तकनीक में महारत हासिल करने के बाद वह रूस और अमेरिका
के बाद विश्व का तीसरा देश बन गया है। इस परीक्षण यान का मकसद चंद्रमा की कक्षा
में जाकर वापस धरती पर लौटने की क्षमता का आकलन करना था। यह आठ दिन का अभियान था।
अब चीन 2020 तक चंद्रमा में
मानव-युक्त अभियान भेजने की तैयारी में है।
चीन के बरक्स भारत
की उपलब्धियाँ छोटी, पर काफी
महत्वपूर्ण हैं। मंगलयान की सफलता खासतौर से उल्लेखनीय है। खासतौर से इसलिए कि
जापान और चीन दोनों देश इस काम में सफल नहीं हो पाए। भारत अब अंतरिक्ष में समानव
उड़ान की तैयारी कर रहा है। इसरो को उम्मीद है कि भारत का पहला ‘व्योमनॉट’ सन 2016 में उड़ान भर सकेगा।
भारत ने वह यान तैयार कर लिया है, जिसमें बैठकर यात्री अंतरिक्ष में जाएगा। इसमें दो
यात्रियों के बैठने की जगह है। जल्द ही इस मॉड्यूल का जीएसएलवी पर रखकर वास्तविक
परीक्षण होगा। जनवरी 2007 में 600 किलोग्राम वज़न के इस
मॉड्यूल का एक परीक्षण हो चुका है। पीएसएलवी-सी-7 रॉकेट की मदद से इसे धरती की कक्षा में
स्थापित किया गया था। बारह दिन अंतरिक्ष में रहने के बाद यह कैपस्यूल धरती पर वापस
आया था। इसे स्पेस कैपस्यूल रिकवरी एक्सपैरिमेंट (एससीआरई-1) का नाम दिया गया है।
सम्भावना इस बात
की है कि सन 2020 में जब चीन अपना
यात्री चन्द्रमा पर भेजेगा लगभग उसी के आसपास या पहले भारत का यात्री पर भी वहाँ
जा चुका होगा। पिछले महीने 16 अक्तूबर को श्रीहरिकोटा प्रक्षेपण स्थल से भारत ने अपने
नेवीगेशन उपग्रह आईआरएनएसएस-1सी को पृथ्वी की निर्धारित कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित
किया। सात उपग्रहों की श्रृंखला में यह तीसरा उपग्रह है। ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम
का इस्तेमाल हवाई और समुद्री यात्राओं के अलावा सुदूर इलाकों से सम्पर्क रखने में
होता है। काफी ज़रूरत सेना को होती है। खासतौर से मिसाइल प्रणालियों के वास्ते।
इसी से जुड़ा एक
महत्वपूर्ण काम है वायु मार्ग की दिशासूचक प्रणाली ‘गगन’ को चालू करना। ‘गगन’ का
पूरा नाम है जीपीएस एडेड जियो ऑगमेंटेड नेवीगेशन। यह प्रणाली भारतीय आकाश मार्ग से
गुजर रहे विमानों के पायलटों को तीन मीटर तक का अचूक दिशा ज्ञान देगी। मंगलयान की
सफलता के बाद भारत का चन्द्रयान-2 कार्यक्रम तैयार है। सन 2015 या 16 में हमारा आदित्य-1 प्रोब सूर्य की ओर रवाना होगा। हमारे वैज्ञानिक हाइपर
सोनिक स्पेसक्राफ्ट के कार्यक्रम पर भी काम कर रहे हैं।
नेवीगेशन प्रणाली
के सभी सात उपग्रहों को वर्ष 2015 के अंत तक पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किया जाएगा। भारतीय
नेवीगेशन क्षेत्रीय प्रणाली के रूप में ही काम करेगी। सम्भावना इस बात की है कि
रूस हमारी इस प्रणाली की मदद ले। इसके व्यावसायिक पहलू भी हैं। भारत ने दक्षिण
पूर्व एशिया के देशों के साथ इसकी सम्भावनाओं पर बात भी शुरू कर दी है। चीन की
बेइदू नेवीगेशन व्यवस्था पिछले पन्द्रह वर्षों से काम कर रही है। उसके मुकाबले
भारतीय नेवीगेशन व्यवस्था अभी आकार ही ले रही है। दोनों की उपग्रहीय व्यवस्थाओं
में बड़ा फ़र्क है।
भारत की प्रणाली
सात उपग्रहों पर केंद्रित है, जबकि चीन के पास क़रीब 20 उपग्रह हैं। हमारी प्रणाली दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया और
सुदूर पूर्व तक काम करेगी। अमेरिकी जीपीएस, रूसी ग्लोनास, चीनी बेइदू और यूरोपीय व्यवस्था गैलीलियो भू-मंडलीय
प्रणालियाँ हैं। छोटा होना भारतीय व्यवस्था के लिए लाभकारी है, क्योंकि वह भू-मंडलीय
व्यवस्थाओं के मुक़ाबले सस्ती होगी। इलाके के तमाम देशों की जरूरतें ज्यादा बड़ी
नहीं हैं। इसी वज़ह से वह बाज़ार में लोकप्रिय हो सकती है।
भारतीय नेवीगेशन
व्यवस्था ’गगन’ की योजना वैश्विक स्तर पर भी सेवाएँ उपलब्ध कराने की है। इसके लिए
वह ’ग्लोनास’ और बेइदू के साथ सहयोग कर सकती है। रूसी और चीनी नेवीगेशन व्यवस्थाओं
के साथ सहयोग ’गगन’ को उपभोक्ताओं के बीच अधिक लोकप्रिय बना देगा और वह
एशियाई-प्रशांत क्षेत्र में सफल होगा। चीनी नेवीगेशन प्रणाली का इस्तेमाल
पाकिस्तान, थाईलैंड, लाओस, ब्रूनेई और म्यांमार कर रहे
हैं। जापान का क्वाज़ी जेनिट सैटेलाइट सिस्टम भी इसमें शामिल होने वाला है।
इसरो की बहु
प्रतीक्षित बड़ी परियोजना है जीएसएलवी मार्क-3। यह रॉकेट चार टन से ज्यादा उपग्रहों को अंतरिक्ष में
पहुँचाने का काम करेगा। इस प्रक्षेपण के बाद ही हम दूसरे ग्रहों की यात्राओं के
बारे में सोच सकते हैं। अलबत्ता हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दक्षिण
एशिया के देशों के लिए भारतीय उपग्रह की बात कही थी। यह प्रस्ताव आकर्षक है। भारत
ने अपने इलाके के देशों के साथ रिश्ते बनाने में स्पेस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल
करने के बारे में कभी सोचा नहीं। परिणाम यह है कि श्रीलंका, मालदीव, नेपाल और बांग्लादेश जैसे
देश भी चीन की और देख रहे हैं। पाकिस्तान तो चीनी मदद के सहारे चलता ही है। इन
देशों को संचार, सुदूर संवेदन, मौसम की जानकारी और अन्य
उपयोगों के लिए स्पेस टेक्नोलॉजी चाहिए। यह काम हम आसानी से कर सकते हैं। इसे रेस
कहें या सहयोग भारत और चीन की प्रतियोगिता से दोनों देश काफी कुछ नया हासिल करते
रहेंगे।
प्रभात खबर में प्रकाशित
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